Saturday, March 22, 2025

त्रिभाषा फॉर्मूले पर सकारात्मक भी सोचिए



भारत एक ऐसा देश है, जहां सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। इस भाषायी विविधता को बनाए रखना और उसे समाज के हर वर्ग के लिए लाभकारी बनाना एक बड़ी चुनौती है। भाषा सिर्फ संवाद का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक समरसता से भी जुड़ी हुई है। ऐसे में त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा संतुलित समाधान है, जो व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास, क्षेत्रीय जुड़ाव और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में सफलता के लिए आवश्यक है। यह फार्मूला मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा और एक करियर-उन्मुख भाषा को प्राथमिकता देता है, जिससे हर नागरिक भाषायी समावेशिता का हिस्सा बन सके।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस त्रिभाषा फार्मूले का जिक्र है। और इस पर तमिलनाडु की द्रमुक सरकार को आपत्ति है। द्रमुक का कहना है, 'यह दक्षिणी राज्यों पर हिंदी थोपने का प्रयास है। इसकी आड़ में केंद्र ने तमिलनाडु का शिक्षा मद का काफी पैसा रोक दिया है।' हालांकि सभी दक्षिणी राज्यों में विरोध नहीं है, आंध्र प्रदेश ने समर्थन किया है। विवादों से इतर यदि एक सकारात्मक सोच रखी जाए तो, कुछ अपेक्षाएं गलत नहीं।किसी भी व्यक्ति की प्रारंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में होना सबसे प्रभावी माना जाता है। मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि बच्चे जिस भाषा में सोचते और समझते हैं, उसी में उनका सीखने की गति सबसे अधिक होती है। मातृभाषा में शिक्षा न केवल बच्चे के बौद्धिक विकास को तेज करती है, बल्कि उसमें आत्मविश्वास और संप्रेषण कौशल को भी बेहतर बनाती है। कई विकसित देशों में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने पर जोर दिया जाता है, जिससे ज्ञान का अधिकतम विस्तार संभव हो सके। भारत में भी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 इस बात पर बल देती है कि बच्चों को कक्षा पाँच तक उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए, ताकि वे विषयों को बेहतर समझ सकें। त्रिभाषा फार्मूला यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा के साथ-साथ उस राज्य या क्षेत्र की भाषा भी सीखें, जहां वे निवास कर रहे हैं। यह पहल सामाजिक समरसता को बढ़ाने में सहायक होती है। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे राज्य में जाकर बसता है, तो वहां की भाषा सीखना उसे स्थानीय संस्कृति और समाज से जोड़ने में मदद करेगा। उदाहरण के लिए, अगर कोई उत्तर भारतीय तमिलनाडु में जाकर काम करता है और तमिल भाषा सीखता है, तो उसे स्थानीय लोगों के साथ घुलने-मिलने और व्यावसायिक अवसरों को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। इसी तरह, अगर कोई दक्षिण भारतीय हिंदी भाषी क्षेत्र में जाकर नौकरी करता है, तो हिंदी सीखकर वह अधिक सहजता से संवाद कर सकता है। इससे क्षेत्रीय मतभेद भी कम होते हैं और विभिन्न भाषाओं के प्रति सम्मान और सहिष्णुता विकसित होती है।

आज के वैश्वीकरण के दौर में एक अंतरराष्ट्रीय भाषा का ज्ञान व्यक्ति के करियर को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में मदद करता है। त्रिभाषा फार्मूला इस बात को भी ध्यान में रखता है कि व्यक्ति को अंग्रेज़ी या कोई अन्य वैश्विक भाषा सीखने का अवसर मिले। विशेष रूप से तकनीकी, चिकित्सा, अनुसंधान, व्यापार और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ी का उपयोग व्यापक रूप से किया जाता है। इसलिए, अंग्रेज़ी या अन्य महत्वपूर्ण भाषाओं का ज्ञान व्यक्ति को अधिक अवसर प्रदान करता है और उसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करता है। त्रिभाषा फार्मूला केवल शिक्षा और रोजगार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों के बीच संवाद की बाधा को भी कम करता है। जब लोग विभिन्न भाषाओं को सीखते और समझते हैं, तो यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है और क्षेत्रीय मतभेदों को कम करता है। भारत में विभिन्न राज्यों के लोग अक्सर भाषा की दीवारों के कारण एक-दूसरे से कटे हुए महसूस करते हैं। यदि उत्तर भारतीय लोग तमिल, कन्नड़ या मलयालम सीखें और दक्षिण भारतीय लोग हिंदी, मराठी या पंजाबी को समझें, तो यह न केवल सौहार्द को बढ़ाएगा, बल्कि आपसी विश्वास और सहयोग को भी मजबूत करेगा।

भारत जैसे विशाल और बहुभाषी देश में भाषा को एकता और विकास का माध्यम बनाने की जरूरत है, न कि विवाद का कारण। भाषा को लेकर अनावश्यक राजनीति करने की बजाय इसे शिक्षा, रोजगार और सामाजिक जुड़ाव का साधन बनाना चाहिए। त्रिभाषा फार्मूला इस दृष्टि से एक समावेशी समाधान प्रस्तुत करता है, जिससे व्यक्ति अपनी मातृभाषा में सोच सके, क्षेत्रीय भाषा में संवाद कर सके और करियर की भाषा में सफलता प्राप्त कर सके।इस नीति का सही तरीके से क्रियान्वयन किया जाए, तो यह न केवल भाषायी सौहार्द को बढ़ाएगा, बल्कि देश को अधिक समावेशी, शिक्षित और सशक्त बनाने में भी मदद करेगा। जब भारत का हर नागरिक अपनी भाषा की जड़ों से जुड़ा रहेगा, क्षेत्रीय विविधता को अपनाएगा और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार होगा, तभी यह नीति अपनी वास्तविक सफलता प्राप्त कर सकेगी।

लंबित मुकदमे और जजों की कमी: न्याय में बड़ी बाधा

रत में न्यायपालिका की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या और न्यायाधीशों की भारी कमी है। देश के नागरिकों को न्याय मिलने में वर्षों लग जाते हैं, और कई मामलों में तो पीढ़ियां बीत जाती हैं, लेकिन इंसाफ नहीं मिल पाता। अदालतों में पड़े करोड़ों मुकदमे और अपर्याप्त न्यायिक व्यवस्था देश की न्याय प्रणाली की धीमी गति को दर्शाते हैं। "न्याय में देरी, अन्याय के समान है"—यह कहावत भारतीय न्याय व्यवस्था की मौजूदा स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठती है।

देशभर की अदालतों में पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से कई दशकों से फैसले का इंतजार कर रहे हैं। इनमें दीवानी, आपराधिक, प्रशासनिक और सरकारी मुकदमों की बड़ी संख्या शामिल है। सुप्रीम कोर्ट में लगभग सत्तर हजार से अधिक मामले लंबित हैं, उच्च न्यायालयों में यह संख्या साठ लाख से ज्यादा है, और सबसे अधिक मामले निचली अदालतों में अटके हुए हैं। यह आंकड़े केवल संख्याएं नहीं हैं, बल्कि उन लाखों लोगों की पीड़ा को दर्शाते हैं, जो सालों से न्याय की आस लगाए बैठे हैं। मुकदमों के बढ़ते बोझ का एक बड़ा कारण न्यायाधीशों की भारी कमी भी है। भारत में प्रति दस लाख नागरिकों पर महज उन्नीस से बीस न्यायाधीश हैं, जबकि विकसित देशों में यह संख्या पचास से अधिक होती है। न्यायाधीशों की यह कमी मुकदमों की सुनवाई में देरी का एक अहम कारण बनती जा रही है। अदालतों में खाली पड़े जजों के पदों को भरने की प्रक्रिया धीमी है, और कई बार राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से नियुक्तियों में अनावश्यक देरी होती रहती है।

इसके अलावा, न्यायिक प्रणाली में कई खामियां भी हैं, जो मुकदमों को लंबा खींचने का काम करती हैं। वकीलों द्वारा बार-बार स्थगन (adjournment) लेना, सरकारी मामलों का अदालतों में बढ़ता बोझ, दस्तावेजी प्रक्रियाओं में जटिलता, और न्यायालयों में बुनियादी ढांचे की कमी जैसी समस्याएं अदालतों की धीमी कार्यप्रणाली को और बाधित करती हैं। हालांकि, सरकार और न्यायपालिका इस समस्या को हल करने के लिए प्रयास कर रही हैं। फास्ट-ट्रैक कोर्ट, ई-कोर्ट्स, ऑनलाइन सुनवाई, और न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में तेजी लाने जैसे कई सुधार किए गए हैं। इसके अलावा, मध्यस्थता (arbitration) और वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolution) को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे छोटे मामलों को अदालतों तक जाने से पहले ही निपटाया जा सके।

लेकिन समस्या इतनी जटिल है कि केवल इन उपायों से इसे पूरी तरह हल नहीं किया जा सकता। सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को और तेज करना होगा और न्यायालयों की क्षमता बढ़ानी होगी। तकनीकी विकास के माध्यम से अदालतों के कामकाज को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। साथ ही, सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि अनावश्यक मुकदमों की संख्या कम की जाए, खासकर सरकारी विभागों द्वारा दायर किए जाने वाले मुकदमों को सीमित करने की जरूरत है। भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार अब एक विकल्प नहीं, बल्कि समय की मांग बन चुकी है। न्याय मिलने में देरी केवल एक कानूनी समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास को भी बाधित करती है। यदि अदालतों का बोझ कम नहीं किया गया और न्यायाधीशों की संख्या नहीं बढ़ाई गई, तो आने वाले वर्षों में यह संकट और गहरा सकता है। 

न्यायपालिका और सरकार को मिलकर एक ठोस योजना बनानी होगी, ताकि हर नागरिक को समय पर और प्रभावी न्याय मिल सके।

प्रवासियों को लेकर बवंडर


अमेरिका के बाद अब यूरोप में भी प्रवासियों को लेकर बवंडर खड़े होने लगे हैं। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में बसे अन्य देशों के प्रवासियों के बीच गहरी चिंता घर कर गई है कि कहीं ग्रीन कार्ड निरस्त करने की घोषणा जल्द ही साकार न हो जाए। इस बेचैनी की लहर अब यूरोप तक पहुंच चुकी है, जहां विदेशी प्रवासियों की बढ़ती संख्या से स्थानीय नागरिकों के बीच असंतोष गहराने लगा है।


प्रवासियों की यह अनिश्चित स्थिति भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक नई चुनौती बन सकती है। वर्षों से भारतीय प्रतिभाएं विदेशों में जाकर अपने कौशल और मेहनत से उन देशों की अर्थव्यवस्था और तकनीकी प्रगति में योगदान दे रही थीं। अगर ये प्रतिभाएं बड़े पैमाने पर स्वदेश लौटती हैं तो भारत को एक ओर 'ब्रेन गेन' का फायदा मिल सकता है, लेकिन दूसरी ओर इतनी बड़ी संख्या में कुशल पेशेवरों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना सरकार के लिए कठिन चुनौती हो सकता है। असल में, सभी बड़े और विकसित देशों ने विदेशी प्रतिभाओं के सहारे ही अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया है। प्रवासी डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक और अन्य विशेषज्ञों ने इन देशों के विकास में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन इन देशों के मूल निवासी हमेशा से इस स्थिति को लेकर असहज रहे हैं। उनका मानना है कि प्रवासियों की बढ़ती संख्या से उनके रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं और उनकी सांस्कृतिक पहचान भी खतरे में पड़ रही है। यही नाराजगी समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर विस्फोटक रूप लेती रही है।

अब सवाल यह उठता है कि अगर प्रवासियों के खिलाफ ये रुझान मजबूत होता है और बड़ी संख्या में लोग स्वदेश लौटने पर मजबूर होते हैं, तो इससे भारत जैसे देशों की स्थिति पर क्या असर पड़ेगा? क्या भारत में उनके कौशल और अनुभव का सही उपयोग हो सकेगा? या फिर यह प्रवासी लहर देश के भीतर बेरोजगारी और असंतोष को और बढ़ा देगी? इसके अलावा, भारत जैसे देश में स्थानीय स्तर पर भी प्रतिभाएं पहले से ही अपना वर्चस्व जमा चुकी हैं। तकनीकी, चिकित्सा, शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में पहले से ही घरेलू स्तर पर मजबूत प्रतिस्पर्धा है। ऐसे में विदेश से लौटने वाले पेशेवरों के लिए यहां नई जगह बनाना आसान नहीं होगा। अगर वे अपने अनुभव और कौशल के बल पर यहां स्थापित भी हो जाते हैं, तो इससे स्थानीय प्रतिभाओं के लिए नए संघर्ष का दौर शुरू हो सकता है। इससे सामाजिक असंतोष और तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है।

हालांकि, छोटे परिवारों के माता-पिता के लिए यह स्थिति थोड़ी राहत भरी हो सकती है। वे वर्षों से इस दर्द को झेल रहे हैं कि उनके बच्चे विदेशों में जाकर बस गए और वे यहां अकेलेपन का जीवन जीने को मजबूर हैं। अगर उनके बच्चे अब स्वदेश लौटते हैं, तो इससे पारिवारिक संबंध मजबूत हो सकते हैं और बुजुर्गों को मानसिक और भावनात्मक सहारा मिल सकता है। लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती। यदि विदेशों से लौटने वाले लोग भारत की सामाजिक और कार्य संस्कृति में खुद को ढाल नहीं पाए, तो इससे उनके भीतर कुंठा और असंतोष पनप सकता है। विदेशों में एक उन्नत और व्यवस्थित जीवनशैली के बाद भारत की कार्य संस्कृति, नौकरशाही और सामाजिक ताने-बाने में सामंजस्य बैठाना उनके लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इससे उनमें गहरी निराशा और मानसिक तनाव उत्पन्न हो सकता है, जो आगे चलकर सामाजिक अशांति और तनाव का कारण बन सकता है।

इसके अलावा, लौटने वाले पेशेवरों की ऊंची अपेक्षाएं भी समस्या बन सकती हैं। विदेशों में उच्च वेतन, बेहतर जीवनशैली और सुविधाओं के आदी हो चुके लोग जब यहां सीमित संसाधनों और अवसरों से रूबरू होंगे, तो इससे उनकी नाराजगी और हताशा और बढ़ सकती है। इसका असर सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ सकता है। सबसे बड़ी चुनौती उन अप्रवासियों के लिए है, जिन्होंने विदेशों में अपना पूरा जीवन बिता दिया है। दो-चार साल से विदेश में गए लोगों की स्थिति फिर भी संभल सकती है, क्योंकि उनके लिए भारत लौटकर खुद को दोबारा स्थापित करना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है। लेकिन जिन लोगों ने वहां अपना घर-परिवार बसा लिया है, स्थायी संपत्ति खरीद ली है और अपने बच्चों को वहां की शिक्षा व्यवस्था और जीवनशैली में ढाल लिया है, उनके लिए स्वदेश लौटना एक बड़ा आघात साबित हो सकता है।

विदेशों में दशकों से रह रहे इन अप्रवासियों ने वहां की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में खुद को पूरी तरह ढाल लिया है। उनके बच्चों की शिक्षा, करियर और भविष्य की योजनाएं वहां की व्यवस्था पर निर्भर हैं। अगर ऐसे लोगों को मजबूर होकर स्वदेश लौटना पड़ा, तो यह उनके लिए मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद कठिन होगा। उनके लिए भारत लौटकर खुद को यहां के माहौल में ढालना केवल पेशेवर चुनौती ही नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक चुनौती भी होगी। उनके बच्चों के लिए यहां की शिक्षा प्रणाली और सांस्कृतिक माहौल में ढलना आसान नहीं होगा। इससे उनके भीतर असंतोष और तनाव गहराएगा, जिसका असर उनके पारिवारिक जीवन और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ सकता है। भविष्य की तस्वीर अभी धुंधली है, लेकिन इतना तय है कि वैश्विक राजनीति में प्रवासियों का मुद्दा आने वाले समय में और अधिक गरमाएगा। इस स्थिति से निपटने के लिए न सिर्फ विकसित देशों को संतुलित नीति अपनानी होगी, बल्कि भारत जैसे देशों को भी अपने यहां लौटने वाले प्रवासियों के लिए एक ठोस रणनीति तैयार करनी होगी। रोजगार के नए अवसरों का सृजन, सामाजिक समायोजन की नीति और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ही इस चुनौती से निपटने का सही तरीका हो सकता है। तभी इस स्थिति को अवसर में बदला जा सकेगा।

अंततः, सवाल यही है- क्या प्रवासी भारतीयों के लिए स्वदेश लौटना एक सुनहरा अवसर होगा या एक नई चुनौती? यह जवाब भविष्य के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक घटनाक्रम पर निर्भर करेगा।