Thursday, April 11, 2019

पत्रकारों का लाइलाज 'दर्द-ए-दिल'

मीडिया से एक ही हफ्ते में दूसरी बुरी खबर है। ‘दैनिक जागरण’ मथुरा के महेश चौधरी के बाद ‘फोर्ब्स इंडिया’ की फाउंडर टीम के मेंबर केपी नारायण भी नहीं रहे। दोनों त्रासदियों की वजह एक ही है, दिल का रोग। दोनों का कम उम्र में ही छोडकर चले जाना भयावह संकेत दे रहा है कि मीडिया की दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं है। अनियमित जीवन असमय विराम ले रहा है, चकाचौंध युवाओं का जीवन लील रही है।
पिछले कुछ वर्षों में मीडिया का ग्लैमर बढ़ा है। नतीजतन, आईएएस-आईपीएस बनने का माद्दा रखने वाले मेधावी युवाओं का इसमें आगमन हुआ है। प्रतिभाएं अपना जलवा बिखेर रही हैं। महेश चौधरी को मैं जानता था। वह एक ईमानदार और लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त पत्रकार था। डेडलाइन में काम करने का आदी। प्रतिभा इतनी कि उसे हर खबर की गहराई पता होती थी और खबरें इतनी कि अकेले दम पर अखबार का काफी हिस्सा भर दे। डेस्क पर आने के बाद उसकी क्षमताएं और भी ज्यादा दिखीं। शब्दों पर पकड़ और सीखने की ललक से वह यहां भी कामयाब था। अचानक एक बुरी खबर आई। एक मीडिया वॉट्सऐप ग्रुप से पता चला कि महेश चला गया।
केपी की मृत्यु भी चिंतित और आश्चर्यचकित कर रही है। चिंता यह कि मीडिया में तनाव कहीं और दुष्प्रभाव न डालने लगे और आश्चर्य यह कि कामयाब होने पर भी क्या दबाव जानलेवा हो सकता है। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ से अपनी पत्रकारीय पारी की शुरुआत करने वाले केपी ने कई ख्यातिनाम मीडिया समूहों में खुद को साबित-स्थापित किया। ‘मिंट’ और ‘फोर्ब्स इंडिया’ की स्टार्ट अप टीमों में भी शामिल रहे। दिल की बीमारी की सबसे बड़ी वजह है अनियमित जीवनशैली और तनाव-दबाव। कुछ वक्त पर लक्षण पहचानकर इलाज करा लेते हैं तो कुछ इतना समय ही नहीं निकाल पाते कि इलाज भी करा पाएं।
तनाव के साथ ही असुरक्षा भी पत्रकारों को जीने नहीं दे रही। नहीं पता कि जाने कब नौकरी चली जाए। मुश्किल यह भी है कि मीडिया ऐसा उद्योग है, जहां छोटे निवेश से काम चलता नहीं और बड़े निवेश का रिटर्न आना और समय पर आ जाना, दोनों अनिश्चित हैं। पिछले दस साल की बात करें और सिर्फ आगरा जैसे उत्तर प्रदेश के एक मंडल का उदाहरण लें तो यहां तीन-चार अखबार लॉन्च हुए। पानी की तरह पैसा बहाकर भी यह अखबार टिक नहीं पाए और बंद हो गए। लागत और कमाई के ग्राफ में जमीन-आसमान सरीखा अंतर हिम्मत तोड़ देता है। ऊपर से, स्थापित मीडिया संस्थानों का बल चलने तो क्या, रेंगने भी नहीं देता। इसलिये पत्रकारों के लिए विकल्प कम हैं। यानी, नौकरी चली जाए तो दूसरी मिलना बहुत मुश्किल हो जाता है। ऊपर से कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मीडिया एजुकेशन संस्थान बड़े पैमाने पर हर साल पास आउट युवाओं को और भाड़ में झोंके जाने के लिए भेज देते हैं।
संस्थानों के पास उम्मीदवारों की भीड़ है, इसलिये उन्हें छंटनी से भी गुरेज नहीं होता। समस्या विकराल है। देश-दुनिया में अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले पत्रकार खुद शोषण के शिकार और अंदरूनी दर्द से बेहाल हैं। सरकारी स्तर पर संरक्षण की आवश्यकता है। हालांकि, इस संरक्षण में बाधा भी उनके अपने ही संस्थान हैं जो एकजुट होकर राहत मिलने नहीं देते।

https://www.samachar4media.com/vicharmanch-news/an-article-about-journalism-written-by-senior-journalist-anil-dixit-50398.html

No comments: