सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर अगली सुनवाई जनवरी, 2019 तक टाल दी है। उम्मीद जताई जा रही थी कि भारतीय राजनीति में चुनाव को नज़दीक आता देख इस मामले की सुनवाई आगे बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सुनवाई किस तारीख से शुरू होगी, इसका फ़ैसला भी जनवरी में ही होगा और यह भी तभी तय होगा कि सुनवाई रोजाना होगी या नहीं? बहरहाल, असंख्य रामभक्तों की तरह भाजपा की भी नजरें शीर्ष कोर्ट पर थीं। प्रश्न यह उठा है कि राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा के लिए हालात कैसे हैं? वह लाभ में है या नुकसान में, या फिर यह मुद्दा उतना बड़ा नहीं रहा जितना सियासी दल मानते और कहकर भाजपा को घेरते हैं? कौतूहल इस बात पर है कि अब भाजपा क्या कर सकती है या करेगी।
ये मामला करीब करीब आठ साल से सुप्रीम कोर्ट में है। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितम्बर, 2010 को 2ः1 के बहुमत वाले फ़ैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ़ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। इस निर्णय को किसी भी पक्ष ने नहीं माना और उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगा दी थी।
शाश्वत सत्य है कि अयोध्या के इस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने भाजपा को बहुत-कुछ दिया है। कभी मात्र दो लोकसभा सदस्य वाली यह पार्टी आज केंद्र के साथ ही अधिकांश राज्यों में बहुमत की सरकार चला रही है। राम ने इतना दिया और भाजपा ने क्या किया, यह सवाल भाजपा को मुश्किल में डाल देता है। इस बात में कोई शक नहीं कि अयोध्या और भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक संबंध भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है। भाजपा ने जब भी संभव हुआ, इस जुड़ाव को जगजाहिर भी किया। याद कीजिए, जब सन 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी थी तो पूरा मंत्रिमंडल शपथ लेने के तत्काल बाद अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए आया था। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से पार्टी दूरी बनाने लगी। नरेंद्र मोदी पूरी दुनिया घूम आए, मस्जिद-मजारों में गए, पड़ोस में बनारस के सांसद हैं किंतु अयोध्या आने का उन्हें अभी तक वक्त नहीं मिला है। हालांकि अटकलें जोरों पर हैं कि सुप्रीम कोर्ट का मामला टालने के बाद नरेंद्र मोदी अयोध्या जाएंगे ताकि जनमत में संदेश जा सके कि भाजपा अब भी खासी गंभीर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सक्रियता भी गंभीरता दर्शाती है, उन्होंने पिछले वर्ष दीपावली पर अयोध्या में धूमधाम से आयोजन कराए और इस बार भी प्रस्तावित हैं।
आने वाले दिनों में संत समाज और विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर निर्माण पर समर्थन जुटाने के प्रयास तेज करने जा रहा है। चौदह जनवरी से इलाहाबाद कुंभ में धर्म संसद का आयोजन होगा जिसमें राम मंदिर भी मुद्दा होगा। यह सभी बातें बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाली होंगी। लेकिन भाजपा के लिए कोई भी निर्णया इतना आसान नहीं है। एससी एसटी एक्ट में संशोधन की तर्ज पर अयोध्या के लिए अध्यादेश लाने की मांग की जा रही हैस लेकिन यह सुलभ मार्ग नहीं। राज्यसभा में बीजेपी को बहुमत नहीं है और लोकसभा में अध्यादेश पारित होने के बाद भी राज्यसभा में मामला अटक सकता है। ठीक उसी तरह से, जैसे एक बार में तीन तलाक़ वाला मुद्दा अब तक क़ानून नहीं बन पाया है। बीजेपी अगर अध्यादेश लाती भी है तो भी उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। चुनौती का समय होगा ठीक चुनाव और यह उसके लिए नकारात्मक सिद्ध हो सकता है। अध्यादेश लाने की स्थिति में विपक्षी दलों को छोड़िए, सहयोगी दलों का भी साथ बीजेपी को मिल पाएगा, ये बात दावे से नहीं कही जा सकती क्योंकि जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर की बात कही थी तब सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के मुखिया नीतीश कुमार ने विरोध किया था। इसलिये बेवजह के बवाल से बचते हुए भाजपा यह प्रचार करना पसंद करेगी कि दूसरे पक्ष की धार्मिक और सियासी एकजुटता उसे मंदिर नहीं बनाने दे रही जिससे पार्टी अपने हिंदुत्ववादी राजनीति के कार्ड को जिंदा रख पाएगी।
फिलवक्त, यह सवाल सबसे मौजू है कि सुनवाई टालने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का क्या असर होगा। भाजपा के लिए यह स्थिति भी सुखद ही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा हालात उसे अपने अनुकूल नहीं दिखाई दे रहे। ऐसे में नियमित सुनवाई शुरू होने पर निर्णय उसका मजा किरकिरा कर सकता है। चुनाव में संभव होता कि मुद्दा उसके न उगलते बने, न निगलते। और अगर, जनवरी में कोर्ट नियमित सुनवाई तय भी करता है तो यह संभवतया फरवरी तक शुरू होगी, और निर्णय आते-आते चुनाव की बेला आ जाएगी। तब अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों ही फैसलों के भाजपा के लिए लाभदायक सिद्ध होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। भाजपा गम मनाने के बजाए यदि सूकून में दिखती है तो उसकी यही वजह है। और इसीलिये, उसने और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मंदिर मुद्दे को तूल देने की रणनीति बनाई है।
ये मामला करीब करीब आठ साल से सुप्रीम कोर्ट में है। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितम्बर, 2010 को 2ः1 के बहुमत वाले फ़ैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ़ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। इस निर्णय को किसी भी पक्ष ने नहीं माना और उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगा दी थी।
शाश्वत सत्य है कि अयोध्या के इस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने भाजपा को बहुत-कुछ दिया है। कभी मात्र दो लोकसभा सदस्य वाली यह पार्टी आज केंद्र के साथ ही अधिकांश राज्यों में बहुमत की सरकार चला रही है। राम ने इतना दिया और भाजपा ने क्या किया, यह सवाल भाजपा को मुश्किल में डाल देता है। इस बात में कोई शक नहीं कि अयोध्या और भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक संबंध भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है। भाजपा ने जब भी संभव हुआ, इस जुड़ाव को जगजाहिर भी किया। याद कीजिए, जब सन 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी थी तो पूरा मंत्रिमंडल शपथ लेने के तत्काल बाद अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए आया था। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से पार्टी दूरी बनाने लगी। नरेंद्र मोदी पूरी दुनिया घूम आए, मस्जिद-मजारों में गए, पड़ोस में बनारस के सांसद हैं किंतु अयोध्या आने का उन्हें अभी तक वक्त नहीं मिला है। हालांकि अटकलें जोरों पर हैं कि सुप्रीम कोर्ट का मामला टालने के बाद नरेंद्र मोदी अयोध्या जाएंगे ताकि जनमत में संदेश जा सके कि भाजपा अब भी खासी गंभीर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सक्रियता भी गंभीरता दर्शाती है, उन्होंने पिछले वर्ष दीपावली पर अयोध्या में धूमधाम से आयोजन कराए और इस बार भी प्रस्तावित हैं।
आने वाले दिनों में संत समाज और विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर निर्माण पर समर्थन जुटाने के प्रयास तेज करने जा रहा है। चौदह जनवरी से इलाहाबाद कुंभ में धर्म संसद का आयोजन होगा जिसमें राम मंदिर भी मुद्दा होगा। यह सभी बातें बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाली होंगी। लेकिन भाजपा के लिए कोई भी निर्णया इतना आसान नहीं है। एससी एसटी एक्ट में संशोधन की तर्ज पर अयोध्या के लिए अध्यादेश लाने की मांग की जा रही हैस लेकिन यह सुलभ मार्ग नहीं। राज्यसभा में बीजेपी को बहुमत नहीं है और लोकसभा में अध्यादेश पारित होने के बाद भी राज्यसभा में मामला अटक सकता है। ठीक उसी तरह से, जैसे एक बार में तीन तलाक़ वाला मुद्दा अब तक क़ानून नहीं बन पाया है। बीजेपी अगर अध्यादेश लाती भी है तो भी उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। चुनौती का समय होगा ठीक चुनाव और यह उसके लिए नकारात्मक सिद्ध हो सकता है। अध्यादेश लाने की स्थिति में विपक्षी दलों को छोड़िए, सहयोगी दलों का भी साथ बीजेपी को मिल पाएगा, ये बात दावे से नहीं कही जा सकती क्योंकि जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर की बात कही थी तब सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के मुखिया नीतीश कुमार ने विरोध किया था। इसलिये बेवजह के बवाल से बचते हुए भाजपा यह प्रचार करना पसंद करेगी कि दूसरे पक्ष की धार्मिक और सियासी एकजुटता उसे मंदिर नहीं बनाने दे रही जिससे पार्टी अपने हिंदुत्ववादी राजनीति के कार्ड को जिंदा रख पाएगी।
फिलवक्त, यह सवाल सबसे मौजू है कि सुनवाई टालने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का क्या असर होगा। भाजपा के लिए यह स्थिति भी सुखद ही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा हालात उसे अपने अनुकूल नहीं दिखाई दे रहे। ऐसे में नियमित सुनवाई शुरू होने पर निर्णय उसका मजा किरकिरा कर सकता है। चुनाव में संभव होता कि मुद्दा उसके न उगलते बने, न निगलते। और अगर, जनवरी में कोर्ट नियमित सुनवाई तय भी करता है तो यह संभवतया फरवरी तक शुरू होगी, और निर्णय आते-आते चुनाव की बेला आ जाएगी। तब अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों ही फैसलों के भाजपा के लिए लाभदायक सिद्ध होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। भाजपा गम मनाने के बजाए यदि सूकून में दिखती है तो उसकी यही वजह है। और इसीलिये, उसने और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मंदिर मुद्दे को तूल देने की रणनीति बनाई है।
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