Monday, October 17, 2016

मार्कंडेय काटजू पेश हों...

यह जोखिम ले रहा हूं मैं। न्यायपालिका के किसी फैसले पर टिप्पणी करना जोखिम से कम नहीं। बेशक, न्यायमूर्ति न्याय के देवता हैं, योग्यता में हम-आप से कई गुना श्रेष्ठ लेकिन गलती अगर हो गई हो तो? गलती इंसान से ही तो होती है। फिर भी, आलोचना यदि सुप्रीम कोर्ट का एक पूर्व जज करे तो मामला गंभीर ही नहीं, बल्कि गंभीरतम है। एक हत्याकांड में अपने ब्लॉग पर टिप्पणी के बाद पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू को सुप्रीम कोर्ट ने पेश होकर बहस करने के लिए कहा है। 
यह विरलतम है, पहला मामला है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को फैसलों की आलोचना करने के लिए तलब किया है। पहले जानते हैं कि यह मामला है क्या और विवाद का विषय क्यों बना? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने केरल के चर्चित सौम्या रेप एवं मर्डर केस में दोषी गोविन्दाचामी की फांसी की सजा रद्द कर दी थी। उसे सिर्फ रेप का दोषी माना और उम्र कैद की सजा सुनाई थी। सबूतों के अभाव में गोविन्दचामी को हत्या का दोषी नहीं माना गया था। मंजक्कड़ की रहने वाली 23 साल की सौम्या एक फरवरी 2011 को एर्णाकुलम से शोरनूर जा रही थी। दोषी गोविंदाचामी सौम्या को लेडीज कंपार्टमेंट में ले गया और वहां उसका सिर ट्रेन की दीवार में मारकर घायल कर दिया और उसे ट्रेन से बाहर धकेल दिया। बाद में उसने खून से लथपथ सौम्या के साथ बुरी तरह रेप किया था। इसी दौरान उसकी मृत्यु हो गई। काटजू ने कहा था कि मैंने पूरा जजमेंट पड़ा है। जजमेंट में एक गंभीर खामी है। काटजू ने कहा कि सबूतों के आधार पर देखा जाए तो सौम्या के शरीर में दो तरह की चोटें थीं। एक जो ट्रेन के अंदर उसे चोटिल किया गया और दूसरी चोट जो उसे ट्रेन से बाहर फेंकने पर लगी थी। काटजू ने कहा कि सिर्फ पहले सबूत के आधार पर ही आरोपी हत्या का दोषी है। उन्होंने कहा कि मानव शरीर में सिर सबसे महत्वपूर्ण और नाजुक अंग होता है। किसी के सिर में मारने से ही उसकी मौत हो सकती है। काटजू ने अपने ब्लॉग में लिखा था कि सौम्या दुष्कर्म और हत्या मामले में कोर्ट का फैसला गंभीर गलती था। लंबे समय से क़ानूनी जगत में रह रहे न्यायाधीषों से ऐसे फैसले की उम्मीद नहीं थी। कोर्ट ने कहा कि जस्टिस काटजू व्यक्तिगत रूप से अदालत में आएं और बहस करें कि कानूनी तौर पर वह सही हैं या अदालत। अदालत ने कहा कि पूर्व न्यायाधीश काटजू के प्रति उनके दिल में बहुत सम्मान है और कोर्ट चाहता है कि वे कोर्ट में आएं और खुली अदालत में बहस करें। कोर्ट ने कहा कि वह केरल सरकार और सौम्या की मां की समीक्षा याचिकाओं पर फैसला जस्टिस काटजू से बहस करने के बाद ही करेगी। 
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने एेसा कदम उठाया क्यों। एक वरिष्ठतम न्यायविद को एक मामले में महज इसलिये बहस के लिए बुलाना कि उन्होंने कोर्ट के आदेश की आलोचना की थी, न्याय और उसकी परंपराओं की कसौटी पर क्या खरा कदम है? सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका अपनी सीमाओं को लांघ रही है और आवश्यकता से अधिक सक्रिय है? क्या न्यायपालिका सक्रिय होने के लिए मजबूर है? पूरी पृष्ठभूमि को समझे बिना न्यायपालिका की आलोचना उचित नहीं है। हमारे लोकतंत्र में संविधान सर्वोपरि है और संविधान के मूल अधिकार अति महत्वपूर्ण हैं जिसमें अनुच्छेद-14 के अनुसार कोई भी ऐसी नीति या कानून जो मनमाना हो, जो भेदभावपूर्ण हों, वह असंवैधानिक है, अनुच्छेद-21 किसी व्यक्ति को उसके जीवन व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, अनुच्छेद-21 वाक् स्वतंत्रता व अभिव्यक्ति स्वतंत्रता, उपजीविका, व्यापार व कारोबार करने की स्वतंत्रता आदि प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त कोई भी कानून संविधान की मुख्य भावना के विरूद्ध नहीं जा सकता है। जब कभी न्यायपालिका के समक्ष शासन की नीतिगत निर्णय या संसद व विधान मण्डल द्वारा बनाये गये कानूनों की संवैधानिकता प्रश्न उठता है, तो न्यायपालिका उन्हें संविधान के विभिन्न प्राविधानों की कसौटी पर परखने के लिए बाध्य है और यदि न्यायपालिका उन्हें खरा नहीं पाती है तो उन्हें असंवैधानिक घोषित उसका दायित्व है। लेकिन काटजू के मामले में यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती। काटजू का लंबा अनुभव है, उन्होंने तमाम बड़े मामलों में निष्पक्षता से फैसले देकर न्याय तंत्र का इकबाल बुलंद किया है। हजारों-लाखों मामलों को नजदीक से देखकर निर्णय करने वाला न्यायविद गलत होगा, यह आसानी से नहीं कहा जा सकता। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति पीसी पंत और न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित भी वरिष्ठ जज हैं, उन्हें भी निस्संदेह लंबा अनुभव है। इसलिये इस फैसले का अच्छा नतीजा निकलेगा, एेसी पुख्ता संभावनाएं हैं। काटजू यदि पेश हुए तो न्याय पालिका के इतिहास में यह बहस कई दिशाएं देेने वाली सिद्ध होगी। विद्रोही स्वभाव के काटजू पेश होंगे, यह लगता तो है।

Thursday, October 13, 2016

हमें तो याद आएंगे चचे...

मैं आगरा बोल रहा हूं। आजकल दुख में हूं, सही कहूं तो बहुत बुरे दौर में। एक आम-से दिखने वाले इंसान की मौत मुझे मर्माहत कर रही है, भयभीत हूं भविष्य से और उनसे जो इस इंसान के न होने पर मुझे नोच-नोचकर खा जाएंगे। डीके जोशी नहीं रहे, यह सत्यता है लेकिन मैं फिर भी उम्मीद में हूं कि शायद दुनिया से ना हारने वाला यह योद्धा जीतकर लौट आए। मैं जो भी हूं, उन्हीं की वजह से हूं वरना दिन में 12-12 घंटे विद्युत कटौती तो आम थी। मैं वो वीआईपी शहर नहीं था, जो आज हूं।
और मैं... ताजमहल की वजह से दुनिया में विख्यात इस शहर का एक और आम आदमी हूं। करीब ढाई दशक तक आज, अमर उजाला, दैनिक जागरण, आई नेक्स्ट में पत्रकारिता में सक्रिय रहा। आगरा के कई दौर देखे हैं मैंने। ताजमहल है जरूर लेकिन उसकी कोई औकात ही नहीं थी। देश-दुनिया से आते पर्यटक बेहाल होकर लौटते। खुद ताजमहल प्रदूषण की मार से बेहाल था। बिजली के न आने का समय था और न जाने का। कई घंटे तक लगातार कटौती के बाद अचानक बिजली का गुल होना भी यहां आम बात थी। सब-कुछ बेढ़ब, बेहाल। एेसे में डीके जोशी का उदभव हुआ। जोशी तब तक सफाईकर्मियों के नेता थे, एकछत्र। नगर निगम में एेतिहासिक पड़ाव से चर्चित हुए जोशी ने ताजमहल को बचाने की बागडोर संभाली। उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ताज संरक्षित क्षेत्र प्राधिकरण गठित किया और छह सौ करोड़ का प्रावधान कर दिया। भ्रष्टाचार की घुन लग जाती यदि जोशी नहीं होते। एक भी पैसे का दुरुपयोग होता तो वह चीखने-चिल्लाने लगते। शीर्ष कोर्ट ने मॉनीटरिंग कमेटी बनाई और उन्हें एवं रमन को सदस्य नियुक्त कर दिया। इस दराेगा ने कभी गलत होने नहीं दिया, डीएम-कमिश्नर सब लाइन में। कोई भी इस हाल में नहीं दिखा कि जोशी की बात का विरोध करता। उनके प्रयासों पर कई अहम मसले सुलझे और सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कोर्ट कमिश्नर की तैनाती की। आगरा में लगभग सारे तालाब लील गए बिल्डरों पर उन्होंने कड़ी नजर रखी। हाईकोर्ट तक गए और आदेश कराकर लाए। प्रशासन ढीला नहीं पड़ता तो कई तालाबों पर खड़ीं गगनचुंबी इमारतें धूल में मिल गई होतीं। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में वह बिल्डरों के गले में फांस बनकर अटके रहे। मामला प्राधिकरण में लंबित है और कड़े आदेश की पूरी संभावना है। इसी तरह झोलाछाप डॉक्टरों का भी उन्होंने ही 'इलाज' किया। मुद्दे तमाम हैं। यह कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आगरा के विकास और उसकी समस्याओं से जुड़े हर मुद्दे में जोशी आगे थे। आगरा के विकास की गाथा जब भी लिखी जाएगी, उनका नाम लिये बिना वो कतई पूरी नहीं होगी।
जोशी आगरा के पत्रकारों में 'चचे' उपनाम से प्रसिद्ध थे। कभी खबरों का टोटा होता, तो हम बेहिचक उन्हें फोन मिलाते, और शानदार खबर हाथ में आ जाती। कभी-कभी तो ब्रेकिंग न्यूज़ की सूचना देकर खुद बुला लेते। मैं उन दिनों दैनिक जागरण में था। अखबार बेशक पुराना था लेकिन खबरों की विश्वसनीयता की दृष्टि से उसे खरा नहीं माना जाता था। यह अखबार का कठिन दौर था। कोई खबर यदि अमर उजाला में छपी होती तो सौ प्रतिशत सत्य मान ली जाती। इस दौर में चचे काम आए। आगरा के विकास की तमाम योजनाओं में भ्रष्टाचार के घुन टटोलने में उन्होंने हमारी टीम की खूब मदद की। हम जब चाहते, वो सीढ़ी चढ़कर दैनिक जागरण कार्यालय आ जाते। हम फाइलें उलटते-पलटते, जो कागज चाहते, ले लेते। चाय की चुस्कियों के बीच चचे बतियाते रहते। हम पूछते, इतना बेखौफ रहते हो, कोई मार देगा। स्कूटर छोड़ दो चचे, सुरक्षा में घूमा करो। तो बिंदास चेहरा खिलखिला उठता। बोलते- मारकर तो देखे कोई, मेरा भूत शमसान में नहीं छोड़ेगा उसे। कभी भी पुराने से स्कूटर पर घूमते दिख जाते। हर अखबार में उनके बराबर के संपर्क थे। कभी किसी खबर में किसी से उन्होंने अन्याय नहीं किया। कोई ब्रेकिंग न्यूज देते, तो शर्त होती कि सभी अखबारों में बांटनी होगी। बात उन दिनों की है जब मैं पुष्प सवेरा का संपादक था, जिसके बिल्डर बीडी अग्रवाल मालिक थे। अग्रवाल और चचे के बीच छत्तीस का आंकड़ा। चचे एेसा बांस थे, जो अग्रवाल तो न दिन में चैन से बैठने देते और न रात को सोने। स्थानीय संपादक सुरेंद्र सिंह ने जोशी और अग्रवाल की मुलाकात की कोशिशें शुरू कीं। अग्रवाल चाहते थे लेकिन जोशी अड़े थे। बमुश्किल इस बात के लिए तैयार हुए कि अखबार के आफिस में आकर इंटरव्यू देंगे। चचे तय समय पर पहुंच गए पर, सिंह ने अग्रवाल को भी बुला लिया। आफिस के बाहर अग्रवाल की कार देखकर चचे बिदक गए। फोन पर बोले, सुरेंद्र सिंह तुमसे बात हुई थी, वादा किया था इसलिये आ गया हूं। बाहर आकर इंटरव्यू करा लो। लाख मनुहार की, चचे अंदर नहीं आए। हम लोग बाहर आए तो जोशी गर्मजोशी से मिले। यह कहते हुए स्कूटर स्टार्ट करके चले गए कि इस जनम में तो इस आदमी से नहीं मिलूंगा। तुम लोग मेरा इंटरव्यू नहीं छाप पाओगे, क्योंकि लाला जो चाहता है, वो मैं करूंगा नहीं। उधर, अग्रवाल के चेहरे पर पराजय के भाव थे। किसी चमचे ने कहा, आप तो परम शक्तिशाली हो, मरवा क्यों नहीं देते इसे। जवाब मिला, कैसे मरवा दूं। यह मर गया तो हंगामा बरप जाएगा। जीते जी मारा जाऊंगा। कई बार कोशिश कर चुका हूं पर एक कदम भी नहीं डिगता। चचे से जुड़े तमाम किस्से हैं, कहानियां हैं। चचे आगरा की सांसों में हैं, स्मृतियों में हैं। उन्हें कोई नहीं भूल सकता, क्योंकि उनके किये काम हर समय उनकी याद दिलाते रहेंगे। हमें तो याद आएंगे चचे।

Thursday, September 15, 2016


'राजगद्दी' के लिए एक मां की जंग

समाजवादी पार्टी में जंग छिड़ी है। सत्तादल के शीर्ष परिवार में मुखिया मुलायम सिंह यादव का बेटा अखिलेश और भाई शिवपाल आमने-सामने हैं। कुछ महीनों की दूरी पर खड़े विधानसभा चुनावों के मद्देनजर छवि सुधारने की कवायद का प्रतिकूल असर हुआ है। लेकिन सारे फसाद की जड़ है क्या, कौन है जो परदे के पीछे खड़ा मुलायम सिंह को रोक रहा है, उन मुलायम सिंह को जो परिवार में किसी भी विवाद पर तत्काल सामने आ जाते थे? दरअसल, जंग खाटी समाजवादी मुलायम सिंह की विरासत और राजनीति के हरे-भरे मैदान में खड़ी नेताजी की 'फसल' पर दावेदारी की है। 'राजगद्दी' पर बैठे 'राम' को हिलाने के लिए 'कैकई' अपने 'भरत' के लिए पूरा जोर लगा रही है। बाहरी अमर सिंह तो महज बहाना हैं। अमर सिंह के साथ जो भी हुआ, वो महज प्रतीकात्मक होगा। हरियाली फसल के बीच खड़े इस 'बिजूके' पर लगा निशाना असल में, कैकई के मंसूबों पर होगा।
सबसे पहले उस वजह की शिनाख्त करते हैं जो इस पूरी लड़ाई की नींव की मानिंद है। 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए टिकट वितरण के दौरान मुलायम सिंह परिवार के एक सदस्य का नाम तेजी से सामने आया और कौतूहल का विषय बन गया। चर्चा फैली कि मुलायम सिंह यानी नेताजी की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता का बेटा प्रतीक उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से मैदान में उतरने का इच्छुक है। लेकिन अखिलेश बीच में आ गए, प्रतीक को टिकट नहीं मिली लेकिन मुलायम सिंह खुद मैदान में उतर गए। बाद में दो सीटों पर जीते मुलायम के आजमगढ़ सीट छोड़ने को लेकर भी सियासत हुई। मुलायम मैनपुरी का प्रतिनिधित्व बरकरार रखना और आजमगढ़ से प्रतीक को मैदान में उतारना चाहते थे, लेकिन अखिलेश फिर तैयार नहीं हुए। नतीजतन, पार्टी को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाने वाले परिवार में, जिसमें बेटा पैदा होने पर यह मनन का दौर चलने के व्यग्य लगाए जाने शुरू हो जाते हैं कि उसे लड़ाया किस सीट से जाएगा, प्रतीक घर बैठे रह गए। साधना के लिए यह आघात की तरह था, वह अपने बेटे की राजनीतिक लांचिंग की हसरत दिल में ही दबाए रहने के लिए मजबूर हो गईं। लेकिन संघर्ष के मौजूदा दौर की नींव पड़ गई। इसी बीच गायत्री प्रजापति मंत्री बन गए। अदने से आदमी ने खनन के धंधे से जो बेशुमार दौलत कमाई, उसके पीछे प्रतीक का ही  नाम है। साधना ने कई खेल खेले, आगरा मंडल के एक व्यक्ति को अखिलेश के विरोध के बावजूद मंत्री बनवा दिया। 'खबर' यहां तक उड़ीं कि इसके एवज में करोड़ों रुपये पहुंचाए गए हैं। 
बीपीएल कार्डधारी प्रजापति को राज्यमंत्री बनाया गया। उस वक्त खनन जैसा मालदार महकमा मुख्यमंत्री के अधीन था मगर गायत्री ने साधना और प्रतीक से नजदीकियां बढ़ा लीं। साधना गुप्ता से मुलायम तक सिफारिश कराकर खनन जैसा मालदार महकमा हासिल कर लिया। फिर शुरू करा दिया पूरे यूपी में अवैध रूप से खनन का खेल। हर महीने दो सौ करोड़ की इस काली कमाई का खेल फलने-फूलने लगा। गायत्री ने अपने बेटे और साधना के बेटे प्रतीक यादव को लेकर कई फर्जी कंपनियां बनाकर काली कमाई का निवेश करने लगा। जब गायत्री के दम पर बड़ा बिजनेस एंपायर प्रतीक खड़ा करने में सफल रहे तो मुलायम और पत्नी साधना फूले नहीं समाए। यही वजह रही कि पूरे चार साल तक गायत्री ने लूटपाट मचा कर रख दी। इधर, प्रतीक की स्वीकार्यता के लिए साधना प्रयास करती रहीं, मुलायम मानते भी रहे। अखिलेश भी मन मारकर सब-कुछ बर्दाश्त करते रहे। गायत्री के काले कारनामे अखबारों की सुर्खियां बनते गए। लेकिन अवैध खनन को लेकर सीबीआई का शिकंजा कसने की तैयारियां शुरू होते ही, जैसे अखिलेश को मौका मिल गया। उन्होंने गायत्री प्रजापति को मंत्रिपरिषद से बर्खास्त कर दिया। इससे नेताजी तो जैसे बवंडर में फंस गए। मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटाकर एक वार हो ही चुका था। साधना आपा खो बैठीं। देवर शिवपाल सिंह यादव के भी दोनों चहेते कार्रवाई का शिकार हुए थे तो वो भी साथ आ गए। मोर्चा खोल दिया गया। मुलायम बेबस से सब-कुछ देखते रहे। अमर सिंह 'मंथरा' की भूमिका निभाते रहे। उन्हीं का कंधा इस्तेमाल होता रहा। अखिलेश जानते हैं कि अमर सिंह को ढेर करके वह न केवल शिवपाल को मात देंगे बल्कि साधना भी निशाने का शिकार बन जाएंगी। 
मुलायम की एक खासियत यह है कि वे अपनों की हर तरह से मदद करते हैं। उनकी पहली पत्नी मालती देवी से उनका बड़ा बेटा अखिलेश है। अखिलेश का जन्म 1973 में हुआ था, 2003 में मालती देवी का निधन हो गया। पत्नी के न रहने के बाद नेताजी खुद को बेहद अकेला महसूस करने लगे इसलिए उन्होंने साधना से विवाह कर लिया। इससे पूर्व उनसे 1988 में दूसरा पुत्र प्रतीक पैदा हो चुका था। पहली बार अधिकारिक रुप से लोगों को साधना गुप्ता के उनकी पत्नी होने का तब पता चला जब कि आय के ज्ञात स्रोतों से ज्यादा संपत्ति के मामले में मुलायम ने फरवरी 2007 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर उन्हें अपनी पत्नी बताया। सारे घटनाक्रम में प्रतीक की पत्नी अपर्णा का भी खासा रोल होना तय है। वह समझदार है, समझती है कि दबाव की राजनीति किए बिना काम नहीं बन सकता। भातखंडे संगीत महाविद्यालय में शास्त्रीय संगीत सीखी यह बहू हर्ष फाउंडेशन नाम के एनजीओ से जुड़ी हुई हैं। उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान की तारीफ की। जब प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश के दौरे पर आए तो उनके साथ सेल्फी खिंचवायी। मोदी ने भी उसके विचारों को अपनी साइट पर डाला। गोहत्या पर कड़ी पाबंदी की मांग की।मंहत अवैद्यनाथ का निधन हुआ तो गोरखपुर जाकर योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की। जब किसी ने मोदी की तारीफ करने के बारे में पूछा तो छूटते ही कह दिया कि यह तो मेरे दिल से निकले उदगार है। मैंने यह कहते समय अपने दिमाग का नहीं बल्कि दिल का इस्तेमाल किया है। यह सब बातें ससुरजी को यह संकेत देने के लिए काफी थी कि घर में ‘वीर तुम बढ़े चलो, सामने पहाड़ हो, सिंह की ललकार हो,’ शुरु हो गया इसलिए उन्होंने उसे उत्तर प्रदेश से विधानसभा का चुनाव लड़वाने का फैसला कर लिया। वैसे भी दूसरी पत्नी का दबाव था। जब बड़ी बहू सांसद हो तो छोटी विधायक भी न बने यह कैसे हो सकता है। हालांकि यहां भी अखिलेश ने यथासंभव बाधा पैदा की है, उनके दखल से अपर्णा को लखनऊ की उस सीट से टिकट मिली है जहां से सपा की जीत लगभग असंभव ही है। बहरहाल, परिवार की इस लड़ाई ने समाजवादी पार्टी की राजनीतिक उम्मीदों को खासा नुकसान पहुंचाया है। यह जितने दिन चलेगी, नुकसान उतना ही बढ़ेगा।

Friday, June 3, 2016

धर्म में ढंकी सियासत का काला सच

यह अप्रत्याशित तो कतई नहीं था। मथुरा के जवाहर बाग में हजारों असामाजिक तत्वों की भीड़ के सामने अगर नौसिखियाओं की तरह पुलिस और प्रशासनिक अफसर पहुंचे तो वही हुआ, जो हो सकता था। लेकिन बात इतनी सुलझी भी नहीं... यहां बेशक, पुलिस और भीड़ की भिड़ंत हुई पर, इसकी पटकथा राजनीति के बड़े सूरमा ने लिखी। धर्म के घोल में घुली सियासत ने पुलिस के पहले से ही हाथ-पैर बांध रखे थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्ती और स्थानीय राजनीति के प्रतिदिन के हंगामे के उकसावे ने अनुभवी डीएम-एसएसपी के हाथ-पैर फुला दिए और इतने बड़े कांड की कहानी बन गई। उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी का एक बड़ा चेहरा भी परदे के पीछे है, मात खाया हुआ, पस्त और बेहाल।
मथुरा में हाईवे के आसपास की बेशकीमती जमीनें माफिया की नजरों में हॉटस्पॉट रही हैं, धार्मिक नगरी में धर्म के कारोबारी भी इस मामले में पीछे नहीं। बाबा जयगुरुदेव के अनुयायी भी अक्सर जमीन पर कब्जे के आरोपों में फंसते रहे हैं। इन्हीं अनुयायियों की नजर करीब ढाई सौ एकड़ के जवाहर बाग पर पड़ी, उस समय बाबा के जयगुरूदेव का गोलोकगमन हुआ था। भीतर बिछी चौसर पर उत्तराधिकार को लेकर शह और मात का खेल चल रहा था। बाबा के नजदीकी पंकज यादव यह जंग जीत गए, तमाम दांव-पेच के बावजूद उमाकांत तिवारी हार गए। लेकिन यह बात तब जोर-शोर से उठी थी कि बाबा ने तिवारी का नाम लिया था। कहा था कि कभी भी हम आएंगे, अब वो अपने लिए.. परमार्थ के लिए। नए लोगों के लिए जो नए आएंगे, लेंगे नाम तो ये उमाकांत तिवारी और पुराने जो नामदानी हैं, वो भी ये सम्हाल करते रहेंगे। इसके बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, उनके अनुज शिवपाल सिंह और पुत्र अखिलेश यादव ने मध्यस्थता की थी। नतीजतन, पंकज यादव के सिर पर ताज सज गया। लेकिन विवाद की कथा लिखनी शुरू हो गई। मथुरा-दिल्ली बाईपास पर सैकड़ों एकड़ भूमि में बने भव्य बाबा जयगुरूदेव नामयोग साधना मंदिर पर यादव समर्थक काबिज हो गए और विरोधी, कुछ समय बाद जवाहर बाग में आकर जम गए। अजूबी मांगों वाले यह लोग खुद को सत्याग्रही बताकर बाग में बसने लगे। कई बार उन्हें हटाने की कोशिश में हंगामे हुए। शासन-सत्ता को खुली चुनौती के बयान सुर्खियां पाते रहे।
ताजा घटनाक्रम में भी सत्ता के दांव-पेच चले हैं। प्रदेश के एक कद्दावर मंत्री की आश्रम पर काबिज समूह से नजदीकियां जगजाहिर हैं। इसी मंत्री की इच्छा पर जिले के पुलिस-प्रशासनिक तंत्र को पर्याप्त मात्रा में फोर्स उपलब्ध नहीं कराया गया। हिंसा में शहीद पुलिस अधीक्षक मुकुल द्विवेदी के मित्र ने खुलकर कहा भी है कि शासन स्तर से पर्याप्त पुलिस फोर्स उपलब्ध कराए जाने को लेकर मुकुल तनाव में चल रहे थे। जिस फोर्स और दम के बूते, वो बाग में घुसे, उससे यह पहले ही तय हो गया था कि मात पुलिस के हिस्से में ही आने वाली है। बताने की जरूरत नहीं कि पुलिस एेसे अभियान स्थानीय अभिसूचना इकाई से हालात का फीडबैक लेने के बाद चलाती है। सेना के साथ अॉपरेशन में सहयोग की रणनीति बनाई पर, एेन वक्त पर सेना को बुलाया ही नहीं गया। जिस जवाहर बाग के एक तरफ जिला मुख्यालय यानी कलक्ट्रेट, दूसरी ओर जिला जेल, तीसरी तरफ सैन्य क्षेत्र और चौथी ओर दिल्ली राजमार्ग है, एेसे संवेदनशील क्षेत्र में खिचड़ी पक जाना स्थानीय खुफिया तंत्र की नाकामी है।
इतनी लापरवाही कैसे हो सकती है कि बाग में हथियारों का जखीरा जमा हो, हैंड ग्रेनेड, फरसे-तलवारें, एके 47 जैसे अस्त्रों-शस्त्रों का जमावड़ा हो और पुलिस जैसे मात्र हाथों में डंडे लेकर पहुंच जाए। शुरुआती दौर में ही फरह थाने के प्रभारी संतोष यादव और एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के घायल होने के बाद अफरातफरी मच जाना तो एेसा है जैसे बच्चों का कोई खेल हो। आश्चर्य इस बात का भी है कि आगरा परिक्षेत्र के डीआईजी मथुरा जाकर हालात का जायजा लें, रणनीति बनाएं लेकिन अन्य जिलों की फोर्स तक मुहैया कराने की जरूरत न समझी जाए।
सूत्र तो यहां तक कहने से नहीं हिचक रहे कि कद्दावर मंत्री के इशारे पर आला अफसरों ने लापरवाही बरती। यह नेता चाहता है कि नया आश्रम बन जाए और इस बागी गुट का जयगुरुदेव आश्रम पर काबिज गुट के बीच ताकत का संतुलन बना रहे। इस बीच सक्रिय हुए काबिज गुट ने अवैध कब्जेदारों में मतभेद कराकर अपनी घुसपैठ बढ़ा ली। बवाल के बाद ज्यादातर लोगों का मंदिर की तरफ भागना इसी ओर इशारा कर रहा है कि अंदरखाने कुछ और भी पक रहा था। सवाल तो कई हैं जो इन अवैध कब्जाधारियों को सत्ता के संरक्षण का शक पैदा कर रहे हैं। पहला और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि मात्र दो दिन सत्याग्रह की अनुमति लेने वालों को दो साल तक क्यों जवाहर बाग से नहीं हटाया गया? उन्हें सरकारी दर पर राशन कैसे और किसके इशारे पर मुहैया कराया जाता रहा? बिजली आपूर्ति कैसे चलती रही और तीन बार खराब हुए दो सरकारी नलकूप किसने और क्यों ठीक कराए जबकि उनके लिए किसी बिल का  भुगतान नहीं हो रहा था? धर्म के आवरण में ढंके राजनीति के इस खेल ने पुलिसकर्मियों की बलि ली है, हालांकि लगता अब भी नहीं कि दोषी बेनकाब होंगे। जांच में भी लीपापोती के पक्के आसार हैं क्योंकि जांच मंडलायुक्त स्तर के एक सरकारी अफसर को दी गई है, न कि किसी न्यायिक अधिकारी को। आयुक्त की मजबूरी होगी कि वह सत्ता की मर्जी के माफिक रिपोर्ट तैयार करे। जांच अधिकारी बदला गया है। पहले घोषित आगरा का कमिश्नर सपा के दूसरे प्रभावशाली नेता का करीबी था जो कद्दावर मंत्री से आजकल छत्तीस का आंकड़ा रखते हैं। आगरा के कमिश्नर की जांच कद्दावर मंत्री के गले फंस सकती थी। बहरहाल, इस प्रकरण पर शासन-सत्ता को शर्म तो करनी ही चाहिये।

Thursday, March 3, 2016

मानसिक रोगों का बढ़ता साम्राज्य

सावधान! भारत में मानसिक रोग अपना साम्राज्य बनाने लगे हैं। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा, तनाव, झुंझलाहट जैसे भाव आपके स्वभाव का हिस्सा बन रहे हैं तो सतर्क रहिए। महंगाई जैसी समस्याएं भी रोग को विकराल बनाने में योगदान कर रही हैं। हाल इतने खराब हैं कि देश में हर सातवां व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है। एक साल की ही अवधि में रोगियों की संख्या में करीब 20 लाख की वृद्धि हुई है। भयावह होते संकट पर प्रकाश डालती रिपोर्ट:-
डिप्रेशन और सिजोफ्रेनिया
मानसिक रोगों में सबसे ज्यादा रोगी डिप्रेशन के होते हैं। सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी भी बढ़ रही है हालांकि उसकी रफ्तार कम है। मनोचिकित्सकों के अनुसार, दिमाग में पाए जाने वाला सीरोमिन केमिकल कम हो जाने पर डिप्रेशन की बीमारी होती है। अक्सर लोग कहते हैं कि उन्हें टेंशन हो रही है और इसी स्थिति को डिप्रेशन कहने लगते हैं, यह गलत है। डिप्रेशन एक बीमारी है जो किसी को भी हो सकती है। डिप्रेशन की बीमारी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं दो से तीन गुना ज्यादा होने की संभावना होती है। हर पांच में से एक महिला डिप्रेशन की शिकार है। सिजोफ्रनिया एक तरह से पागलपन की बीमारी है जिसमें व्यक्ति दूसरों पर शक करने लगता है और अजीब हरकतें करता है। यह गंभीर स्थिति होती है। डिप्रेशन के मुकाबले इसके मरीज कम हैं। अकेले मुंबई की ही बात करें तो वहां मुंबई नगर निगम की स्वास्थ्य समिति ने इस साल डिप्रेशन की दो प्रमुख दवाइयों की तीस लाख गोलियां खरीदने का फैसला लिया है। पिछले साल यह संख्या साढ़े चार लाख थी और उससे भी पिछले साल एक लाख 50 हजार थी यानि साल-दर-साल डिप्रेशन की गोलियों की खरीद में बढ़ोत्तरी हुई है। खरीदी जा रही दवाइयों में से एक डिप्रेशन और सिजोफ्रेनिया बीमारी में काम आती है। इतनी बड़ी तादात में खरीदी जा रहीं गोलियां एक बड़ा सवाल खड़ा करती हैं कि क्या मुंबई धीरे-धीरे मानसिक तनाव से घिरती जा रही है? क्या बीमारी इस कदर बढ़ चुकी है कि उससे निपटने के दवाइयों की इतनी बढ़ी खेप की जरूरत पड़ रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी एक समिति का आंकलन है कि देश के मानसिक अस्पतालों में रोजाना डिप्रेशन के 50 या इससे ज्यादा मरीज आते हैं। दो गोली सुबह, दो शाम के हिसाब से एक मरीज को 15 दिन की दवाएं दी जाएं तो 50 मरीज के हिसाब से 15 दिन की खुराक 3000 गोलियां होती हैं। महीने के हिसाब से 75000 गोलियां इस्तेमाल होती हैं। ये एक अस्पताल के एक दिन के मरीजों की एक महीने की खुराक है। सभी अस्पतालों के मरीजों की बात करें, तो यह संख्या बहुत ज्यादा होगी। अन्य बीमारी की अपेक्षा इन बीमारी का इलाज लंबा चलता है। डिप्रेशन मानसिक लक्षण के अलावा शारीरिक लक्षण भी प्रकट करता है जिनमें छाती में दर्द, दिल की धड़कन में तेजी, कमजोरी और सिरदर्द शमिल हैं। इसके अलावा डिप्रेशन के मरीजों का किसी काम में मन नहीं लगता, किसी काम या किसी चीज में दिलचस्पी नहीं होती, आॅॅफिस या घर से बाहर जाने की इच्छा नहीं होती, आत्मविश्वास कम हो जाता है, स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है, उदासी अधिक सताती है और भूख कम लगती है या समाप्त हो जाती है। डिप्रेशन के ज्यादातर मरीजों को नींद बहुत कम आती है लेकिन कुछ मरीजों को नींद अधिक सताती है। आम तौर पर इन लक्षणों वाले मरीज सामान्य ओपीडी में जाते हैं जहां तमाम तरह के परीक्षणों के सामान्य आने पर चिकित्सक मरीज को सामान्य बता देते हैं क्योंकि उनके एक्स-रे,  ईसीजी एवं अन्य परीक्षणों के निष्कर्ष सामान्य होते हैं लेकिन ऐसे मरीज डिप्रेशन से पीड़ित हो सकते हैं।

आम हुआ डिप्रेशन, उदासी नहीं है ये

मनोचिकित्सक डॉ. केसी गुरुनानी कहते हैं कि हमारे देश में आज डिप्रेशन इतना आम हो गया है कि लोग इसे बीमारी के तौर पर नहीं लेते। ज्यादातर लोग डिप्रेशन को सामान्य उदासी की तरह ही देखते हैं और ऐसे में लोग डिप्रेशन के बारे में विशेषज्ञों से राय लेने से कतराते हैं जिसका नतीजा काफी घातक हो जाता है और इसकी परिणति आत्महत्या के रूप में भी हो सकती है। एक अनुमान के अनुसार डिप्रेशन के 15 प्रतिशत रोगी आत्महत्या कर लेते हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि आज केवल वयस्क ही नहीं बल्कि बच्चे भी डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं और स्कूल जाने वाले बच्चों में डिप्रेशन का मामला लगातार बढ़ता जा रहा है और यही वजह है कि बच्चों में आत्महत्या की घटना पहले से बढ़ी हैं। इंस्टीट्यूट आॅफ मेंटल हेल्थ एंड बिहेवियरल साइंसेस के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. समीर कलानी कहते हैं कि आज के आधुनिक जीवन की जटिलताओं एवं सामाजिक,आर्थिक समस्याओं के कारण डिप्रेशन एवं आत्महत्या की घटनाओं में भयानक तेजी आयी है। आज जरूरत इस बात की है कि सामाजिक स्तर पर किसी मानसिक समस्या को देखने के तौर-तरीके एवं दृष्टिकोण में बदलाव लाया जाए।


समूची दुनिया की समस्या

आज के समय में खास तौर पर महानगरों में जीवन में ज्यादा से ज्यादा जटिलताएं, समस्याएं एवं व्यस्तता आने तथा रोजमर्रा के जीवन के अधिक तनावपूर्ण होने के कारण डिप्रेशन का प्रकोप बढ़ रहा है। पहले जीवन सरल था और इतनी अधिक व्यस्तता एवं समस्याएं नहीं थी तब डिप्रेशन का प्रकोप भी कम था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 18 देशों में करीब 90 हजार लोगों पर किए सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में सबसे ज्यादा 36 फीसदी लोग मेजर डिप्रेसिव एपिसोड का शिकार हैं। दूसरे नंबर पर है फ्रांस है जहां 32.3 फीसदी लोग इसके शिकार है। तीसरे नंबर पर है अमेरिका है जहां 30.9 फीसदी लोग इसके शिकार हैं। इस सूची में सबसे नीचे है चीन है जहां 12 प्रतिशत लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया भर में 12 करोड़ 10 लाख लोग डिप्रेशन का शिकार होते हैं जिसमें से साढ़े आठ लाख लोग अपनी जान तक दे देते हैं। भारत में मध्यम आयु से ही लोग डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। यहां डिप्रेशन के शिकार लोगों की औसत उम्र 32 साल के आसपास है। भारत में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में डिप्रेशन का प्रकोप दोगुना है। 

भारत में दसवीं सामान्य बीमारी

भारत में डिप्रेशन आज दसवीं सबसे सामान्य बीमारी है। विश्व स्वास्थय संगठन की इंवेस्टमेंट इन हेल्थ रिसर्च एंड डेवलपमेंट नामक एक रिपोर्ट में आशंका व्यक्त की गयी है कि आने वाले समय में विकासशील देशों में डिप्रेशन विकलांगता का प्रमुख कारण बनने जा रहा है। विश्व बैंक ने भी अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि हृदय रोगों के बाद डिप्रेशन और अन्य मानसिक बीमारियां विकलांगता का दूसरा सबसे प्रमुख कारक होंगी। ऐसा माना जा रहा है कि सन 2020 तक हमारे देश में डिप्रेशन दूसरी सबसे आम बीमारी हो जायेगी और उस समय तक यह महिलाओं की सबसे आम बीमारी होगी। ऐसा नहीं है कि डिप्रेशन आधुनिक बीमारी है। प्राचीन भारत में भी डिप्रेशन के उदाहरण हैं। महाभारत में अर्जुन के रणभूमि में डिप्रेशन का शिकार होने का जिक्र है। वह श्रीकृष्ण की साइकोथेरेपी एवं काउंसलिंग के जरिये ही ठीक हुए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल एवं सुप्रसिद्ध भारतीय फिल्मी शख्सियत गुरुदत्त भी डिप्रेशन के शिकार थे। 


क्या-क्या हैं वजह

देश में हर कदम पर समस्याएं हैं। ट्रैफिक जाम है तो कभी पानी नहीं आ रहा तो कभी बिजली की आपूर्ति ठप है, कभी एसी ठीक नहीं तो कभी पंखा, वाहन की समस्या। कामकाज और घर, सभी जगह समस्याओं की लाइन लगी है। यही समस्याएं मानसिक रोग पैदा कर रही हैं। शहरों की अपनी समस्याएं हैं तो गांवों की अपनी यानि कोई हिस्सा ऐसा नहीं जो समस्यामुक्त हो। राजनीतिक नेतृत्व से हताशा भी चैन नहीं लेने दे रही। बढ़ती मंहगाई और हिंसा जैसी आर्थिक-सामाजिक समस्याओं के कारण भी मानसिक रोग बढ़ रहे हैं। जानकारों के अनुसार काम में बढ़ती प्रतियोगिता और खुद के लिए वक्त न होना इसकी मुख्य वजह है। घर से निकालने से लेकर दफ्तर पहुंचने , बॉस द्वारा काम का दबाव और अन्य प्रतियोगिताओं में खुद को बनाए रखने की जद्दोजहद लोगोें को हर वक्त तनाव दे रही है। तनाव ने हर वर्ग के व्यक्ति को अपनी चपेट में ले लिया है। छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक को टेंशन है। भागमभाग के बीच लोगों के पास योगा करने तक का वक्त नहीं है। लोगों की सहनशक्ति कम हो गई है। जरा सी बात पर गुस्सा बढ़ते तनाव का संकेत है। समस्या इस तेजी से बढ़ रही है कि भारत में अन्य देशों की तुलना में डिप्रेशन के सबसे ज्यादा मरीज हो गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत दुनिया का पहला देश है जहां सबसे ज्यादा लोग डिप्रेशन के मरीज बन रहे हैं। डिप्रेशन वैसी मानसिक बीमारी है जो आत्महत्या का कारण बनती है। संगठन के अनुसार, भारत में 36 प्रतिशत लोग गंभीर डिप्रेशन अर्थात मेजर डिप्रेसिव एपिसोड के शिकार हैं। विभिन्न अनुमानों के अनुसार, देश में मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों की संख्या पांच करोड़ तक पहुंच चुकी है। 

सोशल नेटवर्किंग साइट्स भी दोषी

हाल के विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि नेटवर्किंग साइट्स का बहुत अधिक इस्तेमाल डिप्रेशन, एंजाइटी, मानसिक तनाव, ओसीडी जैसी मानसिक समस्याएं पैदा कर रहा है और कई बार इनकी परिणति खुदकुशी के रूप में भी हो सकती है। इन साइट्स के बढ़ते इस्तेमाल के कारण मानसिक समस्याएं पैदा होने के मामले भारत में भी बढ़ रहे हैं और ये देश में मानसिक रोगियों की संख्या में इजाफा के एक प्रमुख कारण हो सकते हैं। मानसिक आरोग्यशाला, आगरा के चिकित्सक डॉ. मनीष जैन के मुताबिक, उनके पास इलाज के लिए आने वाले ऐसे युवकों एवं बच्चों की तादाद बढ़ रही है जो देर रात तक इंटरनेट सर्फिंग एवं चैटिंग करने के कारण अनिद्रा, स्मरण क्षमता में कमी, चिड़चिड़ापन और डिप्रेशन जैसी समस्याओं से ग्रस्त हो चुके हैं। देर रात तक जागकर इंटरनेट के ज्यादा इस्तेमाल की लत के कारण बच्चों एवं युवा मानसिक बीमारियों के शिकार बन रहे हैं। यह पाया गया है कि महानगरों एवं बड़े शहरों में बड़ी संख्या में युवा नींद संबंधी समस्याओं के शिकार हैं। क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट संस्कृति सिंह बताती हैं कि फेसबुक पर व्यक्ति जब तक रहता है तो उसका कई लोगों के साथ वर्चुअल रिलेशनशिप बनती है, लेकिन फेसबुक की दुनिया से बाहर आते ही व्यक्ति अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं। फेसबुक के कारण वास्तविक संबंध भी प्रभावित होते हैं जिससे वास्तविक जिंदगी में समस्याएं आती हैं। ये समस्याएं व्यक्ति को मानसिक तनाव और अन्य मानसिक बीमारियों से ग्रस्त कर सकती हैं। इस समय दुनियाभर में फेसबुक के 90 करोड़ और ट्विटर के 50 करोड़ से अधिक यूजर्स हैं और इनकी संख्या में हर घंटे तेज वृद्धि हो रही है। बच्चों, किशोर एवं युवा स्मार्टफोन, लैपटॉप एवं डेस्कटॉप के जरिये फेसबुक या अन्य सोशल नेटवर्किंग साइटों पर चैटिंग करने अथवा तस्वीरों एवं संदेशों का आदान-प्रदान करने में अधिक समय बिताते हैं।

जल्द मौत की दस्तक

घबराहट और तनाव जैसी मानसिक बीमारी वाले लोगों की जल्दी मौत हो सकती है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और एडिनबरा यूनिवर्सिटी के एक शोध से उजागर हुआ है कि तनाव और घबराहट जैसी बीमारियां भी 16 प्रतिशत तक मौत का खतरा बढ़ा सकती है। शोधकर्ताओं ने दिल और कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से समय से पहले होने वाली 68,000 मौतों की जांच की। सामने आया कि अगर शराब पीने और धूम्रपान जैसे कारणों को ध्यान में रखा जाए तो घबराहट जैसी बीमारियों से 16 प्रतिशत तक मौत का खतरा बढ़ सकता है। तनाव और घबराहट की बढ़ती समस्या इस खतरे को 67% तक बढ़ा सकती है। गंभीर मानसिक बीमारियों से लोगों में खतरे के प्रमाण पहले से ही मौजूद हैं। हल्के तनाव के मामले भी चिंताजनक हैं। हर चार में से एक व्यक्ति इससे प्रभावित माना जाता है। शोध में 10 साल के आंकड़ों पर नजर डाली गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह अब तक का सबसे बड़ा शोध है जिसमें तनाव और मौत के संबंध को दिखाया गया हो। इसके मुख्य लेखक डॉक्टर टॉम रस्स कहते हैं, यह तथ्य कि कम तनाव में भी मृत्यु दर बढ़ रही है इसके आधार पर यह जानने के लिए भी शोध होना चाहिए कि क्या इन मामूली बीमारियों के इलाज से मौत का खतरा कम हो सकता है। दुख की बात ये है कि यह निष्कर्ष ज्यादा हैरान नहीं करते। उन्होंने कहा, स्वास्थ्य के व्यवसाय से जुड़े लोगों में इस तरह की बीमारियों के बारे में जानकारी का अभाव है जिसका मतलब यह है कि लोग हर रोज बेवजह ही मर रहे हैं। 
 

परिजनों को ध्यान देने की जरूरत

गंभीर डिप्रेशन के मरीज अपनी बीमारी के चरम अवस्था में आत्महत्या जैसा कदम कम उठाते हैं लेकिन जब बीमारी कम हो रही होती है तब उनके आत्महत्या करने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में परिवार की भूमिका ज्यादा हो जाती है। इसका कारण यह है कि डिप्रेशन की चरम अवस्था में मरीज का मानसिक बल इतना अधिक नहीं होता कि वह जो सोचता है उसे पूरा कर ले लेकिन जब उसकी बीमारी कम होती है तब उसके अंदर यह मानसिक बल आ जाता है कि जो वह सोचता है उसे क्रियान्वित कर लेता है इसलिये इलाज पूरा होने तक मरीज की निगरानी बहुत आवश्यक है। मनोचिकित्सकों के अनुसार डिप्रेशन की समस्या इतनी आम है कि मनोविज्ञान में इसें कॉमन कोल्डॉफ साइकेट्री कहा जाता है। जिस तरह व्यक्ति को जुकाम हो जाता है, उसी तरह डिप्रेशन हो जाता है।


डिप्रेशन के लक्षण 
-- लगातार नींद न आने की शिकायत 
-- मन में निराशा लगना, उत्साह की कमी 
-- किसी समारोह या अन्य कार्यक्रम में न जाने की इच्छा
-- जरा-सी बात पर गुस्सा आ जाना 

सिजोफ्रेनिया के लक्षण 
पीड़ित दूसरों पर शक करने लगता है 
मारपीट करना, बेहद गुस्सा आना 
कोई बात करे, तो हमेशा लगना मेरी ही बुराई कर रहा है। 
खुद के कान में अजीब सी आवाजें महसूस होना

Tuesday, September 1, 2015

आरक्षण के खिलाफ एक नई बयार

... तो क्या महज 22 साल का हार्दिक पटेल इतना ताकतवर हो गया कि एक राज्य की कानून व्यवस्था को ध्वस्त कर दे, आरक्षण की बरसोंपुरानी उस फाइल को उलट-पुलट कर दे, वोट बैंक खिसक जाने के डर से कोई सियासी दल जिसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब यह पता चलता है कि यह लड़का उस बिरादरी का है, जिसमें ज्यादातर बच्चे मां के पेट में आते ही लखपति और करोड़पति बन जाया करते हैं। लाख टके का सवाल यह है कि हवा के खिलाफ दमदारी से खड़े इस युवक के पीछे कोई संगठित ताकत तो नहीं, कहीं किसी स्थापित परंपरा को ढेर करने की कोशिशें तो नहीं चल रहीं या फिर, आरक्षण के विरुद्ध बड़े आंदोलन की नींव तो नहीं पड़ रही? 
हार्दिक वाकई जिस भी मकसद से मैदान में है, कुछ प्रतिशत कामयाब-सा प्रतीत होता है। इस युवक के पीछे लाखों की भीड़ होने के निहितार्थ क्या हैं। राजनीति घुमावदार है, यह वो दरिया है जिसकी सतह पर जब शांति लगती है तभी भीतर कोई धारा अंगड़ाई ले रही होती है। यह हार्दिक पटेल के एपीसोड से सिद्ध हो रहा है। हार्दिक कहते हैं कि पटेलों को आरक्षण दीजिए, और अगर ये संभव नहीं तो आरक्षण व्यवस्था ही समाप्त करिए। मांग की बात न करते हुए यदि नियमों पर जाएं तो पटेल आरक्षण की मांग पहली कसौटी पर ढेर होती नजर आती है। सामाजिक स्थिति का आकलन किए जाते वक्त पटेलों को आर्थिक आधार पर पिछड़ा सिद्ध कर पाना मुश्किल होगा, यह बात हार्दिक भी जानते हैं और उनके पीछे खड़े तमाम लोग भी। हालांकि हार्दिक तर्क रखते हैं कि पटेलों की तस्वीर उतनी अच्छी नहीं जितनी नजर आती है। बकौल पटेल, ख़ुशहाल समझा जाने वाला पटेल समुदाय इन दिनों कई तरह की आर्थिक कठिनाइयों का शिकार है। पटेल समुदाय में किसान हैं, हीरे के व्यापारी हैं और उद्योग से जुड़े लोग हैं। हीरों के व्यापार में मंदी है। किसान मुश्किल में हैं। आत्महत्या के दर्जनों मामले सामने आए हैं और राज्य सरकार पर इल्ज़ाम है कि वो केवल बड़े उद्योगपतियों की मदद करती है। इसके अलावा पटेल समुदाय की युवा पीढ़ी में बेरोज़गारी बढ़ी है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सामने जाते ही यह मांग फुस्स हुई तो हार्दिक का दूसरा कार्ड सामने आ जाएगा जिसमें वह आरक्षण खत्म करने की मांग करते नजर आते हैं। यह स्थितियां देश की राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों पर जबर्दस्त प्रहार करेंगी, यह तय है। लेकिन जैसे ही आरक्षण समाप्ति की मांग करती भीड़ सामने आएगी स्थितियां काबू से बाहर हो जाएंगी। आंदोलन के मास्टरमाइंड जानते हैं कि जब तक आरक्षण के मुद्दे की संवेदनशीलता को खत्म नहीं किया गया, इसकी समाप्ति की मांग का समर्थन कर पाना तक राजनीतिक और सामाजिक समूहों के लिए संभव नहीं हो सकता। हार्दिक जाट और गुर्जर जैसे अन्य समूहों से भी मिले हैं जो आरक्षण के लिए आसमान सिर पर उठाए हुए हैं, इसका सीधा-सा मतलब यह है कि वह अपने आंदोलन का आधार बढ़ाने के लिए जुगत भिड़ा रहे हैं। अगर मान भी लिया जाए कि यह दोनों बिरादरियां आरक्षण की मांग पर टस से मस नहीं होतीं तो भी यह तब तक भीड़ बढ़ाती रहेंगी जब तक कि पिछड़ा वर्ग आयोग या किसी और संवैधानिक या न्यायिक मंच पर पटेल आरक्षण की मांग नकार न दी जाए। देश का ढीला-ढाला तंत्र इस मांग पर फैसला करने में ही कई साल बिता देगा। यह अवधि आरक्षण के विरुद्ध अन्य जातियों और समूहों को लामबंद करने में उपयोगी साबित हो जाएगी। हार्दिक हों या गैर आरक्षित जाति का कोई और नेता, सब जानते हैं कि युवाओं में आरक्षण से बड़ा कोई दूसरा मुद्दा नहीं। सवर्ण जातियों का हर युवा सरकारी नौकरी चाहता है और आरक्षण उसका यह सपना पूरा नहीं होने देता। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पीएम कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध आंदोलन को याद कीजिए, तब तमाम शिक्षा परिसर जल उठे थे। युवाओं ने आत्मदाह तक किया था, राष्ट्रीय सम्पत्ति तहस-नहस कर दी गई थी। हालांकि वह आंदोलन किसी राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में पैदा और विस्तारित हुआ था। सीधा-सा फलसफा है, हार्दिक या कोई अन्य नेतृत्व तैयार होता है तो भावी आंदोलन (जैसा कि मास्टरमाइंस सोच रहे हैं) ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है।
प्रश्न उठता है कि हार्दिक पटेल के पीछे है कौन। जब वह छह लाख की भीड़ के साथ सामने आए तो इस सवाल का जवाब ढूंढने में लोगों ने हर संभावना तलाश डाली। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी फोटो सामने आई, फिर शिवसेना के साथ रिश्तों की चर्चाएं शुरू हुईं। केजरीवाल के पीछे होने की बात तो आसानी से किसी के गले नहीं उतरी क्योंकि वह तो अपने सर्वाधिक प्रभाव के राज्य दिल्ली में ही खुद को सफल सिद्ध नहीं कर पा रहे और शिवसेना का गुजरात में इतना प्रभाव है नहीं। कांग्रेस जिस तरह से टुकड़ों में बंटी है, तो यह भी नहीं माना जा सकता था कि वह हार्दिक की रीढ़ हो सकती है। गुजरात में भाजपा के एकछत्र राज्य में यह भी संभव नहीं था कि यह सभी दल मिलकर इतनी भीड़ का एक नेतृत्वकर्ता पैदा कर लें। तो फिर... राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या खुद भाजपा? भाजपा का पटेलों में खासा जनाधार है। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल जैसे उसके पास खासे रसूखदार पटेल नेता हैं तो फिर क्यों अपने वोट बैंक को छेड़ने लगी? हार्दिक पटेल का ये तर्क कि पटेलों को आरक्षण दो या अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण वापस लो. उनकी यह मांग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आरक्षण से संबंधित विचारों से मेल खाती है।
मोदी और संघ परिवार जाति के बजाय आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का मानदंड बनाने के पक्षधर हैं। आम धारणा ये भी है कि राज्य सरकार ने 25 अगस्त की रैली का पर्दे के पीछे से पूरा साथ दिया। इसकी इजाज़त दी गई जबकि ये ज़ाहिर हो गया था कि हिंसा भड़क सकती है। रैली के लिए सरकारी मैदान का किराया नहीं लिया गया। इसमें अहमदाबाद के बाहर से आने वाले लोगों को नहीं रोका गया बल्कि संकेत ये मिले कि राज्य सरकार रैली को रोकने की बजाय रैली कराने में मदद कर रही है। लेकिन फिर अचानक शाम आठ बजे हिंसा उस समय भड़क उठी जब पुलिस ने हार्दिक पटेल को हिरासत में ले लिया। हिंसा शुरू होने के एक घंटे बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बाद वह इधर-उधर मनमाफिक घूमने लगे, यहां तक कि योजनाबद्ध तरीके से दिल्ली भी पहुंच गए। सवाल यह भी है कि बिना किसी संगठन के इतनी बड़ी रैली का आयोजन कैसे कर लिया गया। इसी बिंदु पर आंदोलन को संघ की शह सामने आती है। बहरहाल, आंदोलन ने जैसे संकेत दिए हैं तो आरक्षण व्यवस्था के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। यह भी तय मानिए कि यह आंदोलन आने वाले समय में तमाम मोड़ लेगा, और कामयाब हुआ तो जाति आधारित राजनीति करने वाले तमाम दलों के लिए मुश्किल हो सकती है।