Saturday, June 21, 2014
कच्चे तेल के जाल से निकलें कैसे
इराक में भीषण गृहयुद्ध का दौर है, पूरी दुनिया भय के साए में है क्योंकि तेल बाजार उछाल लेने जा रहा है। खौफ यह है कि कच्चे तेल की कीमतें बढ़ेंगी तो तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी। अकेले भारत का तेल आयात बिल 20 हजार करोड़ रुपये बढ़ जाएगा। अब यह कहना कि भारत समेत समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था कच्चे तेल पर आधारित हो चुकी है, बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं होगा। मशीनीकरण के आधुनिक युग में लगभग सभी उत्पादन ऊर्जा आधारित है और अधिकतर देशों में ऊर्जा का स्रोत पेट्रोलियम पदार्थ ही हैं। सिगरेट लाइटर से सुपरसोनिक हवाई जहाज और अंतरिक्षयान तक, लगभग सभी उपकरणों में र्इंधन के रूप में पेट्रोलियम पदार्थ का ही उपयोग होता है। सवाल है कि निर्भरता बढ़ाने के बजाए विकल्प क्यों नहीं ढूंढ रहे। विकल्पों की महज औपचारिकता जो हम निभा रहे हैं, वो हमें एक बुरे दौर की तरफ तेजी से धकेल रही है।
अर्थशास्त्र का सिद्धांत है, मांग और आपूर्ति का समीकरण ही किसी भी वस्तु के मूल्य को प्रभावित करता है। दुनिया के लगभग सभी देश अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से रखने के लिए कच्चे तेल पर निर्भर हैं लेकिन इसकी मांग में लगातार जिस अनुपात में इजाफा हो रहा है, उस अनुपात में आपूर्ति में इजाफा न होना तेल-मूल्यों की लपटों को गगनचुम्बी बना रहा है। इराक में युद्ध के दौरान तेल की कीमतों के 120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचने की आशंकाएं गहरा रही हैं। 2008 के बाद के उस वक्त को छोड़ दें, जब अमेरिका जैसी अर्थव्यवस्थाएं मंदी की चपेट में थीं और तेल मूल्य गिरकर 30 डॉलर पहुंच रहे थे, तेल मूल्यों में हमेशा वृद्धि का ही क्रम चलता रहता है। तेल इतिहास कहता है कि इस आग पर दीर्घकाल के लिए निजात पाना संभव नहीं इसलिए तेल की मांग पर अंकुश लगाना ही होगा और इसके लिए वैकल्पिक उपायों पर ध्यान देना जरूरी होगा। तमाम उपाय हैं जिनमें प्राकृतिक गैस पेट्रोलियम का अच्छा विकल्प साबित हो सकती है लेकिन इनके भंडार भी 21वीं शताब्दी के अंत तक ही समाप्त हो जाएंगे। वर्तमान में पूरी दुनिया की एक-तिहाई बिजली का उत्पादन प्राकृतिक गैस से ही किया जाता है। प्राकृतिक गैस अधिकांशत: मीथेन है और सर्वाधिक साफ-सुथरा जीवाश्मीय र्इंधन है। यह कोयले की तुलना में मात्र 40 और पेट्रोलियम की तुलना में मात्र 25 फीसदी ग्रीनहाउस गैसों का ही उत्सर्जन करती है। पेट्रोल की तुलना में अधिक पर्यावरण हितैषी र्इंधन होने की वजह से इसका प्रयोग अधिक से अधिक आॅटोमोबाइल में कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस अथवा हाइड्रोजन फ्यूल सेलों को पावर करने के लिए किया जा रहा है। इसके साथ ही परमाणु ऊर्जा का लगातार प्रयोग बढ़ रहा है। 32 देशों के 440 रिएक्टर दुनिया की 16 फीसदी बिजली का उत्पादन कर रहे हैं। न्यूक्लियर कचरे का निस्तारण करना अपने-आप में एक बड़ी समस्या है, फिर भी भारत समेत कई देश सक्रियता से आगे बढ़े हैं। इसके बाद आता है अक्षय ऊर्जा का विकल्प। चीनियों और रोमनों ने लगभग 2000 वर्ष वाटरमिलों का प्रयोग किया था। पनबिजली इस समय पुनर्नवीकृत ऊर्जा का सबसे प्रचलित प्रकार है जिससे दुनिया की लगभग 20 फीसदी बिजली का उत्पादन किया जाता है। कम प्रदूषण पैदा करने वाले पुनर्नवीकृत ऊर्जा स्रोतों से दीर्घावधि में ऊर्जा की समस्या का व्यावहारिक हल खोजा जा सकता है।
सूर्य भी ऊर्जा का अक्षय स्रोत है, जिसे ठीक से प्रयोग करने की तकनीक विकसित हो जाए तो हमारी ऊर्जा समस्या का पुख्ता हल निकल सकता है। आज सौर ऊर्जा का प्रयोग कई तरीके से किया जा रहा है। ऊष्मीय सौर ऊर्जा में सूर्य की रोशनी से छतों पर लगे सौर पैनलों से घरेलू प्रयोग के लिए पानी को गर्म किया जाता है, जबकि सूर्य की रोशनी को फोटोवोल्टेइक सेलों के प्रयोग से बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है। इसमें सेमीकंडक्टरों का प्रयोग फोटानों को बिजली में परिवर्तित करने में किया जाता है। वृहद स्तर पर प्रयोग के लिए फोटोवोल्टेइक सेल काफी महंगे होते हैं, फिर भी दूरदराज के इलाकों में बिजली सप्लाई के लिए इनका प्रयोग किया जा रहा है। सोलर पैनलों का प्रयोग अब स्पेसक्राफ्ट, सोलर कारों और हवाई जहाजों में भी किया जाने लगा है। इस क्षेत्र में तकनीकी तरक्की हो जाए तो सस्ते फोटोवोल्टेइक सेल का उत्पादन संभव हो सकता है, जिससे 2020 तक न्यूक्लियर ऊर्जा से ज्यादा सौर ऊर्जा का उत्पादन संभव हो सकेगा।
यहां सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब तेल के कुएं सूख जाएंगे तो हमारे वाहन कैसे सड़कों पर दौड़ेंगे? आंतरिक दहन इंजन के आविष्कार के समय से ही जैव र्इंधन के बारे में दुनिया को जानकारी है। भारत समेत दुनियाभर में करोड़ों कारें इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल से चलती हैं। यूरोप में जैव र्इंधन का उत्पादन बेजीटेबल के प्रयोग से किया जाता है। सोया तेल का प्रयोग हवाई जहाजों को उड़ाने में किया जा सकता है। प्रयोग में आने वाली तकनीकी परेशानियों को दूर कर लिया जाए तो हाइड्रोजन फ्यूल सेलों में भविष्य की संभावनाएं निहित हैं। यह फ्यूल सेल एक प्रकार की बैटरी होते हैं जिन्हें लगातार रिफिल किया जा सकता है। इसमें हाइड्रोजन, आॅक्सीजन के साथ प्रतिक्रिया करके बिजली और जल का उत्पादन करते हैं। यह र्इंधन जलाने से कहीं ज्यादा पर्यावरण हितैषी तरीका है, क्योंकि इसमें ऊष्मा का क्षरण काफी कम होता है। लेकिन यह केवल कारों के लिए ही उपयोगी नहीं है बल्कि हाइड्रोजन का प्रयोग पावर स्टेशनों, इलेक्ट्रॉनिक और पोटेर्बुल गैजेट्स में भी किया जा सकता है। छोटे फ्यूल सेल एक दिन निश्चित रूप से बड़ी बैटरियों को बेकार कर देंगे। फ्यूल सेल प्राकृतिक गैस, मिथेनॉल और कोयले का भी प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन इनके साथ एक समस्या कार्बन-डाई-आॅक्साइड के उत्पादन की है। हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए जल को अपने अवयवों में तोड़ा जाता है, जिसके लिए बिजली का उपयोग किया जाता है। यह बिजली जीवाश्मीय र्इंधन से ही पैदा की जाती है। एक विकल्प ज्वारीय ऊर्जा का भी है जिसका सर्वाधिक उपयोग नॉर्वे कर रहा है। हम पवन ऊर्जा पर शोध के लिए बड़ी राशि खर्च कर रहे हैं। जरूरत विकल्प तलाशने का क्रम तेज करने की है, अन्यथा हम न केवल महंगाई के दौर से अक्सर गुजरते रहेंगे बल्कि प्रदूषण भी रुलाता रहेगा।
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