
वेंगसरकर कोई आम क्रिकेटर नहीं हैं। वह अपने जमाने के शानदार बैट्समैन थे, जिनका वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ बहुत अच्छा रिकॉर्ड है। वेंगसरकर अकेले ऐसे गैर इंग्लिश क्रिकेटर हैं, जिन्होंने लॉर्डस पर तीन शतक लगाए हैं। 1983 में विश्व कप और उसके दो साल बाद विश्व चैंपियनशिप जीतने वाली टीमों के भी वह सदस्य थे। अब बताइये, क्रिकेट की बेहतरी के लिए उनसे ज्यादा कोई कैसे सोच सकता है? हालांकि यह भी तथ्य है कि वेंगसरकर और पूर्व क्रिकेटरों की उनकी चुनावी टीम को हराने में सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री जैसी क्रिकेट हस्तियों के लाभ भी आड़े आए थे। खेल संघों की कमान संभालने के पीछे दूसरी वजह पैसा भी है। सुरेश कलमाड़ी का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं कि किस तरह उन्होंने भारतीय ओलंपिक संघ में धींगामुश्ती की, राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी में जमकर धांधलियां की गईं। धांधली भी इतनी कि जो मॉस्किटो रैपेलेंट हम 80-85 रुपये में खरीद लेते हैं, वो राष्ट्रमंडल खेलों में प्रतिदिन 150 रुपये किराए पर ली गईं। क्या नहीं हुआ, सभी को पता है। इसके साथ ही खेल संघ अपने पदाधिकारियों की आयु सीमा तय करने पर भी आपत्ति जता रहे हैं जबकि खेल मंत्री का कहना है कि न्यायपालिका और नौकरशाही के लिए आयु सीमा होती है तो खेल संघों के पदाधिकारियों के क्यों नहीं। उन्होंने कहा कि यदि कोई किसी संगठन की अगुवाई करता रहेगा तो उसमें उसके स्वार्थ निहित होंगे। मल्होत्रा, फारुख आदि ज्यादातर नेता उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां निरंतर सक्रियता संभव नहीं हो पाती। फारुख जैसे नेता यदि सही रास्ते पर होते तो उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला को नहीं कहना पड़ता कि खेल संगठनों की अगुवाई कर रहे केंद्रीय मंत्रियों को स्पोर्ट्स बिल पर होने वाली चर्चा से अलग कर लेना चाहिए। उमर जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री हैं, कोई गैर अनुभवी नेता पुत्र नहीं जो उनकी बात को तवज्जो न दी जाए। एक समय था जबकि खेल संघों में नेताओं और सांसदों की जरूरत पड़ती थी क्योंकि तब संसाधन नहीं थे और सरकार तक आवाज पहुंचाने के लिए इन लोगों को चुना जाता था। बाद में उन्हें इसकी चाट लग गई। लेकिन अब समय बदल गया है। खेलों में कारपारेट जगत से पैसा आ गया है और ऐसे में पेशेवर और ऐसे लोगों को ही इनसे जुड़ना चाहिए जिन्हें खेल की अच्छी समझ हो। खिलाड़ी आगे आ रहे हैं, यह तो और भी अच्छा है। एक समाजसेवी के आमरण अनशन से हिली नेताओं की बिरादरी को समझ लेना चाहिये कि हालात बदल रहे हैं। ऐसा न हो, कि चीन-जापान में लग रहे पदकों से ढेर और यहां बेतरह खर्च के बावजूद पदकों के टोटे से आक्रोशित जनता खुलकर मैदान में न आ जाए। खुदा खैर करे, नेताओं की सदबुद्धि से देश का भी भला है।
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