Friday, May 11, 2012

राष्ट्रपति पदः विवादों की अंतहीन कथा

राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने के खिलाफ थे नेहरू जिस देश की गली-गली में सियासत बसती हो, बच्चे घर-परिवार और शिक्षण संस्थानों में राजनीति देखते-सीखते हों, वहां राष्ट्रपति आसानी से चुन लिया जाए, यह तो कतई संभव नहीं। इसीलिये इस देश के राष्ट्रपति का पद हमेशा राजनीति गर्म करता रहा है। विवाद की नींव तो पहले राष्ट्रपति चुनाव में ही पड़ गई थी, तब उप प्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल नहीं अड़ते तो बाबू राजेंद्र प्रसाद कभी राष्ट्रपति नहीं बन पाते। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि प्रसाद इस पद तक पहुंचें। आजादी मिलने के बाद सबसे पहली और बड़ी सियासत राष्ट्रपति के पद पर हुई थी। नेहरू ने प्रसाद का रास्ता रोकने के लिए पूरा जोर लगा दिया था। नेहरू चाहते थे कि इस पद पर राज गोपालचारी बैठें। वे तब गवर्नर जनरल भी थे। वे विचारों से घोर दक्षिणपंथी और पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक थे, पर उनकी कार्य शैली से नेहरू प्रभावित थे। राजा को राष्ट्रपति बनाने के सवाल पर कांग्रेस पार्टी में भारी आंतरिक मतभेद खड़ा हो गया। सरदार पटेल के नेतृत्व वाले गुट ने डा. राजेंद्र प्रसाद के नाम को आगे बढ़ा दिया। नेहरू ने हार नहीं मानी और प्रसाद से लिखवा लिया कि वे इस सर्वोच्च संवैधानिक पद के उम्मीदवार ही नहीं हैं। इस बात का पता सरदार पटेल को चला तो वे नाराज हो गए। समकालीन नेताओं के संस्मरण लेखों और डायरी के पन्नों में दर्ज विवरण के अनुसार राजेंद्र बाबू से सरदार पटेल ने पूछा कि आपने ऐसा लिखकर क्यों दे दिया, इस पर राजेंद्र बाबू ने कहा कि मैं गांधी जी का शिष्य हूं। यदि कोई मुझसे पूछता है कि क्या आप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं तो यह बात मैं अपने मुंह से कैसे कह सकता हूं कि मैं उम्मीदवार हूं? नेहरू जी ने मुझसे जब ऐसा ही सवाल पूछा तो मैंने वैसा कह दिया। उनके मांगने पर मैंने यही बात लिख कर भी दे दी। बिगड़ी बात को सरदार पटेल ने अपने विशेष प्रयास और कौशल से बाद में संभाला। पहले तो राजेंद्र बाबू को इस बात के लिए तैयार कराया गया कि वे उम्मीदवार बनें। दरअसल, राजेंद्र बाबू मन ही मन चाहते तो थे ही कि उन्हें राष्ट्रपति पद मिले, पर इसके लिए वे आज के अधिकतर नेताओं की तरह आग्रही या फिर दुराग्रही कत्तई नहीं थे। वे किसी भी पद के लिए नीचे नहीं गिरना चाहते थे। दल के भीतर तनाव पैदा करके तो कत्तई नहीं। सरदार पटेल ने उनको राष्ट्रपति पद पर बिठाने की जरूरत बताई तो तब जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के सामने यह धमकी दे डाली कि यदि राज गोपालाचारी राष्ट्रपति नहीं बनेंगे तो मैं नेता पद से इस्तीफा दे दूंगा। इस पर कांग्रेस के मुखर नेता डा. महावीर त्यागी ने इस्तीफा देने के लिए कह दिया, बोले कि आप पद छोड़ दीजिए, हम नया नेता चुन लेंगे। फिर जवाहर लाल ने प्रसाद के नाम का विरोध नहीं किया और प्रसाद राष्ट्रपति बन गए। सेना की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता सेनानी बने महावीर त्यागी बाद में केंद्रीय मंत्री भी बने थे। इतिहास बताता है कि प्रसाद से नेहरू की पटरी कभी नहीं बैठी। इसका असर कामकाज और संबंधों पर झलकता रहता था। डा. राजेंद्र प्रसाद का जब पटना में निधन हुआ तब नेहरू उऩके अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हुए। यह महज संयोग नहीं कि डा. प्रसाद की बिहार स्थित जन्मभूमि जिरादेई में आज तक नेहरू परिवार के किसी सदस्य का पदार्पण नहीं हुआ है। यह आरोप भी लगाया जाता रहा है कि केंद्र सरकार ने पहली पंचवर्षीय योजना अवधि से ही बिहार की जो अन्य राज्यों के मुकाबले कम आर्थिक मदद दी, इसकी वजह भी राजेंद्र बाबू ही माने जाते हैं। प्रत्याशी रेड्डी, इंदिरा ने जिता दिया वीवी गिरी को देश के शीर्ष पद यानि राष्ट्रपति बनने के लिए भी सियासत खूब चलती रही है। राजेंद्र प्रसाद के बाद दो चुनाव शांतिपूर्ण और बिना राजनीति संपन्न हो गए लेकिन 1969 में मामला खूब फंसा। कांग्रेस ने नीलम संजीव रेड्डी को प्रत्याशी बनाया लेकिन बाद में पलटा मारते हुए इंदिरा गांधी ने वीवी गिरी को वोट दिलाकर जिता दिया। इंदिरा गांधी के लिए यह चुनाव वर्चस्व सिद्ध करने का पहला मौका थे, जिसे उन्होंने जमकर भुनाया। डॉ. प्रसाद के बाद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति बने और ठीक पांच साल तक इस पद पर रहे। तेरह मई 1967 को डॉ. जाकिर हुसैन ने यह पद संभाला। उनके निधन के कारण 24 अगस्त 1969 में वाराह गिरि वेंकट गिरि यानि वीवी गिरि देश के चौथे राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने इससे पहले 3 मई 1969 से 20 जुलाई 1969 तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में यह पद संभाला। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद उस समय के कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज ने अहम भूमिका निभाई और इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा दिया। गांधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। इसी बीच राष्ट्रपति के चुनाव आ गए। इंदिरा ने इस पद के लिए पहले नीलम संजीव रेड्डी का नाम सुझाया। पर बाद में उन्हें लगा कि रेड्डी स्वतंत्र विचार के व्यक्ति हैं और उनकी हर बात नहीं मानेंगे, इसलिए निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरि का समर्थन कर दिया। इंदिरा गांधी ने अपने दल के सांसदों और विधायकों यानी मतदाताओं से अपील कर दी कि वे अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट दें। इस सवाल पर कांग्रेस में फूट पड़ गयी और कुछ अन्य दलों की मदद से इंदिरा गांधी ने गिरि को जीत दिला दी। मामला इतना बढ़ा कि गिरि के चुनाव को चुनौती देते हुए याचिका दायर कर दी गयी। याचिका में मुख्य आरोप यह लगा कि राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे परचे छापे और वितरित किए गए जो रेड्डी के चरित्र को लांछित करते थे। विवादित ढंग से चुने जाने के बावजूद गिरि के समय तक राष्ट्रपति वाकई देश के पहले नागरिक हुआ करते थे। इस मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एसएम सिकरी की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय पीठ का गठन किया गया। मुकदमा सोलह सप्ताह तक चला। सीके दफ्तरी गिरि के वकील थे। मुकदमे में 116 गवाहों के बयान हुए। इक्कीस दस्तावेज पेश किये गये। अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने गिरि के खिलाफ पेश याचिकाएं खारिज कर दीं। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति का बयान दर्ज करने के लिए कमिश्नर बहाल कर दिया था पर श्री गिरि ने खुद हाजिर होकर बयान देना उचित समझा। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के बैठने की सम्मानजनक व्यवस्था कर दी थी। सीके दफ्तरी गिरि के वकील थे। इस केस में सुप्रीम कोर्ट के सामने जो मुद्दे थे, उनमें मुख्यत वह विवादास्पद पर्चा था जो रेड्डी के खिलाफ़ विधायकों व सांसदों के बीच वितरित किये गये थे। सवाल उठा कि क्या गिरि या किसी अन्य व्यक्ति ने उनकी सहमति से वे परचे प्रकाशित, मुद्रित और वितरित किये थे? क्या उस परचे में ऐसे झूठे तथ्य और कुतथ्य थे, जिससे रेड्डी का निजी चरित्र लांछित होता है? क्या उसका प्रकाशन कांग्रेस के राष्ट्रपति के अधिकारिक उम्मीदवार को पराजित करने के लिए किया गया था? क्या परचे को प्रकाशित करने के जिम्मेदार व्यक्ति यह विश्वास करते हैं कि उसमें लिखी गयी बातें सच हैं? क्या गिरि या अन्य व्यक्ति ने उनकी सहमति से घूस देने का अपराध किया जिसका चुनाव पर बुरा असर पड़ा? क्या राष्ट्रपति पद के अन्य उम्मीदवार शिव कृपाल सिंह, चरणलाल साहू या योगीराज के नामांकन पत्र गलत तरीके से खारिज कर दिये गये? क्या गिरि और पीएन भोगराज के नामांकन पत्र गलत तरीके से स्वीकृत किये गये? क्या याचिका में लगाये गये आरोप यह सिद्ध करते हैं कि धारा-18/1 ए/के अंतर्गत चुनाव में अनुचित प्रभाव का इस्तेमाल किया गया था? क्या गिरि के कार्यकर्ताओं ने अनुचित प्रभाव डालने का अपराध किया था? यदि हां, तो क्या उसके लिए गिरि ने अपनी सहमति दी थी? क्या अन्य लोगों द्वारा अनुचित प्रभाव डालने के कारण चुनाव नतीजे पर कोई असर पड़ा? सीके दफ्तरी ने कहा कि यह सही है कि रेड्डी के खिलाफ़ परचा छापा गया था पर उस परचे में यह नहीं बताया गया था कि इसे किसने छापा। दूसरी ओर याचिकाकर्ता के वकील सुयश मलिक ने कहा कि गिरि पर आरोप बनता है। एक अन्य वकील एमसी शर्मा ने कहा कि संसदीय चुनाव और राष्‍ट्रपति के चुनाव में भष्ट कार्रवाई के अंतर को ध्यान में रखा जाना चाहिए। चुनाव में भ्रष्ट आचरण सिद्ध करने के लिए केवल यह सिद्ध करना जरूरी है कि विजयी प्रत्याशी ने भष्ट आचरण के बारे में जानबूझ कर खामोशी बरती। सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद गिरि के चुनाव को सही ठहराया और इस संबंध में दायर चारों याचिकाओं को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति सिकरी ने कहा कि हम सभी न्यायाधीश इस निर्णय पर एकमत हैं। फ़ैसले के वक्त सुप्रीम कोर्ट में भारी भीड़ थी। लोगों में निर्णय सुनने की उत्सुकता थी। यह अपने ढंग का पहला चुनाव मुकदमा था। जब फ़ैसला आया, उस समय गिरि दक्षिण भारत के दौरे पर थे। उन्हें तत्काल इसकी सूचना दे दी गयी। इस निर्णय पर कोई टिप्पणी करने से उन्होंने इनकार कर दिया। राष्ट्रपति पद के पराजित उम्मीदवार रेड्डी ने भी इस पर तत्काल कुछ कहने से इनकार कर दिया था पर कुछ दूसरे नेताओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर दीं। इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष जगजीवन राम ने कहा कि सच्चाई की जीत हुई है। भाकपा के प्रमुख नेता भूपेश गुप्त ने कहा कि यह फ़ैसला न केवल संसद बल्कि पूरे देश के प्रगतिशील व्यक्तियों की नैतिक और राजनैतिक दोनों तरह की विजय की प्रतीक है। संगठन कांग्रेस के अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने कहा कि हमें न्यायिक फ़ैसलों को स्वीकार करने और उसकी प्रशंसा करने की सीख लेनी चाहिए। पहले सर्वसम्मत राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी बात 1977 की है। इंदिरा गांधी सरकार का पतन हो गया और 23 मार्च को 81 वर्षीय मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाल ली। सरकार ने अहम फैसले के तहत नौ राज्यों से कांग्रेसी सरकारों को भंग कर दिया और नए चुनावों की घोषणा हुई। 26 मार्च 1977 को श्री नीलम संजीव रेड्डी को सर्वसम्मति से लोकसभा का स्पीकर चुना गया। सरकार इंदिरा गांधी को नुकसान पहुंचाने के लिए फैसले दर फैसले कर रही थी, इसी बीच राष्ट्रपति चुनाव की बेला आ गई। रेड्डी को मैदान में उतारा गया, फैसला सही सिद्ध हुआ और सभी दलों ने अंतर्रात्मा की आवाज पर उन्हें शीर्ष पद तक पहुंचा दिया। वह सर्वसम्मति से चुने गए देश के पहले राष्ट्रपति थे। नीलम संजीव रेड्डी भारत के छठे राष्ट्रपति थे। रेड्डी भारत के ऐसे राष्ट्रपति थे जिन्हें राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होते हुए प्रथम बार विफलता प्राप्त हुई और दूसरी बार उम्मीदवार बनाए जाने पर राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। प्रथम बार इन्हें वीवी गिरि के कारण बहुत कम अंतर से हार स्वीकार करनी पड़ी थी। दूसरी बार गैर कांग्रेसियों ने इन्हें प्रत्याशी बनाया। जब हारे तब लगा था कि रेड्डी ने मौका गंवा दिया है, जो अब उनकी जिन्दगी में कभी नहीं आएगा। लेकिन भाग्य की शुभ करवट ने उन्हें विजयी योद्धा के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह भारतीय राजनीति के ऐसे अध्याय बनकर सामने आए, जो अनिश्चितता का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं। 13 जुलाई 1977 को रेड्डी ने लोकसभा के स्पीकर का पद छोड़ दिया। रेड्डी ने स्पष्ट कर दिया था कि यदि उन्हें सर्वसम्मति से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाता है तभी वह नामांकन पत्र दाखिल करेंगे। 19 जुलाई को नामांकन पंत्रों की जांच का कार्य किया गया। रेड्डी के अतिरिक्त जितने भी नामांकन प्राप्त हुए उनमें व्यतिक्रम था। इस आधार पर सभी को खारिज कर दिया गया। 21 जुलाई को सायंकाल 3 बजे तक नाम वापस लिया जा सकता था। फिर 3 बजकर 5 मिनट पर चुनाव अधिकारी ने सूचित किया कि नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध चुनाव जीत गए हैं। इस घोषणा के पश्चात रेड्डी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। केएस हेगड़े को लोकसभा का अध्यक्ष बनाया गया। राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद रेड्डी ने एक वक्तव्य दिया, "स्पीकर देखा तो जाता है लेकिन सुना नहीं जाता लेकिन राष्ट्रपति न तो देखा जाता है और ही सुना जाता है।" उन्होंने भरोसा दिलाया कि वह ऐसे राष्ट्रपति भी रहेंगे जो निर्णय भी ले। मैं खामोशी के साथ ही कुछ नया चाहूंगा। इन्होंने स्वस्थ ऐतिहासिक परम्पराओं का निर्वहन किया तथा कांग्रेस पार्टी से बराबर समन्वय और सहयोग बनाए रखा। जब 1980 में कांग्रेस पुन: सत्ता में आई तो रेड्डी ने राष्ट्रपति पद की मयार्दा का निर्वाह किया। अपने राष्ट्रपति काल में रेड्डी ने दो प्रधानमंत्री पदासीन किए और तीन प्रधानमंत्रियों के साथ कार्य-व्यवहार रखा। यह प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह तथा इंदिरा गांधी थे। राष्ट्रपति की जिम्मेदारी से मुक्त होने से कुछ दिन पहले रेड्डी ने स्वीकार किया कि जब जनता पार्टी अंतर्कलह के कारण बिखर गई तो वह अकेला महसूस कर रहे थे। जनता पार्टी का बिखराव, मोरारजी देसाई के त्यागपत्र तथा चौधरी चरण सिंह का प्रधानमंत्री बनना एवं अल्पमत में आ जाना आदि घटनाएं काफी दुखद हैं। रेड्डी ने स्पष्ट किया कि आपात स्थिति थी और उन्हें राष्ट्रपति की संवैधानिक मयार्दा के अनुसार ही प्रत्येक मौके पर निर्णय लेने थे। मैंने अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग करते हुए काफी कठिन निर्णय भी किए। यदि इतिहास आज इन निर्णयों की समीक्षा करता है तो उन्हें उचित ही ठहराएगा। हालांकि उनके कार्यकाल में बाबू जगजीवन राम की प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी को नजरअंदाज किए जाने की आलोचना भी हुई। कार्यकाल पूर्ण करने के बाद यह आंध्र प्रदेश के अपने गृह नगर अनंतपुर लौट गए। वह 25 जुलाई 1977 से 24 जुलाई 1982 तक राष्ट्रपति रहे। अहमद ने कैबिनेट से पहले ही मंजूरी दी आपातकाल को सन 1974 में फखरूद्दीन अली अहमद उस समय राष्ट्रपति बने, जब समूचा देश इंदिरा गांधी की नीतियों का विरोध कर रहा था, ऐसे समय में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के सुझाव से 1975 में आंतरिक आपात स्थिति की घोषणा के कारण इनका कार्यकाल काफी अलोकप्रिय रहा। 1977 में अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण इनका देहावसान हो गया। अहमद ने इंदिरा गांधी की तानाशाही के सामने झुकते हुए कैबिनेट के पास करने के पहले ही 1975 में आपातकाल लागू किए जाने की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए। इस प्रकार उन्होंने अपने संवैधानिक दायित्वों का ठीक से निर्वहन नहीं किया। वह 24 अगस्त 1974 से 11 फरवरी 1977 तक शीर्ष पद पर रहे। वफादार ज्ञानी जैल सिंह भी आपरेशन ब्ल्यू स्टार के जिम्मेदार भारतीय इतिहास के बदनुमा पन्ने आपरेशन ब्ल्यू स्टार की पटकथा बेशक, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लिखी लेकिन आदेश पर हस्ताक्षर किए थे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने। पंजाब में आतंकवाद चरम पर था, तब भारतीय सेना ने तीन से छह जून तक सिख धर्म के पावन धार्मिक स्थल हरमिंदर साहिब परिसर में यह आपरेशन चलाया। इंदिरा गांधी का दबाव था, ज्ञानी जैल सिंह खुद को गांधी परिवार का भक्त कहते थे इसलिये दस्तखत करने में ज्यादा हिचक नहीं दिखाई। हालांकि बाद में वह हरमिंदर साहब गए और माफी मांगी। कार सेवा करके अपने पाप को धोया। ज्ञानी जैल सिंह जैल सिंह ने एचआर खन्ना पराजित किया। वह 25 जुलाई 1982 से 25 जुलाई 1987 तक देश के राष्ट्रपति पद पर रहे। वह कई निर्णयों को लेकर चर्चित रहे। उन्होंने पहली बार निर्णय दिया कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति में बहुमत जरूरी नहीं है। अभी तक मिथक था कि राष्ट्रपति लोकसभा चुनावों में उभरे सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का न्योता देंगे। दल के नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाएंगे। जैल सिंह ने सिद्ध किया कि यह पूरा सच नहीं है। राष्ट्रपति जिसे चाहें सरकार बनाने का न्योता दे सकते हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने संसदीय दल का नेता चुने जाने से पहले राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया। हालांकि राजीव गांधी से उनके संबंध मधुर नहीं रहे। जैल सिंह ही वह राष्ट्रपति थे जिन्होंने यह मिथक भी दूर किया कि राष्ट्रपति महज रबड़ स्टांप हैं और कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। मिथक था कि राष्ट्रपति के पास किसी मंत्री को हटाने का अधिकार नहीं है और उन्हें सिर्फ प्रधानमंत्री को नियुक्त करने का अधिकार है। प्रधानमंत्री के स्तर से चयनित लोगों को ही वे मंत्रीपद की शपथ दिलाते हैं। लेकिन राजीव गांधी सरकार में राज्यमंत्री केके तिवारी के मामले में राष्ट्रपति ने अपनी ताकत दिखाई। तिवारी के बयान से राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह नाराज थे। तिवारी ने कहा था कि राष्ट्रपति भवन आतंकियों की शरणस्थली बन रहा है। जैल सिंह ने नाराज होकर राजीव को पत्र लिखा। सरकार बर्खास्त करने की धमकी दी। तिवारी को मंत्री पद से हटाना पड़ा। इसके साथ ही उन्होंने पहली बार संसद में पारित कानून पर भी सवाल उठाया। इससे पूर्व तक यह माना जाता था कि राष्ट्रपति कैबिनेट और संसद से पारित हर कानून को मंजूरी देने के लिए बाध्य हैं। यदि राष्ट्रपति उस पर सहमत नहीं हैं तो भी वह उसे खारिज नहीं कर सकते। हालांकि, 1987 में ज्ञानी जैल सिंह राजीव गांधी सरकार के पोस्टल कानून से सहमत नहीं थे। उन्होंने इसे सरकार को नहीं भेजा। राष्ट्रपति के लिए किसी विधेयक को मंजूरी देने की समय सीमा नहीं है। उन्होंने इस विधेयक को अपने पास रोके रखा। बिल स्वत: ही रद्द हो गया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती नीलम संजीव रेड्डी के फैसले को नजीर माना और सरकार के कामकाज में यह अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया। रेड्डी ने भी यह मिथक दूर किया था कि राष्ट्रपति केवल मंत्रिमंडल की सलाह पर फैसले कर सकते हैं और उन्हें केंद्र या राज्य सरकार के कामकाज में दखल देने का अधिकार नहीं है। रेड्डी अपने कार्यकाल के दौरान भारत-पाक संबंधों पर पाकिस्तान में तैनात नटवर सिंह से सीधे रिपोर्ट लेते थे। नटवर सिंह शुरुआत में झिझके लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर वह राष्ट्रपति को भी रिपोर्ट देने लगे थे। अपने विवेक से फैसलों के लिए मशहूर एपीजे अब्दुल कलाम वर्ष 2002 में राष्ट्रपति पद पर एक ऐसी शख्सियत की ताजपोशी हुई जो देश के विज्ञान जगत का नक्षत्र थे। अवुल पकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम देश के 11 वें राष्ट्रपति बने। अभी तक के राष्ट्रपतियों में दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और 11 वें राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ही ऐसे हैं, जो किसी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं थे। दोनों को ही अपार लोकप्रियता मिली। कलाम ने शीर्ष पद पर भी अपनी क्षमताएं दिखाईं और साहसिक पहल से नहीं चूके। अच्छे निर्णय किए। 2002 में केआर नारायणन का कार्यकाल समाप्त हो रहा था। उप राष्ट्रपति कृष्णकांत दौड़ में सबसे आगे थे। सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने उनका नाम तय कर लिया था। लेकिन तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस अड़ गए। दोनों ने तत्कालीन राज्यपाल पीसी एलेक्जेंडर का नाम आगे कर दिया। तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी रक्षा वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम से प्रभावित थे। उन्होंने अंतिम क्षणों में कलाम का नाम आगे कर दिया। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले इस गठबंधन में जनता दल यूनाईटेड जैसे घटकों ने एक क्षण में मुस्लिम उम्मीदवार का समर्थन जुटा दिया। कलाम की उम्मीदवारी का वामदलों के अलावा समस्त दलों ने समर्थन किया। 18 जुलाई, 2002 को डॉक्टर कलाम को 90 प्रतिशत बहुमत से राष्ट्रपति चुना गया और 25 जुलाई 2002 को संसद भवन के अशोक कक्ष में राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई गई। कलाम को प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह (एसएलवी थ्री) प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल है। जुलाई 1980 में इन्होंने रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित किया था। इस प्रकार भारत भी अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब का सदस्य बन गया। इसरो लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम को परवान चढ़ाने का श्रेय भी उन्हें प्रदान किया जाता है। कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी (गाइडेड मिसाइल्स) को डिजाइन किया एवं अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइल्स को स्वदेशी तकनीक से बनाया था। कलाम सक्रिय राष्ट्रपति सिद्ध हुए। तब तक यह मिथक था कि राष्ट्रपति फांसी की सजा को कम करने पर अपने विवेक से फैसला नहीं लेते हैं। सरकार जैसा कहती है, वह वैसा फैसला लेते हैं। वर्ष 2006 में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने यह मिथक तोड़ दिया और गृह मंत्रालय की सिफारिश नहीं मानी। उन्होंने राजस्थान में पत्नी, दो बच्चों और रिश्तेदार की हत्या करने वाले खेराज राम की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। उन्होंने दिखा दिया कि सरकार का फैसला राजनीतिक नफे-नुकसान पर आधारित था। डॉ. कलाम राष्ट्रपति थे तो उन्होंने गुजरात दंगों के बाद नरोडा पाटिया का दौरा किया। राज्य से राहत कार्यों पर रिपोर्ट भी मांगी। हालांकि इस पर सियासी बवंडर उठा पर कलाम विचलित नहीं हुए। डॉ. कलाम गैर-राजनीतिक व्यक्ति थे, लेकिन उनके चयन के पीछे राजनीतिक कारण मुख्य थे। गुजरात में दंगों के बाद भाजपा को अपनी अल्पसंख्यक विरोधी छवि को सुधारने की सख्त जरूरत थी और अल्पसंख्यक समुदाय का होने के अलावा परमाणु वैज्ञानिक के तौर पर मशहूर कलाम को राष्ट्रपति बना कर उसका मकसद हल होता था। कलाम का दौरा सरकार के पक्ष में संकेत देने में कामयाब रहा। विवादों से घिरीं राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल देश में महिला सशक्तिकरण का उदाहरण हैं मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल। हालांकि दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वह सबसे ज्यादा विवादों से घिरी रहीं। कभी-कभी लगा कि वह पद का इस्तेमाल निजी हितों में कर रही हैं। लापरवाही के भी आरोप हैं, फांसी की सजा प्राप्त कैदियों पर वह तमाम हो-हल्ले के बाद भी फैसला नहीं ले पाईं। उनकी अंधाधुंध विदेश यात्राओं से भी विवाद हुआ। राष्ट्रपति चुनाव में प्रतिभा पाटिल ने 2007 में अपने प्रतिद्वंदी भैरोंसिंह शेखावत को तीन लाख से ज़्यादा मतों से हराया। वे भारत की 13वीं राष्ट्रपति हैं। हालांकि वह यूं ही आसानी से इस पद तक नहीं पहुंच गईं, 2007 में जब राष्ट्रपति पद के लिए नामों पर विचार चल रहा था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी वरिष्ठ नेता शिवराज पाटिल को इस पद पर लाना चाहती थीं पर सत्ता में सहयोगी वामपंथी दलों ने एतराज जता दिया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा ने किसी महिला को राष्ट्रपति बनाने की वकालत की और प्रतिभा पाटिल का नाम आगे पहुंच गया। संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में जब राष्ट्रपति के रूप में प्रतिभा पाटिल का चयन किया गया तब भी यह सवाल उभरा था कि जिनका कोई उल्लेखनीय राजनीतिक करियर न हो उसे राष्ट्रपति क्यों बना दिया गया। पाटिल खुद को सक्षम सिद्ध करने में कामयाब भी नहीं रह पाईं। अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने विदेशी दौरों में व्यस्त रहने के अलावा कोई खास काम नहीं किया। साथ ही विदेश दौरों में अपने परिजनों को भी साथ ले गईं और अपने बेटे के राजनीतिक करियर को बढ़ावा दिया। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे यह प्रतीत हो कि सरकार के कामकाज से अलग वह अपने विचार रखती हैं। हाल यह हो गया कि विदेश यात्राओं को लेकर भारत में उपजे विवादों के बीच राष्ट्रपति भवन ने पिछले पांच साल में उनके साथ 12 विदेश यात्राओं पर गए उद्यमियों के शिष्टमंडल पर असामान्य कदम के रूप में एक ‘स्थिति रिपोर्ट’ जारी की। रिपोर्ट में कहा गया, ‘विदेशों की राजकीय यात्राओं के दौरान राजनीतिक गतिविधियों और आर्थिक उद्देश्यों के मेलजोल के प्रयास में राष्ट्रपति ने अपने साथ यात्राओं पर उद्यमियों के शिष्टमंडल को ले जाने का फैसला किया। यह ऐतिहासिक कदम था जिसमें यात्राओं और उनके बाद कई बड़े व्यावसायिक फैसले लिए गए।’ रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रपति ने 12 राजकीय यात्राएं कीं, जिनमें 22 देशों का भ्रमण शामिल है। इनमें से प्रत्येक राजकीय यात्रा में तीन देशों रूस, इंडोनेशिया और भूटान को छोड़कर अन्य देशों की यात्राओं पर उद्यमी शिष्टमंडल ने उन देशों की द्विपक्षीय जरूरतों पर ध्यान दिया। रिपोर्ट में अप्रैल 2008 में राष्ट्रपति पाटिल की ब्राजील, मेक्सिको और चिली की यात्राओं से लेकर अब तक की विदेश यात्राओं की उपलब्धियों को भी बयां किया गया। प्रतिभा पाटिल के साथ सबसे पहला विवाद तब जु़डा जब उन्होंने राजस्थान की एक सभा में कहा कि राजस्थान की महिलाओं को मुगलों से बचाने के लिए परदा प्रथा आरंभ हुई। इतिहासकारों ने कहा कि राष्ट्रपति पद के लिए दावेदार प्रतिभा का इतिहास ज्ञान शून्य है। मुस्लिम लीग जैसे दलों ने भी इस बयान का विरोध किया। समाजवादी पार्टी ने कहा कि प्रतिभा पाटिल मुसलिम विरोधी विचारधारा रखती हैं। प्रतिभा दूसरे विवाद में तब घिरी जब उन्होंने एक धार्मिक संगठन की सभा में अपने गुरू की आत्मा के साथ कथित संवाद की बात कही। प्रतिभा के पति देवी सिंह शेखावत पर स्कूली शिक्षक को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने का आरोप है। उन पर हत्यारोपी अपने भाई को बचाने के लिए अपनी राजनीतिक पहुंच का पूरा पूरा इस्तेमाल करने का भी आरोप है। उन पर चीनी मिल कर्ज में घोटाले, इंजीनियरिंग कालेज फंड में घपले और उनके परिवार पर भूखंड हड़पने के संगीन आरोप हैं। ऐसे ही एक विवाद के बाद राष्ट्रपति को पुणे में मिलने वाला सरकारी घर ठुकराना पड़ा जो उन्हें रिटायरमेंट के बाद मिलना था। पुणे के खड़की सैन्य छावनी में यह घर जिस जमीन पर बनाया जा रहा था वो शहीदों की विधवाओं और पूर्व सैनिकों को मिली हुई थी। पाटिल को घर के लिए साढ़े चार हजार वर्ग फीट जमीन दी गई थी, लेकिन इसके आसपास करीब ढाई लाख वर्ग फीट जगह खाली छोड़ी जा रही थी।

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