
केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने 2009 में दोबारा राजकाज संभाला तो कई राजनीतिक विश्लेषकों ने उसकी वापसी के लिए पिछले कार्यकाल के दौरान सरकार के किए कुछ अच्छे कार्यों को श्रेय दिया था। सियासत को जानने-समझने वाले लोगों ने कहा था कि रोजगार गारंटी से लेकर सूचना का अधिकार कानून तक, कुछ ऐसे काम संप्रग की पहली सरकार ने किए जिससे लोगों को काफी फायदा हुआ है और इसका इनाम जनता ने अपने वोटों के जरिए कांग्रेस और उसकी सहयोगी दलों को दिया। लेकिन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) रिपोर्ट में संप्रग सरकार द्वारा 2004 और 2009 के बीच 155 कोयला ब्लॉक के बिना बोली के आवंटन से राजकोष को 10.67 लाख करोड के नुकसान का अनुमान लगाया गया है यानि घपलेबाजी पिछली सरकार के कार्यकाल में भी हुई थी। इन आवंटनों में बाजार की कीमतों के आधार पर आवंटियों को 6.31 लाख करोड रुपये का अप्रत्याशित लाभ हुआ, जिसमें 3.37 लाख करोड सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और 2.94 लाख करोड रुपये निजी क्षेत्र की कंपनियों की जेब में चले गए। यह सच है कि कोयला प्राकृतिक संसाधन है लेकिन इसी तर्क के आधार पर इसे निजी कंपनियों को औने-पौने दामों पर तोहफे में नहीं दिया जा सकता।
बात सिर्फ कॉमनवेल्थ, 2जी स्पेक्ट्रम या फिर नए खुले घोटाले की ही नहीं है, आज देश में जितने भी घोटाले हो रहे हैं, उन सभी में बाड़ के खेत खाने वाली बात ही साबित हो रही है। सरकारी धन के दुरुपयोग के खिलाफ कैग की भूमिका को लेकर सरकार के नुमाइंदे भले ही उस पर निशाना साधने में जुटे हों, लेकिन यह संवैधानिक संस्था अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रही है और आज देश की आम जनता को भी कैग की अहमियत और उसके कामकाज की जानकारी हो गई है। कैग पर सवाल खड़े करने के बजाए बेहतर यह होता कि सरकार ऐसी संस्थाओं को और मजबूत करने पर ध्यान देती, लेकिन जब तक बाड़ के खेत खाने के सवाल का कोई सही हल नहीं निकलेगा, हालात में सुधार की गुंजाइश कम ही नजर आती है। यह देश के लिए ठीक नहीं। कहते हैं कि जब हद होती है तो बगावत होती है। कहीं जनता जग गई तो क्या होगा, अंदाज लगा पाना ज्यादा मुश्किल नहीं।
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