कलम के सिपाही, लोकतंत्र के रक्षक और, न जाने क्या-क्या... पत्रकार पर शायद इस समय सबसे बड़ी जिम्मेदारी है या मानी जाती है। घर के सामने सरकारी नल से बहता पानी, बेरोजगारी के कारण लुटती जवानी, और सामाजिक समस्याएं हों या राजनीतिक, सब का हल जैसे पत्रकार को ही करना है। और, इतने बोझ तले दबा जा रहा है, कुचला जा रहा है। उम्मीदें चुनौतियों में फंसी हैं।
आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इसी दिन साल 1826 में हिंदी भाषा का पहला अखबार 'उदन्त मार्तण्ड' प्रकाशित होना शुरू हुआ था। बहुत समय गुजर गया। पत्रकारिता ने तमाम अग्नि परीक्षा दीं, अपना दायित्व निभाया और कभी-कभी चूक भी गई। दौर आते रहे जाते रहे, पर पत्रकार वहीं अविचल खड़ा रहा। समाज में सम्मान की खातिर मैदान में डटा रहा। आजादी की लड़ाई से लेकर अब तक, ना जाने कितनी कसौटियों पर उसे कसा गया। वेतन के नाम पर मामूली रकम से जीवन निर्वाह का यह संघर्ष वाकई बहुत कठिन था।
लेकिन आज का दौर सबसे अलग है। शायद सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण। सीधा और संगीन आरोप है कि कलम अब निष्पक्ष नहीं रही। छोटी से लेकर बड़ी रकम में बिकती है। गंभीरतम आरोप ये भी है कि बड़े मीडिया घराने सौदे करके बैठे हैं, कलम बंधुआ सी है। हालांकि आरोप तो पत्रकार के जीवन का अभिन्न अंग भी हैं, लेकिन जब सब कुछ सामने दिखने भी लगे तो, बात कष्टप्रद हो जाती है। सबसे बड़ी चुनौती जो घुन की तरह मीडिया को लील रही है, वो फर्जी पत्रकारों की वजह से आई है। हालत इतनी खराब है कि अपराधी किसी असली या नकली चैनल का माइक पकड़ लेते हैं या फिर आईकार्ड। और फिर क्या होता है, ये बताने की जरूरत नहीं। मीडिया जगत में आपाधापी सी है। नकली पत्रकारों की वजह से असली बताने से भी बचने लगे हैं कि वो पत्रकार हैं।
सबसे खास बात यह है कि युवा पीढ़ी के मेधावी लोग जो मीडिया में अपना करियर बनाना चाहते थे, उनका मोहभंग हो चुका है। उसका नतीजा है कि दोयम दर्जे का वो युवा, जिसके पास न विचार हैं, न ज्ञान, वो घुसा चला रहा है। पत्रकारिता बौद्धिक पेशा है। बिन बुद्धि पत्रकारिता जैसे बिना स्याही की कलम। अब क्योंकि विज्ञान और तकनीक का चरम है, इसलिए सोशल मीडिया जैसे माध्यमों पर ऐसे बुद्धि भ्रष्ट लोग अर्थ का अनर्थ कर दे रहे हैं। और, खामियाजा पत्रकारिता की विश्वसनीयता भोग रही है। इलेक्ट्रॉनिक चैनल पर इतनी आपाधापी है कि खबरों की सत्यता कभी-कभी शक के दायरे में आ जाती है, अखबार जो लिखते हैं, उन लाइनों में सच का दबा गला साफ नजर आ जाता है। न्यूज़ पर व्यूज हावी हैं।
सोशल मीडिया के तौर पर पैदा हुआ नया मीडिया अपेक्षा पर बिल्कुल खरा नहीं उतर रहा। इतने अगंभीर यूट्यूब चैनल हैं कि अच्छे चैनल भीड़ में गुम से हैं। लोग जो चाहे लिख और दिखा रहे हैं। खबर के चीथड़े उड़ रहे हैं, चीत्कार रही हैं खबरें, खबरों की आत्मा मर रही है साथ में पत्रकारिता भी बुरे हाल में है, शायद अपनी उम्र के सबसे बुरे दौर में।
तो फिर उम्मीद कहां है। निराशा के इस दौर में उम्मीद की किरण कहीं दिखाई देती भी है या नहीं। बेशक, यह दुनिया उम्मीद पर कायम है। कुछ कोपलें अभी भी उग रही हैं, राख के ढेर में कहीं-कहीं चिंगारी अब भी दिखती है, कुछ बूढ़ी हड्डियां अभी भी जोर मारती दिखती हैं। यानी, सवेरा होने की पूरी उम्मीद है। आइए इसी उम्मीद के साथ पत्रकारिता दिवस मनाते हैं। आप सभी को हिंदी पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
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