कोरोना से खौफजदां दुनिया में अफगानिस्तान ने भय के नए अंधकार में धकेल दिया है। अमेरिकी सेना के जैसे भागने की-सी मुद्रा के बाद पूरा देश आतंक के साये में है। तालिबान का साम्राज्य कायम हो रहा है। अब सवाल यह है कि हम भारतीय कितने चिंतित हों, हों या नहीं। क्योंकि तालिबान के साथ पाकिस्तानी उम्मीदों का उदय हो रहा है। हालांकि कूटनीति चरम पर है। ईरान, कतर और रूस के साथ भारतीय विदेशमंत्री की बैठकें संकेत दे रही हैं कि पाकिस्तान के लिए सब-कुछ इतना आसान नहीं। भारत भी तालिबान के साथ कुछ सकारात्मक रिश्ते बना सकता है।
कहते हैं कि महाभारत काल में अफगानिस्तान के गांधार, जो वर्तमान समय में कंधार है, की राजकुमारी का विवाह हस्तिनापुर (वर्तमान दिल्ली) के राजा धृतराष्ट्र से हुआ था। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध पारंपरिक रूप से मज़बूत और दोस्ताना रहे हैं।1980 के दशक में भारत-अफगान संबंधों को एक नई पहचान मिली, लेकिन 1990 के अफगान-गृहयुद्ध और वहां तालिबान के सत्ता में आ जाने के बाद से दोनों देशों के संबंध कमज़ोर होते चले गए। इन संबंधों को एक बार फिर तब मजबूती मिली, जब 2001 में तालिबान सत्ता से बाहर हो गया और इसके बाद, अफगानिस्तान के लिए भारत मानवीय और पुनर्निर्माण सहायता का सबसे बड़ा क्षेत्रीय सहयोगी बन गया। भारत वहां 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है जो अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में चल रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र भी भारत बड़ा सहयोगी है। ढेरों काम हैं, अंतरिक्ष में सेटेलाइट नेटवर्क के साथ ही काबुल के लिए शहतूत बांध और पेयजल परियोजना, अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए नानगरहर प्रांत में कम लागत पर घरों का निर्माण, बामयान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिए जलापूर्ति नेटवर्क और मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्निक के निर्माण में भी भारत की मदद है। कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए काम शुरू होने वाला है।
रूस के प्रभाव के दिनों को छोड़ दें तो इस देश ने हमेशा हमारे लिए मुश्किलें खड़ी की हैं। कबीलों में बंटे इस देश में कट्टरता का चरम रहा है। तालिबान की आएदिन नरसंहार की रणनीतियों ने पूरे देश की नाक में दम कर दिया था। अब फिर परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। भारतीयों के लिए जैसे संकट का समय है। हाल यह है कि काबुल स्थित भारतीय दूतावास के अभेद्य दुर्ग में डरे-सहमे भारतीयों की आवाजाही दिन-रात चल रही है। लोग घर लौट रहे हैं। बगराम में 20 साल पुराने सैन्य बेस से रात के अंधेरे में अचानक अमेरिकी सैनिकों का चला जाना तो जैसे आतंक के चक्रवात की वजह बना है। आशंका के अनुरूप अफगानिस्तानी सेना न केवल कमजोर पड़ रही है बल्कि दो सौ सैनिकों के पड़ोसी देश भाग जाने की खबरें हैं। अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं के जाने से खुश पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने तालिबान के शासन की ओर इशारा करते हुए कहा है कि इस इलाके में अब बहुत गंभीर बदलाव होंगे। इसमें भारत 'सबसे बड़ा लूजर' साबित होने जा रहा है। अफगानिस्तान में जिस तरह के बदलाव होने जा रहे हैं, उससे खुद अमेरिका को भी बहुत नुकसान होगा। ऐसे में भारत का सक्रिय होना लाजिमी है। विदेशमंत्री एस. जयशंकर का अचानक उस ईरान पहुंचना जो तालिबान पर सर्वाधिक प्रभाव रखना दर्शाता है कि भारत तेजी से सक्रिय हुआ भी है। कतर और रूस से भी विदेशमंत्री की वार्ताएं हुई हैं। ईरान के राष्ट्रपति चुने गए इब्राहिम रईसी के साथ भी मुलाकात करने वाले किसी भी देश के पहले विदेश मंत्री जयशंकर ने चाबहार परियोजना पर भी बात की है। ईरान का रुख सकारात्मक भी रहा है। इसी मुलाकात के बाद अफगान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता का एक दौर हुआ है। हालांकि पाकिस्तान से तालिबान की नजदीकियों से चलते भारत की राह इतनी आसान नहीं दिखती। आने वाले समय में हम खतरे की खबरें पढ़ेंगे और सुनेंगे, यह आशंका निर्मूल नहीं लगती।
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