Friday, May 4, 2012

अखिलेश का सवर्ण कार्ड, बसपा औंधे मुंह

प्रदेश की सियासत में पहली बार किसी सरकार ने बड़ा फैसला इतनी जल्दी ले लिया। अखिलेश यादव सरकार ने कैबिनेट बाई सर्कुलेशन के जरिए प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त करने का निर्णय पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी को मात देने की कोशिश है। यह लगभग तय है कि आने वाले दिनों में अनुसूचित जाति के दम पर सत्ता शीर्ष पर पहुंचती रही बसपा इस वार का काट ढूंढने में जुटी रहेगी। खुद को सवर्ण हितैषी बताने की भी उसकी हिम्मत नहीं रहेगी। मायावती सरकार ने वर्ष 2007 में सत्ता संभालने के बाद प्रोन्नति में आरक्षण प्रारंभ किया था। निर्णय का लाभ 1995 की पूर्व तिथि से दिया गया, तय है कि फैसला राजनीतिक था और इसका लाभ हजारों दलित अधिकारियों और कर्मचारियों को प्राप्त हुआ। यही वर्ग मायावती का मूल वोट बैंक है। तब से यह सब निर्बाध गति से चल रहा था कि इसी बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। सपा ने अपनी सरकार बनते ही उच्चतम न्यायालय में हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध अपील वापस ली। कुछ दिन पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने उच्च पदों पर प्रोन्नति के मामले में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण का लाभ प्रदान करने की पहल को असंवैधानिक करार देते हुए प्रदेश सरकार के निर्णय को रद्द कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह निर्णय बिना पर्याप्त आंकड़े के किया गया है। सरकार जाति के आधार पर कर्मचारियों को प्रोन्नति देने की पहल को जायज ठहराने के लिए पर्याप्त वैध आंकड़े पेश करने में विफल रही। मामला राजनीतिक रूप से तूल पकड़ रहा है। संसद में बसपा की अगुवाई में इस मांग को लेकर हंगामा हुआ है कि सरकार संविधान संशोधन के जरिए प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान करे। बसपा किसी सूरत में अपने वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहती। अन्य दलों की भी मजबूरी है कि वह उसके सुर में सुर मिलाएं। केंद्र सरकार न्याय पालिका से सीधा टकराव लेने से बच रही है और उसकी तैयारी सर्वदलीय बैठक में सहमति बनाने की है। इसी बीच सपा की प्रदेश सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था समाप्त करने का निर्णय लेकर बड़ा राजनीतिक दांव चला है। पार्टी की योजना उन सवर्ण मतों को अपनी ओर खींचने की है जो परंपरागत रूप से पहले कांग्रेस के साथ थे और बाद में भाजपा के साथ चले गए। बीच-बीच में बसपा भी सतीश चंद्र मिश्रा, नरेश अग्रवाल, रामवीर उपाध्याय जैसे नेताओं के सहारे सवर्ण मतों पर डोरे डालती रही। उसे कामयाबी भी मिली और जो वर्ग उसका कट्टर विरोधी माना जाता था, उसे स्वीकार करने लगा। सपा के साथ यहां स्थिति मुश्किल भरी ही रही। वह पूरा जोर लगाती रही पर सवर्ण मतों में अन्य दल उससे आगे निकलते रहे। यूपी में तीन तरह के हित समूह हैं। एक समूह दलितों का है जिनका नेतृत्व मायावती की बहुजन समाज पार्टी कर रही है। दूसरा ग्रुप पिछड़ों का है जिसका नेतृत्व मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी कर रही है। तीसरा ग्रुप अगड़ों का है जिनका नेतृत्व दो पार्टियां करती रही हैं – कांग्रेस और बीजेपी। चौथा ग्रुप मुसलमानों का है जिनका अपना कोई नेतृत्व नहीं है लेकिन जिनके हितों को पूरा करने के लिए एसपी, बीएसपी और कांग्रेस तीनों तैयार रहते हैं। राजनीतिक पंडितों के मुताबिक, प्रदेश में किसी भी चौमुखी मुकाबले में वह पार्टी बाजी मार ले जाती है जिसे 28-30 प्रतिशत वोट मिलते हैं। पिछली बार बीएसपी 30 प्रतिशत वोट पाकर बहुमत लेने में सफल रही थी, इस बार सपा ने 29 प्रतिशत मत से बहुमत हासिल किया है। सपा ने सवर्ण कार्ड इसी राजनीतिक आंकड़े को लेकर खेला है। पार्टी कभी नहीं मानती कि दलितों का बड़ा वर्ग उसका हितैषी बन सकता है, यहां वह उन दलितों को अपनी ओर खींचने का प्रयास करती है जो बसपा या आरक्षण के मौजूदा सिस्टम से लाभ न मिल पाने की वजह से असंतुष्ट हैं। सवर्ण वोटों का बड़ा हिस्सा बेशक भाजपा को मिलता है लेकिन वह भी कभी 17-18 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा पाता क्योंकि कांग्रेस को भी कुछ अगड़े वोट मिल जाते हैं। सपा इसी गणित को लेकर लोकसभा चुनावों में उतरने की योजना बना चुकी है। सपा जानती है कि आरक्षण का मुद्दा सवर्णों को सबसे ज्यादा आहत करता है। रणनीति का दूसरा पक्ष भी उसको लाभ दिलाता नजर आ रहा है। अगर, केंद्र सरकार या संसद में हंगामे की वजह से दलितों को प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान आता है तो वह यह दावा करने से नहीं हिचकेगी कि पहल तो उसने ही की थी, हालांकि उसमें अन्य दल आड़े आ गए। कैबिनेट के इस निर्णय ने सपा को तात्कालिक लाभ दिलाने का रास्ता साफ कर दिया है।

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