Tuesday, July 10, 2012
मर्यादा के पार ठाकरे के शब्द
अपनी कड़वी जुबान के लिए सदैव चर्चा में रहने वाले शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने इस बार प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को राजनीतिक रूप से नपुंसक बताया है। ठाकरे ने शब्दों की मर्यादा का पहली बार उल्लंघन नहीं किया है। पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम उनके निशाने पर थे। अपनी पुस्तक में यह कहने पर कि मैं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने वाला मैं नहीं था, ठाकरे ने जुबानी हमला बोला था कि कलाम के इस बयान से उनका ही चीरहरण हुआ है। वे मिसाइल मैन नहीं खोखले कलाम हैं। किसी पर भी टिप्पणी कर देना ठाकरे की आदत में शुमार है। वह बोलते समय सोचते नहीं। कहा जाता है कि वह चर्चा बटोरने के लिए तीखा बोलते हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवाने वाली शिव सेना का जनाधार सिद्ध होने वाले लोग ठाकरे की इसी शैली को पसंद करते हैं। खुद को कट्टर हिंदू कहने वाला यह बुजुर्ग नेता मतलबपरस्त इतना है कि अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं भी भूलने से नहीं हिचकता और राष्ट्रपति चुनाव में अपनी कट्टर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस का समर्थन कर देता है। वैसे तो आज के दौर का कोई भी नेता बदज़ुबानी में किसी से पीछे नहीं है। मुलायम, लालू की हल्की बातों को मीडिया ने अपने फ़ायदे के लिये खूब भुनाया और उसके चटखारों से खूब मजमा जुटाया। मगर क्या मीडिया की हिमायत इनकी छिछली टिप्पणियों को जायज़ ठहरा सकती है? कांग्रेस में भी सत्यव्रत चतुर्वेदी, दिग्विजय सिंह, मनीष तिवारी जैसे महारथियों की भरमार है,जो अपने काम से ज़्यादा ओछी टीका-टिप्पणियों के लिए सुर्खियां बटोरते हैं। वैसे नेताओं को समझना होगा कि सार्वजनिक जीवन में आचार-व्यवहार की मर्यादाओं का ध्यान रखना ही चाहिये। हल्के शब्द तात्कालिक तौर पर फ़ायदा देते दिखाई ज़रूर देते हैं,लेकिन ये ही शब्द व्यक्तित्व की गुरुता को घटाते भी हैं। "ज़ुबान की फ़िसलन" राजनीति की रपटीली ज़मीन पर बेहद घातक साबित हो सकती है। बड़बोले नेताओं का हश्र देश पहले ही देख चुका है। यह शब्दों की मर्यादा ही है, जो किसी भी नेता के कद को घटाने-बढ़ाने में सहायक होती है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से इस बारे में आज के नेता सीख ले सकते हैं। राजनीति में लंबा समय गुजारने के बावजूद इन नेताओं ने कभी ऎसे शब्द नहीं कहे, जिससे उन्हें या उनकी पार्टी को शर्मिदा होना पड़ा हो। माना कि राजनीति का यह दौर टकराहट भरा है और हरेक राजनीतिक दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगा है, फिर भी एक लक्ष्मण रेखा तो ऎसी होनी ही चाहिए, जिसे लांघने की कोशिश कोई न करे।
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