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Tuesday, March 27, 2012

सिर से ऊपर निकलता नक्सलवाद

नक्सलियों ने महाराष्ट्र में केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स के 15 जवानों की हत्या कर दी। केंद्रीय बलों के सहारे समस्या से लड़ रहे देश के लिए यह बड़ी खबर है। इससे पूर्व भी अपने 74 जवान गंवा चुका यह बल मनोबल हारने लगा है, जान उसके सिपाहियों को भी प्यारी जो है। केंद्रीय गृह मंत्रालय योजनाएं बनाकर चुप बैठा है, राज्य हथियार डाल चुके हैं और दूसरी ओर, नक्सलियों की आक्रामकता बढ़ती जा रही है। चिंताजनक यह पहलू भी है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की संख्या बढ़ रही है। समस्याओं की जड़ें गहरी हैं। सरकार तरह-तरह की योजनाएं बनाती जरूर हैं लेकिन कोई कारगर और वास्तविक कल्याणकारी उपाय नहीं किए जाते ताकि आदिवासी और ग्रामीण इलाके के लोगों की मूल समस्याओं का दीर्घकालिक नीतियों के साथ समाधान हो सके।
नक्सलियों का इतिहास बेहद काला है। वह 'जंगल का कानून' चलाते हैं, प्रभावित क्षेत्रों के गांवों में ऐसे आचरण करते हैं कि 'भैंस उनकी ही होगी क्योंकि लाठी उनकी' है। किसे याद नहीं होगी, आदिवासी फ्रांसिस इंदुवार की हत्या। उसका सिर तालिबानी शैली में धड़ से अलग कर दिया गया था। इन्हीं आतंकियों ने 165 मासूम यात्रियों को ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पटरी से उतारकर मार डाला था। इस तरह की घटनाओं यानि आतंक की लंबी कहानियां हैं। इन क्षेत्रों की समस्याएं और उनके नतीजतन पैदा आतंक की वजह जानने से पहले यह जरूरी है कि नक्सलवादियों की विचारधारा समझी जाए। माओवाद के प्रणेता चीन के नेता कामरेड माओत्से तुंग का कहना था कि सत्ता बंदूक की गोली से प्राप्त होती है। उन्हें जनता की चुनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास नहीं था। वह ऐसी अधिनायकवादी व्यवस्था चाहते थे जो बंदूकों से नियंत्रित हो। भारत में नक्सलवाद से जन्मदाता माने जाने वाले चारू मजूमदार का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। इन्हीं वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र पर दबदबा हो गया है जिसे सशस्त्र क्रांति से ही खत्म कर पाना संभव है। इसी विचारधारा की वजह से तमाम प्रयासों के बावजूद समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा। पिछले पांच साल में नक्सलवाद की समस्या भयंकर रूप में पहुंच गई है। कोढ़ में खाज यह है कि आर्थिक विषमता के विरुद्ध खड़ा हुआ यह आंदोलन एक व्यापार का रूप ले चुका है। आंदोलन से ईमानदार लोग दूर हो गए हैं इसीलिये लक्ष्य कहीं खो गया है। दूसरा पक्ष यह भी है कि आंदोलन के भटकने के बावजूद यह आदिवासियों के बीच लोकप्रिय है। इस लोकप्रियता का एक कारण यह है कि कहीं-न-कहीं आदिवासी इस कथित सभ्य समाज से नाराज हैं, उपेक्षित हैं। वे अपने प्राकृतिक जीवन से दूर होते जा रहे हैं और इसके लिए वे प्रशासन और सरकार की नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं इसीलिए नक्सलियों को आश्रय दे रहे हैं। आदिवासी किसी राज्य या क्षेत्र विशेष में नहीं हैं, बल्कि पूरे देश में फैले हैं। ये कहीं नक्सलवाद से जूझ रहे हैं तो कहीं अलगाववाद की आग में जल रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को लेकर इनका शोषण निरंतर चला आ रहा है। इन्हें नक्सलियों के साए में सुरक्षा महसूस होती है।
एक बार के लिए यह मान भी लिया जाए कि नक्सली शोषक तंत्र के विरुद्ध संघर्ष करते हैं तो क्या यह रेलयात्री या जवान शोषक तंत्र से थे? महाराष्ट्र में मारे गए जवानों में ज्यादातर दूरदराज के क्षेत्रों के थे और हाल ही में तबादले पर यहां पहुंचे थे। यह मासूम थे, समाज विरोधी, कालाबाजारी या शोषणकर्ता नहीं थे। नक्सलवादी गरीबों और मासूमों की हत्या करते हैं और ऊपर से उनके हमदर्द होने का दम भरते हैं। दुकानदारों, मिल मालिकों, पूंजीपतियों से हफ्ता वसूल करते हैं और इसके बाद उन्हें छेड़ते तक नहीं। किस मायने में ये लोग जिहादी आतंकवादियों, डाकुओं या अन्य अपराधियों से भिन्न हैं? गरीबी मिटाने का यह कौन सा मौलिक और अनूठा तरीका है? नक्सलवादी असल में लोकतंत्र को समाप्त कर बंदूक के दम पर एक ऐसी तानाशाही व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं जिसमें किसी को उफ तक करने की आजादी नहीं होगी और सरकारी स्तर पर लापरवाह प्रयास उन्हें यह मौका मुहैया करा रहे हैं। देश में मिजोरम, नगालैंड व मेघालय जैसे छोटे राज्यों में 80 से 93 प्रतिशत तक आबादी आदिवासियों की है। बड़े राज्यों में मध्य प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आठ से 23 प्रतिशत तक आदिवासी हैं। यह भी शत-प्रतिशत सच है कि हर आदिवासी नक्सली नहीं परंतु माओवादियों और सरकारी दमन से घिरे आदिवासी विकल्पहीन हैं। नक्सली सत्ता स्थापित करने के लिए इनको इस्तेमाल कर रहे हैं। क्यों सरकारें इनके कल्याण के लिए ठोस कार्ययोजना नहीं बनाती?... क्योंकि यह मतदाता नहीं हैं और सरकारें मतदाता बनाते हैं यह लोग नहीं।