भारत एक ऐसा देश है, जहां सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। इस भाषायी विविधता को बनाए रखना और उसे समाज के हर वर्ग के लिए लाभकारी बनाना एक बड़ी चुनौती है। भाषा सिर्फ संवाद का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक समरसता से भी जुड़ी हुई है। ऐसे में त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा संतुलित समाधान है, जो व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास, क्षेत्रीय जुड़ाव और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में सफलता के लिए आवश्यक है। यह फार्मूला मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा और एक करियर-उन्मुख भाषा को प्राथमिकता देता है, जिससे हर नागरिक भाषायी समावेशिता का हिस्सा बन सके।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस त्रिभाषा फार्मूले का जिक्र है। और इस पर तमिलनाडु की द्रमुक सरकार को आपत्ति है। द्रमुक का कहना है, 'यह दक्षिणी राज्यों पर हिंदी थोपने का प्रयास है। इसकी आड़ में केंद्र ने तमिलनाडु का शिक्षा मद का काफी पैसा रोक दिया है।' हालांकि सभी दक्षिणी राज्यों में विरोध नहीं है, आंध्र प्रदेश ने समर्थन किया है। विवादों से इतर यदि एक सकारात्मक सोच रखी जाए तो, कुछ अपेक्षाएं गलत नहीं।किसी भी व्यक्ति की प्रारंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में होना सबसे प्रभावी माना जाता है। मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि बच्चे जिस भाषा में सोचते और समझते हैं, उसी में उनका सीखने की गति सबसे अधिक होती है। मातृभाषा में शिक्षा न केवल बच्चे के बौद्धिक विकास को तेज करती है, बल्कि उसमें आत्मविश्वास और संप्रेषण कौशल को भी बेहतर बनाती है। कई विकसित देशों में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने पर जोर दिया जाता है, जिससे ज्ञान का अधिकतम विस्तार संभव हो सके। भारत में भी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 इस बात पर बल देती है कि बच्चों को कक्षा पाँच तक उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए, ताकि वे विषयों को बेहतर समझ सकें। त्रिभाषा फार्मूला यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा के साथ-साथ उस राज्य या क्षेत्र की भाषा भी सीखें, जहां वे निवास कर रहे हैं। यह पहल सामाजिक समरसता को बढ़ाने में सहायक होती है। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे राज्य में जाकर बसता है, तो वहां की भाषा सीखना उसे स्थानीय संस्कृति और समाज से जोड़ने में मदद करेगा। उदाहरण के लिए, अगर कोई उत्तर भारतीय तमिलनाडु में जाकर काम करता है और तमिल भाषा सीखता है, तो उसे स्थानीय लोगों के साथ घुलने-मिलने और व्यावसायिक अवसरों को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। इसी तरह, अगर कोई दक्षिण भारतीय हिंदी भाषी क्षेत्र में जाकर नौकरी करता है, तो हिंदी सीखकर वह अधिक सहजता से संवाद कर सकता है। इससे क्षेत्रीय मतभेद भी कम होते हैं और विभिन्न भाषाओं के प्रति सम्मान और सहिष्णुता विकसित होती है।
आज के वैश्वीकरण के दौर में एक अंतरराष्ट्रीय भाषा का ज्ञान व्यक्ति के करियर को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में मदद करता है। त्रिभाषा फार्मूला इस बात को भी ध्यान में रखता है कि व्यक्ति को अंग्रेज़ी या कोई अन्य वैश्विक भाषा सीखने का अवसर मिले। विशेष रूप से तकनीकी, चिकित्सा, अनुसंधान, व्यापार और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ी का उपयोग व्यापक रूप से किया जाता है। इसलिए, अंग्रेज़ी या अन्य महत्वपूर्ण भाषाओं का ज्ञान व्यक्ति को अधिक अवसर प्रदान करता है और उसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करता है। त्रिभाषा फार्मूला केवल शिक्षा और रोजगार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों के बीच संवाद की बाधा को भी कम करता है। जब लोग विभिन्न भाषाओं को सीखते और समझते हैं, तो यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है और क्षेत्रीय मतभेदों को कम करता है। भारत में विभिन्न राज्यों के लोग अक्सर भाषा की दीवारों के कारण एक-दूसरे से कटे हुए महसूस करते हैं। यदि उत्तर भारतीय लोग तमिल, कन्नड़ या मलयालम सीखें और दक्षिण भारतीय लोग हिंदी, मराठी या पंजाबी को समझें, तो यह न केवल सौहार्द को बढ़ाएगा, बल्कि आपसी विश्वास और सहयोग को भी मजबूत करेगा।
भारत जैसे विशाल और बहुभाषी देश में भाषा को एकता और विकास का माध्यम बनाने की जरूरत है, न कि विवाद का कारण। भाषा को लेकर अनावश्यक राजनीति करने की बजाय इसे शिक्षा, रोजगार और सामाजिक जुड़ाव का साधन बनाना चाहिए। त्रिभाषा फार्मूला इस दृष्टि से एक समावेशी समाधान प्रस्तुत करता है, जिससे व्यक्ति अपनी मातृभाषा में सोच सके, क्षेत्रीय भाषा में संवाद कर सके और करियर की भाषा में सफलता प्राप्त कर सके।इस नीति का सही तरीके से क्रियान्वयन किया जाए, तो यह न केवल भाषायी सौहार्द को बढ़ाएगा, बल्कि देश को अधिक समावेशी, शिक्षित और सशक्त बनाने में भी मदद करेगा। जब भारत का हर नागरिक अपनी भाषा की जड़ों से जुड़ा रहेगा, क्षेत्रीय विविधता को अपनाएगा और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार होगा, तभी यह नीति अपनी वास्तविक सफलता प्राप्त कर सकेगी।