यह जोखिम ले रहा हूं मैं। न्यायपालिका के किसी फैसले पर टिप्पणी करना जोखिम से कम नहीं। बेशक, न्यायमूर्ति न्याय के देवता हैं, योग्यता में हम-आप से कई गुना श्रेष्ठ लेकिन गलती अगर हो गई हो तो? गलती इंसान से ही तो होती है। फिर भी, आलोचना यदि सुप्रीम कोर्ट का एक पूर्व जज करे तो मामला गंभीर ही नहीं, बल्कि गंभीरतम है। एक हत्याकांड में अपने ब्लॉग पर टिप्पणी के बाद पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू को सुप्रीम कोर्ट ने पेश होकर बहस करने के लिए कहा है।
यह विरलतम है, पहला मामला है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को फैसलों की आलोचना करने के लिए तलब किया है। पहले जानते हैं कि यह मामला है क्या और विवाद का विषय क्यों बना? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने केरल के चर्चित सौम्या रेप एवं मर्डर केस में दोषी गोविन्दाचामी की फांसी की सजा रद्द कर दी थी। उसे सिर्फ रेप का दोषी माना और उम्र कैद की सजा सुनाई थी। सबूतों के अभाव में गोविन्दचामी को हत्या का दोषी नहीं माना गया था। मंजक्कड़ की रहने वाली 23 साल की सौम्या एक फरवरी 2011 को एर्णाकुलम से शोरनूर जा रही थी। दोषी गोविंदाचामी सौम्या को लेडीज कंपार्टमेंट में ले गया और वहां उसका सिर ट्रेन की दीवार में मारकर घायल कर दिया और उसे ट्रेन से बाहर धकेल दिया। बाद में उसने खून से लथपथ सौम्या के साथ बुरी तरह रेप किया था। इसी दौरान उसकी मृत्यु हो गई। काटजू ने कहा था कि मैंने पूरा जजमेंट पड़ा है। जजमेंट में एक गंभीर खामी है। काटजू ने कहा कि सबूतों के आधार पर देखा जाए तो सौम्या के शरीर में दो तरह की चोटें थीं। एक जो ट्रेन के अंदर उसे चोटिल किया गया और दूसरी चोट जो उसे ट्रेन से बाहर फेंकने पर लगी थी। काटजू ने कहा कि सिर्फ पहले सबूत के आधार पर ही आरोपी हत्या का दोषी है। उन्होंने कहा कि मानव शरीर में सिर सबसे महत्वपूर्ण और नाजुक अंग होता है। किसी के सिर में मारने से ही उसकी मौत हो सकती है। काटजू ने अपने ब्लॉग में लिखा था कि सौम्या दुष्कर्म और हत्या मामले में कोर्ट का फैसला गंभीर गलती था। लंबे समय से क़ानूनी जगत में रह रहे न्यायाधीषों से ऐसे फैसले की उम्मीद नहीं थी। कोर्ट ने कहा कि जस्टिस काटजू व्यक्तिगत रूप से अदालत में आएं और बहस करें कि कानूनी तौर पर वह सही हैं या अदालत। अदालत ने कहा कि पूर्व न्यायाधीश काटजू के प्रति उनके दिल में बहुत सम्मान है और कोर्ट चाहता है कि वे कोर्ट में आएं और खुली अदालत में बहस करें। कोर्ट ने कहा कि वह केरल सरकार और सौम्या की मां की समीक्षा याचिकाओं पर फैसला जस्टिस काटजू से बहस करने के बाद ही करेगी।
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने एेसा कदम उठाया क्यों। एक वरिष्ठतम न्यायविद को एक मामले में महज इसलिये बहस के लिए बुलाना कि उन्होंने कोर्ट के आदेश की आलोचना की थी, न्याय और उसकी परंपराओं की कसौटी पर क्या खरा कदम है? सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका अपनी सीमाओं को लांघ रही है और आवश्यकता से अधिक सक्रिय है? क्या न्यायपालिका सक्रिय होने के लिए मजबूर है? पूरी पृष्ठभूमि को समझे बिना न्यायपालिका की आलोचना उचित नहीं है। हमारे लोकतंत्र में संविधान सर्वोपरि है और संविधान के मूल अधिकार अति महत्वपूर्ण हैं जिसमें अनुच्छेद-14 के अनुसार कोई भी ऐसी नीति या कानून जो मनमाना हो, जो भेदभावपूर्ण हों, वह असंवैधानिक है, अनुच्छेद-21 किसी व्यक्ति को उसके जीवन व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, अनुच्छेद-21 वाक् स्वतंत्रता व अभिव्यक्ति स्वतंत्रता, उपजीविका, व्यापार व कारोबार करने की स्वतंत्रता आदि प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त कोई भी कानून संविधान की मुख्य भावना के विरूद्ध नहीं जा सकता है। जब कभी न्यायपालिका के समक्ष शासन की नीतिगत निर्णय या संसद व विधान मण्डल द्वारा बनाये गये कानूनों की संवैधानिकता प्रश्न उठता है, तो न्यायपालिका उन्हें संविधान के विभिन्न प्राविधानों की कसौटी पर परखने के लिए बाध्य है और यदि न्यायपालिका उन्हें खरा नहीं पाती है तो उन्हें असंवैधानिक घोषित उसका दायित्व है। लेकिन काटजू के मामले में यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती। काटजू का लंबा अनुभव है, उन्होंने तमाम बड़े मामलों में निष्पक्षता से फैसले देकर न्याय तंत्र का इकबाल बुलंद किया है। हजारों-लाखों मामलों को नजदीक से देखकर निर्णय करने वाला न्यायविद गलत होगा, यह आसानी से नहीं कहा जा सकता। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति पीसी पंत और न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित भी वरिष्ठ जज हैं, उन्हें भी निस्संदेह लंबा अनुभव है। इसलिये इस फैसले का अच्छा नतीजा निकलेगा, एेसी पुख्ता संभावनाएं हैं। काटजू यदि पेश हुए तो न्याय पालिका के इतिहास में यह बहस कई दिशाएं देेने वाली सिद्ध होगी। विद्रोही स्वभाव के काटजू पेश होंगे, यह लगता तो है।
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