Monday, October 21, 2013

मंगलम का अमंगल

कोयला घोटाले की तपिश इस बार उद्योग जगत तक पहुंची है और चपेट में आए हैं 40 अरब डॉलर से ज्यादा की परिसंपत्तियों वाले औद्योगिक घराने के सर्वेसर्वा कुमारमंगलम बिड़ला। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने न केवल बिड़ला समूह की कंपनी हिंडाल्को के दफ्तरों पर छापे मारे हैं बल्कि कुमारमंगलम के विरुद्ध भी प्राथमिकी दर्ज कर ली है। सरकार भी सकते में है क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से उसका ‘तोता’ कहे जाने वाली जांच एजेंसी ने एक बड़े उद्यमी पर निशाना साधा और चुनावी बेला में उसके समक्ष बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी। बात इतनी होती तो भी खैर थी, उद्योग जगत ने जिस तरह के तेवर दिखाए हैं, उससे देश में निवेश का माहौल प्रभावित होने का खतरा पैदा हुआ है। सरकार खुद सफाई की मुद्रा में है। कुमारमंगलम निश्चिंत हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है इसलिए वह एफआईआर से परेशान नहीं हैं लेकिन इससे सीबीआई को लेकर बहस का नया दौर चलने की संभावनाएं बनी हैं। पूरे मसले में सीबीआई सामने आकर बोलने से बच रही है तो शक है कि कहीं वह अंधेरे में तीर तो नहीं चला रही। मोइली की बात कहीं सही तो नहीं, जिसमें उन्होंने कहा था कि सीबीआई ने जो किया, यदि वह सबूतों पर आधारित है तो उस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो हमें सावधान रहना चाहिए। कोयला घोटाला वैसे ही सरकार के गले में फंसा हुआ है, प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह तक कठघरे में हैं। हिंडाल्को पर छापेमारी चर्चा का उतना विषय नहीं थी कि तभी सीबीआई ने कुमारमंगलम पर वार कर दिया। उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज होते ही तूफान आ गया। अंदरखाने की सरगर्मियां तब सतह पर आर्इं जब केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने कड़े तेवर दिखाए। वह खुलकर बोले, कानून को अपना काम करने देना चाहिए लेकिन यह भी ख्याल रखने की जरूरत है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार या कोई भी एजेंसी कानून से बड़ी नहीं है। भारत कतई रूस की तरह काम नहीं कर सकता, जहां सभी अरबपतियों को जेल के भीतर डाल दिया जाता है। यहां औरंगजेब का शासन नहीं है, कानून का राज चलता है। इससे पहले वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा हमलावर थे। उन्होंने इसे देश में निवेश का माहौल खराब करने वाला कदम बताया था। उद्योग जगत की ओर से मोर्चा संभाला भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने। उसने कहा कि साख बनाने में वर्षों लग जाते हैं और बिगड़ने में जरा भी वक्त नहीं लगता इसलिए ऐसी कार्रवाई से पहले सावधानी बरतने की जरूरत है। बहरहाल, सरकार की चिंताओं की वजह है। कई राज्यों में विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं और अगले साल आम चुनाव प्रस्तावित हैं। चुनावी वक्त में राजनीतिक दलों और उद्योग जगत की दोस्ती चर्चाओं में रहा करती है। इसके अतिरिक्त एक बड़े उद्योगपति के फंसने से सरकार पर आरोपों का नया दौर शुरू हो सकता है। और तो और... उद्योग जगत यदि खुद को मुश्किल में महसूस करेगा तो निवेश का माहौल प्रभावित तो होगा ही। केंद्र की यूपीए सरकार से वैसे भी उद्यमियों की नाराजगी ही रही है। यूपीए-2 के पहले आम बजट में जिस तरह से उद्योग जगत से विमुख रहने की अप्रत्यक्ष नीति शुरू की गई थी, वह वित्तीय वर्ष 2013-14 के बजट तक अनवरत चली। देश की अर्थव्यवस्था का यह अहम घटक कर रियायतों के लिए तरसता रहा। तटस्थ बजट की शैली पर चलते हुए सरकार ने न तो अपने आम मतदाता का ही भला किया, ना ही उद्योगों का। आक्रोश की स्थिति भांपने के लिए रतन टाटा का वह भाषण याद कीजिए, जिसमें उन्होंने यूपीए के बजाए नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था। वह यह कहने से भी नहीं हिचके कि नेतृत्व की कमी की वजह से देश में आर्थिक संकट है। सरकार निजी क्षेत्र में चंद प्रभावशालियों के निहित स्वार्थों के प्रभाव के आगे झुकी है और नीतियां बदली गई हैं, लटकाई गई हैं और उनके साथ छेड़छाड़ हुई है। जिस तरह से कुछ नीतियां अगर तैयार की गर्इं तो उन्हें उसी रूप में क्रियान्वित किया जाना चाहिये था, इससे उद्योग जगत प्रगति की राह पर बढ़ता और देश का भला होता। आर्थिक मोर्चे पर भी सरकार असफल सिद्ध हुई है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही महंगाई चरम सीमा तक बढ़ी और रुपया ऐतिहासिक अवमूल्यन का शिकार हुआ। घरेलू उद्योगों की ओर से मांग की गई थी कि बाजार का रुख आयात मूल्य में इजाफा कर आयातित वस्तुओं के देसी विकल्पों की तरफ मोड़ा जाना चाहिये। एक मांग विदेशी वस्तुओं के आयात पर विशेष अधिभार लगाने की भी थी। अधिभार लगाते वक्त कीमत कम करने वाले रक्षात्मक उपाय किए जाने की वकालत हुई थी। सरकार को डर था कि इस अधिभार से उस पर संरक्षणवादी नीतियों के पोषण का आरोप लग सकता है किंतु उद्योग जगत ने सुझाव दिया कि यह कुछ अवधि के लिए हो और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होते ही इसे हटा लिया जाए। इस अवधि में उद्योग जगत भी अपना भला करने में सक्षम हो जाएगा। अधिभार को विश्व व्यापार संगठन में अधिसूचित किया जाए ताकि व्यापार साझेदारों में भारत को लेकर भरोसे की कमी न हो। इस बीच सभी क्षेत्रों पर समान रूप से लागू होने वाले अधिभार से आम और खास का फर्क नहीं रह जाएगा और इससे गड़बड़ी की आशंकाएं कम होंगी अन्यथा स्थिति 1991 से पहले जैसी हो सकती है। लेकिन सरकार चेती नहीं। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति पर भी उद्योग जगत ने बार-बार असहमति जताई। उद्योग जगत रिजर्व बैंक से दरों में कटौती की उम्मीद कर रहा था ताकि उपभोक्ताओं के लिए आवास और वाहन ऋण थोड़े सस्ते हो जाते और बाजार में रौनक लौटती। निराशा के भंवर में डुलाती रही सरकार से कुमारमंगलम के विरुद्ध एफआईआर ने नाराजगी और बढ़ाई है। सरकार को तत्परता से कदम उठाना होगा, यह चाहे सीबीआई पर सबूत सार्वजनिक करने का दबाव बनाने की प्रक्रिया ही क्यों न हो। साथ ही यह ध्यान भी रखना होगा कि आम जनता में यह संकेत न जाए कि वह दबाव में झुक गई।

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