Sunday, August 19, 2012

'गैंग्स आफ वासेपुर' की 'दुर्गा'

फ़िल्म 'गैंग्स आफ वासेपुर' में 'बंगालन' का किरदार अनायास नहीं आया है। धनबाद कोलकाता जैसे बड़े महानगर के एक्सटेंशन के रूप में काम करता रहा है। आसनसोल उसको सहोदर खदान है। धनबाद और आसनसोल एक सहज विस्तार का हिस्सा है। इसीलिए सरदार ख़ान के जीवन में बंगालन आती है। नाम है दुर्गा। इस फिल्म में बंगालन के किरदार को कोई और ठीक से व्याख्या करे तो अच्छा रहेगा मैं अपनी स्मृतियों के सहारे एक व्याख्या करने की कोशिश करता हूं। हिन्दी भाषियों के मन में बंगाल और बंगालन का वजूद अभी तक एक्सप्लोर नहीं किया गया है। हमारे सामाजिक मन में बंगालन हमेशा से एक आज़ाद ख़्याल वाली औरतें रही हैं। आज़ाद ख्याल पर विशेष ज़ोर देना चाहता हूं। जड़ हिन्दी भाषी मर्दसोच में बंगालन उस आज़ादी का प्रतिनिधि करती है जिसकी तलाश में वो भटकता रहता है। बंगालन की यह वो ख़ूबियां हैं जो वो अपनी पत्नी या सामाजिक लड़कियों में नहीं देखना चाहता। इस आज़ादी का अंग्रेज़ी का एक समकक्ष शब्द लूज़ बैठता है। आप इस बात को तब तक नहीं समझेंगे जब तक आप बिहार यूपी के हिन्दी भाषी नहीं होंगे। अनुराग ने अपनी फिल्म में दुर्गा का किरदार उसी मानसिक इलाके की तलाश में रचा होगा। कहानीकार ने बारीक निगाह से इस किरदार के बारे में सोचा होगा। वर्ना ऐसा नहीं था कि दुर्गा के बिना वासेपुर की कहानी पूरी नहीं होती। सरदार को अगर चरित्रहीन मर्द के रूप में ही दिखाना था तो दुर्गा का प्रसंग एक रात के लिए होता। मगर वो हम हिन्दी भाषियों के मानसिक मोहल्ले में पूरी फिल्म के दौरान आखिर तक मौजूद रहती है। वो एक स्वतंत्र महिला है। कम बोलती है। बिना किसी सामाजिक दबाव के सरदार से संबंध कायम करने का फैसला करती है। एक दृश्य है जब सरदार नहा रहा होता है। दुर्गा टाट के पीछे बैठकर सरदार को देखती है। वो उसके करीब आ जाती है। बंगाल की लड़कियां काला जादू कर देती हैं। फंसा लेती हैं। ऐसी बातें हम सबने कही होंगी और सुनी भी होंगी। दुर्गा की साड़ी और ब्लाउज़ को हिन्दी आंखों की हवस और सोच के हिसाब से बनाया गया है। बंगाल की औरतों के कपड़ों को सर से पांव तक ढंकी हिन्दी भाषी प्रदेशों की औरतों और उनके मर्दों ने ऐसे ही देखा है। जलन से और चाहत से। सरदार का दिल तो आता है लेकिन अंतत दुर्गा फंसा लेती है। वो उसे अपने पास रख लेती है। धनबाद के रंगदारों को रखैल रखने और किसी की रखैल हो जाने का सुख बंगाल से ही मिलता होगा। सोनागाछी उनका पसंदीदा और नज़दीक का ठिकाना रहा होगा। बिहार और यूपी के लोगों के संपर्क में पहले बंगाल ही आया। बंबई दूर था। बंगाली औरतों ने बिहारी यूपी मर्दों को अपना भी बनाया। कम किस्से हैं कि यूपी बिहार का भइय्या बंबंई गया और मराठी लड़की के प्रेम में पागल हो गया। हो सकता है कि मेरी जानकारी में ऐसे प्रसंग न हो लेकिन आप भोजपुरी गानों को सुने तो बंगालन का ज़िक्र एक खास अंदाज़ में हो ही जाता है। उसी का विस्तार है बंगालन का किरदार। बिहारियों ने उनकी सेक्सुअल स्वतंत्रता को विचित्र रूप से तोड़मरोड़ कर देखा है और मुहावरों से लेकर अपनी कल्पनाओं में सजाया है। तभी सरदार ख़ान उसे बंगालन जानते ही उपलब्ध समझने लगता है। वहां उसके बोलने का लहज़ा भी क्लासिक है। फुसला रहा है। गोरे गाल को दबोच लेता है। गाल का दबोचना भी हिन्दी प्रदेशों के सामंती मन में मौजूद कई दृश्यों को खोलता है। बंगालन घर बर्बाद कर देने वाली औरतों के रूप में देखी जाती रही हैं। उनके संपर्क में आईं हिन्दी भाषी औरतों ने जब थोड़ी सी स्वतंत्रा का इस्तमाल किया तो उन्हें बंगाली कहा जाने लगा। यह मैं अपने बाप दादाओं के वक्त के सामाजिक अनुभव से लिख रहा हूं। तभी जब सरदार ख़ान का बेटा दुर्गा के दरवाज़े पर पत्थर मारता है तो उसका दोस्त भी मारने लगता है। ऐसे दोस्त मिल जाते थे जो बिना मतलब के दोस्त के काम आ जाते थे। मगर पत्थर मारने के उस दृश्य को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। नारीवादी विमर्श में इसकी प्रशिक्षित व्याख्या होनी चाहिए जो शायद मैं नहीं कर पा रहा हूं।

1 comment:

vinny jain said...

bengali women lived in a more emancipated world, emancipated in comparision with central india on account of earlier colonial encountres with the british and the spread of 'some' reform for women in those times in the formof education...they were and are more free spirited...more bengali women find their 'voices' in present times than women elsewhere in india...also given their domination whit in the household very many of them found their own marital partners and continue to do so...it not for nothing that the character in Wasepur is named "durga"!