Saturday, October 12, 2013
कारगिल से केरन तक...
सन् 1999 में भारत को मजबूरीवश कारगिल का संग्राम लड़ना पड़ा था और अब, 2013 में लगभग उसी शैली में दो हफ्ते तक पाक सीमावर्ती क्षेत्र केरन में हमारी सेना आतंकियों से जूझती रही। लगभग तीन दर्जन से ज्यादा पाक आतंकी मौत के घाट उतारे गए। भारतीय सेना के बड़े आॅपरेशन में एके-47 और स्नाइपर राइफलों के अलावा अन्य घातक युद्ध हथियार, रेडियो सेट, गोला-बारूद, दवाइयां, खाद्य पदार्थ जैसी सामग्री बरामद हुई। कारगिल की तरह केरन में भी आतंकी लंबी लड़ाई के लिए आए थे। आश्चर्य की बात यह है कि कुशल और पेशेवर भारतीय सेना को एक बार फिर लोहे के चने चबाने पड़े। कारगिल जैसी ही गफलत की धुंध केरन में छाई रही और सेना को फिर अंधा युद्ध लड़ना पड़ा। सवाल यह है कि सेना की खुफिया यूनिट पहले की तरह समय से सटीक जानकारी क्यों नहीं जुटा सकी? कारगिल की तरह केरन में भी सैन्य कार्रवाई विलंब से क्यों शुरू हुई?
गनीमत यह है कि इस बार पाक आतंकी कारगिल की तरह बड़ी मुसीबत नहीं बन पाए। कारगिल युद्ध में हमें पांच सौ से ज्यादा सैनिकों का बलिदान देना पड़ा था। केरन क्षेत्र के गांव शाला भाटा में चले आॅपरेशन में हमारा एक भी सैनिक हताहत नहीं हुआ। बकौल सेनाध्यक्ष बिक्रम सिंह, पाकिस्तानी सेना ने कारगिल की तरह घुसपैठ कराई थी। घुसपैठिये कारगिल की तरह पहाड़ पर नहीं बल्कि नाले में छिपे बैठे थे। लश्कर-ए-तोइबा और हिजबुल मुजाहिदीन नामक खूंखार आतंकी संगठनों के यह लोग लगातार पाकिस्तानी सेना के संपर्क में थे। हालांकि भारत में पाक उच्चायुक्त सलमान बशीर ने घुसपैठियों को पाक समर्थन के आरोप को गलत करार दिया लेकिन भारतीय सेना ने इन आतंकियों के कब्जे से एक खत बरामद किया जिसमें साजिश की पूरी कहानी दर्ज थी। पाक घुसपैठियों के कई संदेश इंटरसेप्ट हुए जिनसे पता चला कि उन्हें रसद और हथियारों की सप्लाई निरंतर जारी थी। यह सब, तब हुआ जब सीमा के इस पार और उसपार एक बार फिर अमन की कलियां फूट रही थीं। अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाक समकक्ष नवाज शरीफ मिल रहे थे। भारत पाक को आतंक के खिलाफ नसीहतें और चेतावनियां दे रहा था। इधर, सीमा पर पाक सेना और बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई का नापाक गठजोड़ अपनी पुरानी कूटनीति लागू कर रहा था। हालात लगभग कारगिल के समय जैसे ही थे। तब भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ थे और वह तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से प्रेम की पींगें बढ़ा रहे थे। भावुक होकर वाजपेयी तब बस से लाहौर जा पहुंचे थे। उस समय के खलनायक पाक सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ बन गए। उन्होंने कारगिल की पहाड़ियों में जा छिपे आतंकियों को सेना का खुला समर्थन दे दिया और भारत के विरुद्ध बाकायदा युद्ध छेड़ दिया। बाद में आरोप यह भी लगा कि मुशर्रफ ने युद्ध के बाबत नवाज से सहमति भी नहीं ली थी। बताया तो यहां तक गया था कि मुशर्रफ साजिश में इस कदर लिप्त थे कि भारतीय सीमा में चहलकदमी करके मौके का जायजा लेकर लौट गए थे। इसके बाद उनके निर्देश पर युद्ध शुरू हो गया। दो दिन पहले ही पूर्व पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी का बयान आया है कि वह सेना और आईएसआई को सत्ता के काफी करीब खींचकर लाए थे। मतलब साफ है कि पाकिस्तान में हुक्मरान और सेना के बीच दूरियां बनी रहती हैं। वहां सेना ही निर्णायक भूमिका में रहती है। जब भी सत्ता से टकराव होता है तो जम्हूरियत को रद्दी की टोकरी में फेंककर सैन्य तानाशाह बागडोर अपने हाथ में ले लेते हैं। ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हैं।
पाकिस्तान में पिछले पांच साल तक पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की चुनी हुई सरकार चली । यह वहां की जम्हूरियत के लिए एक आश्चर्य से कम नहीं है। हालांकि इस बीच पाक सेना ने सीमा पर कई दर्जन बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया। कई बार खूंखार आतंकियों को रात के अंधेरे में हमारी सीमा में प्रवेश कराकर संगीन वारदातें करार्इं। एक बार तो आतंकी हमारे दो सैनिकों के सिर ही काटकर ले गए। इससे पूरे देश में उबाल आ गया। तब से लगातार अब तक पाक सेना हरकत-दर-हरकत करने पर उतारू है। भारत लगातार अमन का सपना पाले हुए है जो टूटता ही नहीं। मगर सवाल यह है कि कारगिल और केरन जैसी बड़ी वारदातों को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। आखिर पुराने शत्रु द्वारा लगातार पैदा की जा रही गफलत की धुंध के बीच कब तक हम अंधा युद्ध करते रहेंगे। सारी दुनिया को पता है कि गुलाम कश्मीर के कई क्षेत्रों में लश्कर-ए-तोइबा और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठन प्रशिक्षण शिविर चलाते हैं। पाक सेना और वहां की सरकार उन्हें खुला समर्थन देती है। यही खूंखार तत्व जब तब भारत की सीमा में घुसकर खून खराबा करते हैं। देश में कई तरह से यह आवाज उठी है कि भारत आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को स्वयं समाप्त करे तभी सीमा पर शांति स्थापित हो सकती है। कैसा विद्रूप है कि मुंबई हमले का मास्टरमाइंड और जमात-उल-दावा नामक धार्मिक संगठन के मुखिया हाफिज सईद को पाक का सरकारी संरक्षण प्राप्त है और वह खुलेआम सार्वजनिक मंचों से भारत को युद्ध के लिए ललकारता है। सईद स्वयं आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलवाता है तथा सिरफिरे युवकों को गुमराज करके भारत पर हमले कराता है। दरअसल, यह एक छद्म युद्ध है जो पाकिस्तान की सेना ने 1972 में हुए शिमला समझौते के बाद से छेड़ रखा है। पाकिस्तान के राजनीतिक चेहरे दुनिया के सामने चाहे जो कहें मगर वे करते वही हैं, जो वहां की सेना चाहती है। पाक सेना ने आईएसआई की मदद से बांग्लादेश बनने के बाद रंजिशवश कई कूटनीतियां बना रखी हैं जिसे भारत को समझना होगा। याद कीजिए तब जुल्फिकार अली भुट्टो गुलाम कश्मीर में तकरीरें किया करते थे कि पाक भारत से एक हजार साल तक लड़ता रहेगा। उनकी कूटनीति का परिणाम आज भी आतंकी हमलों के रूप में भारत भोग रहा है। 1972 से अब तक के आतंकी हमलों से भारत को सबक सीखना चाहिए। पाक द्वारा लगभग 40 साल पहले छेडेÞ गए छद्म युद्ध के खिलाफ भारत को वास्तविक युद्ध लड़ना ही पडेÞगा अन्यथा कारगिल और केरन जैसी मानसिक त्रासदियां देश को झेलनी ही पडेÞंगी।
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