अमेरिका-उत्तर कोरिया के बीच बहुप्रतीक्षित मुलाकात उम्मीद से ज्यादा कामयाब रही और उसके नतीजे अब सामने आने लगे हैं। कोरियाई नेता ने गुस्सा छोड़कर परमाणु ठिकाने खत्म करने की पहल कर दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और कोरियाई नेता किम जोंग की नई पनपी दोस्ती से समूची दुनिया ने राहत की सांस ली है। जिन उम्मीदों पर दुनिया शांति का रास्ता तय करने की अनुमान लगा रही है, वो सुखदेय है। नतीजे आने हैं अभी। हालांकि यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि धुंध छंटी है। अंतर्राष्ट्रीय जगत में चीन का दबदबा बढ़ा है।
असल में, दोनों पक्षों के लिए यह सब इतना आसान नहीं था। चीन ने दखल दिया तो मार्ग खुलने लगे। अमेरिका भी चाहता था क्योंकि उसकी अपनी मुश्किलें हैं जिनके चलते हठी तेवरों के राष्ट्रपति ट्रम्प को बातचीत के लिए आगे बढ़ना पड़ा। अमेरिका ने तमाम धमकियां दी थीं। कहा था कि उत्तर कोरिया नहीं माना तो उसे तहस-नहस कर दिया जाएगा। पर सुपर पावर भी घुटने पर यूं नहीं आ गई। अमेरिका ने सीरिया पर बमबारी करके अपनी ताकत दिखाई है। अमेरिका समर्थक कहने लगे थे कि ट्रम्प कोरिया का हश्र भी सीरिया जैसा कर सकते हैं। लेकिन उत्तर कोरिया सीरिया जैसा कमजोर नहीं। दक्षिण कोरियाई खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट पर नजर डालें जिनमें कहा गया था कि 1967 की तुलना में उत्तर कोरिया की ‘कोरियन पीपुल्स आर्मी’ ने तेज प्रगति की। तब की करीब साढ़े तीन लाख संख्या बढ़कर 12 लाख जवानों तक पहुंच चुकी है। यह दुनिया की तीसरी बड़ी सेना है। उत्तर कोरिया में नागरिकों के लिए वर्ष में न्यूनतम दो दफा सैन्य प्रशिक्षण भी अनिवार्य है। उन्हें यह बता दिया जाता है कि युद्ध की स्थिति में सीमा पर बुला जाना तय है। इसके साथ ही, हथियारों के मामले में उत्तर कोरिया पांच शक्तिशाली देशों में शुमार है। वह परमाणु ताकत भी सिद्ध कर चुका है। उत्तर कोरिया के पास अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) है जिसकी जद में खुद अमेरिका भी है। उत्तर कोरिया कह भी चुका है कि अगर उसे उकसाया गया तो वह अमेरिका पर बिना बताए परमाणु हमला करने से भी नहीं हिचकेगा।
पड़ोसी की ताकत से दक्षिण कोरिया और जापान की चिंता भी अमेरिका के हाथ बांध देती है। याद कीजिए जब अमेरिका ने कोरियाई प्रायद्वीप में विशाल युद्ध पोत कार्ल विंसन तैनात किया था तो दोनों देशों तुरंत सक्रिय होते हुए अमेरिका के पास पहुंच गए थे और किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई से बचने का आग्रह किया था। क्योंकि दोनों ही देश मानते हैं कि अमेरिका के स्तर से उत्तर कोरिया से किसी भी तरह की छेड़छाड़ सबसे पहले उनके लिए कहर बनकर बरपेगी। दक्षिण कोरिया और जापान, दोनों ये तो चाहते हैं कि अमेरिका उनके साथ खड़ा दिखाई दे लेकिन वे किसी भी कीमत पर उत्तर कोरिया पर हमला करना नहीं चाहते। ट्रम्प ने चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर कोरिया पर हमले का वादा किया था, इससे दोनों देश परेशान हुए। यही परेशानी थी कि जापानी पीएम शपथ के एक महीने पहले ही ट्रम्प से मिलने पहुंच गए थे। पूरी दुनिया में व्यापार के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण दक्षिण कोरियाई राजधानी सियोल उत्तर कोरिया की सीमा से सिर्फ 35 मील दूर है। किसी भी तरह के हमले की स्थिति में सियोल सबसे ज्यादा प्रभावित होगा, यह बिल्कुल तय ही था। दक्षिण कोरिया जानता है कि युद्ध की स्थिति में सियोल को बचा पाना अमेरिका के लिए भी असम्भव है। सनद रहे कि 1994 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उत्तर कोरिया के योंगबायोन रिएक्टर पर बमबारी की योजना बनाई थी लेकिन, रेडियोएक्टिव पदार्थ के लीक होने से पड़ोसी देशों को नुकसान था और उत्तर कोरिया की प्रतिक्रिया से सियोल के तबाह होने के डर ने उन्हें कदम बढ़ाने नहीं दिए। उत्तर कोरिया को चीन का संरक्षण है और उसकी मदद से ही ट्रम्प से बातचीत का दौर शुरू हुआ है। चीन भी नहीं चाहता कि युद्ध की कोई भी स्थिति सामने आए। वह जानता है कि युद्ध की स्थिति में उसे भी कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। सबसे बड़ी समस्या उत्तर कोरियाई शरणार्थी होंगे, जो युद्ध छिड़ने पर शत्रु देश जापान और दक्षिण कोरिया के बजाए चीन में शरण को प्राथमिकता देंगे। व्यापारिक तौर पर भी उसे खासी मुश्किलें सहनी होंगी और बड़े व्यापारी के तौर पर दुनियाभर में स्थापित हो चुका चीन से यह कतई नहीं चाहता था। बहरहाल, वार्ता के दौर ने उम्मीदें जगाई हैं। शांति ही समूची दुनिया के लिए अनिवार्य और आवश्यक है। भारत भी खुशियां मना सकता है क्योंकि व्यापारिक लाभ में उसके हाथ भी उपलब्धियां आने की संभावनाएं पैदा हुई हैं।
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