जन्म और मौत का समय अल्लाह ने मुकर्रर किया है, लेकिन अगर यह सत्ता के हाथ में होता तो यूपी का टॉप माफ़िया सरगना मुख्तार अंसारी चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद मरता। इस एक मौत ने सियासी समीकरण गड़बड़ा दिए हैं... सभी पार्टियां मैदान में हैं, और भाजपा के कदम सधे हुए हैं, तोल मोल के बोल की नीति है।
आगरा से जुड़े एक केंद्रीय मंत्री का बयान आया। बोले, मौत किसी की भी हो, दुखद होती है और राजनीति का विषय नहीं होती। इसी तरह, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय भी संतों जैसी भाषा पर आ गए। जबकि बनारस से जुड़े अजय राय खुद भी माफिया से अपने समीकरणों को लेकर चर्चित रहे हैं। चुनाव के बजाय सामान्य समय होता तो अजय राय खुद भी बल्लियों उछल रहे होते। उनके भाई अवधेश तो इसी आपराधिक गणित की बलि चढ़कर जान गंवा चुके हैं।
फिर भी इतना संयम! असल में, ये संयम मजबूरी और समय की मांग है। प्रदेश के एक शीर्ष नेता का इतिहास बीजेपी को अपनी राह में बाधक लग रहा है। यह भाजपा की रक्षात्मक रणनीति है, मुख्तार अंसारी की मौत की वजह से पूर्वाचल का गणित उलट रहा है। हालांकि मुस्लिम वोट को भाजपा कभी अपना हक नहीं मानती, लेकिन उनका ध्रुवीकरण समस्या की वजह बन सकता है। इलाहाबाद से जुड़े अतीक अहमद की मौत लोग भूल चुके थे लेकिन मुख्तार अंसारी के मरने के बाद उसका जिन्न बोतल से निकल आया है।
सारे दलों में होड़ लगी है। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव का त्वरित बयान इसीलिए आया। बिल में घुसी रहने वालीं बसपा कमांडर मायावती भी बोलीं। योगी के मंत्री संयम से बोल रहे हैं। मौत से पूर्व तक शायद गाजीपुर सीट भाजपा को निराश करती, पर अब असर व्यापक हो रहा है। इलाहाबाद का नाम लेने पर आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन पिछली बार रीता बहुगुणा जोशी हार जातीं, यदि अतीक अहमद ने छिपकर हथेली न लगाते हुए अपना प्रत्याशी न उतारा होता। सत्ता के एक महारथी से मुख्तार की पुरानी अदावत थी, पर वो भी नहीं चाहते होंगे कि मुख्तार चुनाव के समय मरे।
सब जानते हैं कि अपराधी समाज का कोढ़ होते हैं, पर यह समझदारी जिस तरफ ज्यादा है, वह घर से निकलते ही नहीं। चुनाव के दिन छुट्टी मनाते हैं। बेशक, मेरा इशारा हिंदुओं की तरफ है। मतदान में अभी काफी समय है, भाजपा ठंडा करके खाने की नीति पर चल रही है।
जनाजे में ये भीड़!
कोई तीन लाख से ज्यादा लोग हैं ये। धारा 144 के बावजूद इतनी भीड़! लोगों में ये लोकप्रियता किसी गुंडे की तो होगी नहीं। क्षण भर के लिए यदि मान भी लें कि यह धर्मविशेष की, किसी विचारधारा की समर्थक या विरोधी भीड़ है तो भी! ये लोकप्रियता ही है शायद। जो कभी किसी अपराधी को रॉबिन हुड मान लेती है। मुख्तार हो, या ऐसा ही कोई और उदाहरण, जनता को पसन्द इसलिए भी हो जाता है कि वो उनके लिए जरूरत पर मददगार और रक्षक बना होता है। ये माफिया सरकारी ठेकों और उनके आसपास पैसे के मायाजाल की पैदाइश हैं जो एक एक करके अपने ऊपर मुकदमे लदवा लिया करते हैं।
ये भीड़ तो नेता भी तब जुटा पाते हैं जब उनका कैडर मेहनत करता है, बसें जुटाता है और भीड़ की जुगाड़ करता है। लेकिन, आज ये जुटी भीड़ खुद जुटी है। मैं यह भी नहीं कहता कि सभी उसके शुभचिंतक हैं। पर, ऐसे ही हैं ज्यादातर जो उसे पसंद करते थे। माफिया तो मुकदमों की संख्या है। बेशक, मुस्लिमों ही होंगे ज्यादातर, पर वो भी यूं ही नहीं चले आए। और वो भी ज्यादातर, रोज़े में, भूखे प्यासे... यानी रमज़ान के दिनों में!
असल में, ये नकारात्मकता की भीड़ है जो मन में कहीं निराश है, सिस्टम से, माहौल से, अपनी समस्याओं से, या.. खुद से। मुख्तार जैसा कोई अपराधी हीरो तब बनता है जब उम्मीद जग जाती है... कि वो शायद उसकी समस्याओं का समाधान करेगा। निराशा ही है ये... जो हम सबके अन्दर है, और उम्रभर मसीहा ढूंढने में भटकती रहती है।
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