मैं हिंदू हूं। व्याकुल हूं, मेरी आस्था सन 1949 से कैद है। पहले लोहे के जालीदार दरवाजों में थी, और अब हाईकोर्ट होती हुई आपके शीर्ष कोर्ट की फाइलों में। अयोध्या में दो फीट चौड़े और सात फीट ऊंचे लोहे के पिंजड़ों में डेढ़ किलोमीटर चलकर पहुंचा हूं कल, निराशा हाथ लगी है। मेरे आराध्य भगवान श्रीराम बीस गुणा तीस फीट के तिरपाल में बैठे हैं। कुछ दिन पहले फटे-हाल तिरपाल था, और मुझ जैसे करोड़ों लोगों के जीवन का हर निर्णय लेने वाले भगवान जैसे असहाय। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, इसलिये मर्यादा में रहे और हैं शायद। भगवान कृष्ण कारागार में पैदा हुए और बाल रूप में श्रीराम को सैकड़ों बंदूकधारियों के घेरकर रखा गया है, पूरे क्षेत्र हजारों टन लोहे के जालों का अभेद्य दुर्ग है, जैसे दुनिया की सबसे सुरक्षित जेल। गेट से लेकर दर्शन तक मुझे बार-बार टटोला गया। मैं इस सुरक्षा तंत्र से भयभीत हुआ और यह मुझसे, कि कहीं मैं अकेले मंदिर बनाने तो नहीं आ गया। देश का तंत्र यह क्यों नहीं समझता कि मैं निरीह हूं। निरीह भक्त हूं, न कि एक अपराधी और न ही अकेले पूरा मंदिर बना डालने में सक्षम। यह क्यों नहीं समझा जाता कि राम के भक्त यदि बम-बंदूक वाले होते तो यह पिंजड़ा कब का उखाड़कर फेंक दिया गया होता और आज अपने देश में, अपनी जन्मस्थली में राम तिरपाल में नहीं होते।
देश की सरकार पर उम्मीद टिकाए आधी से ज्यादा उम्र गुजार दी मैंने। एक आतंकी को फांसी पर रात को खुल जाने वाले सुप्रीम कोर्ट से भी उम्मीदें हैं मेरी, जिसे यह मुद्दा शायद अहम नहीं दिखता। करोड़ों लोगों की आस्था इस सरकार और कोर्ट के लिए बेमानी-सी हैं जहां। मैं कल से सोच रहा हूं, क्या उस लोहे के पिजड़े में केवल रामलला की मूर्ति कैद है? वहां तो अयोध्या में सौ करोड़ लोगों का स्वाभिमान कैद है। अयोध्या में भारत की आस्था बंद है। अयोध्या में भारत कैद है। लगने लगता है कि अयोध्या में देश के संविधान में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता की बातें घुटन में हैं, दम तोड़ती लगती हैं। मेरे भगवान के जन्म की साक्षी अयोध्या बिना-किए का दंड भोग रही है। अयोध्या केवल राजनीतिक खेल का दंश झेल रही है, या हम सबने मिलकर उसकी यह दुर्गति की है, समझ नहीं आ रहा। जब पांच लाख लोगों ने अयोध्या के माथे से बाबरी का कलंक धोया था, तब सत्ता उनके साथ नहीं थी। लोकतांत्रिक भारत का सबसे बड़ा न्यायालय उनके साथ नहीं था। साथ था मात्र उनका साहस, साथ थी उनकी आस्था... वे माथे का कलंक धो सकते थे तो माथे का टीका भी लगाया जा सकता है। हम सत्ता के भरोसे हैं, जो सत्ता इन्हीं राम ने दी है। हम न्यायालय के भरोसे बैठे हैं।
हे राम, मुझे आपका मंदिर चाहिये। मुझे भव्य मंदिर में विराजमान रामलला देखने हैं। प्रभु दर्शन की लालसा पूरी करो मेरी।
देश की सरकार पर उम्मीद टिकाए आधी से ज्यादा उम्र गुजार दी मैंने। एक आतंकी को फांसी पर रात को खुल जाने वाले सुप्रीम कोर्ट से भी उम्मीदें हैं मेरी, जिसे यह मुद्दा शायद अहम नहीं दिखता। करोड़ों लोगों की आस्था इस सरकार और कोर्ट के लिए बेमानी-सी हैं जहां। मैं कल से सोच रहा हूं, क्या उस लोहे के पिजड़े में केवल रामलला की मूर्ति कैद है? वहां तो अयोध्या में सौ करोड़ लोगों का स्वाभिमान कैद है। अयोध्या में भारत की आस्था बंद है। अयोध्या में भारत कैद है। लगने लगता है कि अयोध्या में देश के संविधान में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता की बातें घुटन में हैं, दम तोड़ती लगती हैं। मेरे भगवान के जन्म की साक्षी अयोध्या बिना-किए का दंड भोग रही है। अयोध्या केवल राजनीतिक खेल का दंश झेल रही है, या हम सबने मिलकर उसकी यह दुर्गति की है, समझ नहीं आ रहा। जब पांच लाख लोगों ने अयोध्या के माथे से बाबरी का कलंक धोया था, तब सत्ता उनके साथ नहीं थी। लोकतांत्रिक भारत का सबसे बड़ा न्यायालय उनके साथ नहीं था। साथ था मात्र उनका साहस, साथ थी उनकी आस्था... वे माथे का कलंक धो सकते थे तो माथे का टीका भी लगाया जा सकता है। हम सत्ता के भरोसे हैं, जो सत्ता इन्हीं राम ने दी है। हम न्यायालय के भरोसे बैठे हैं।
हे राम, मुझे आपका मंदिर चाहिये। मुझे भव्य मंदिर में विराजमान रामलला देखने हैं। प्रभु दर्शन की लालसा पूरी करो मेरी।
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