करीब सौ कंपनियों, मार्केट वैल्यू 77.44 अरब, 3796 अरब आय, 80 से अधिक देशों में सक्रिय सवा लाख कर्मचारियों के परिवार 'टाटा' को अपना नया मुखिया मिल गया। सापुरजी पालोनजी समूह के प्रबंध निदेशक सायरस पी मिस्त्री रतन टाटा के उत्तराधिकारी होंगे जो दिसम्बर 2012 में पद छोड़ने वाले हैं। सायरस की उम्र मात्र 43 साल है। सापुरजी पालोनजी ग्रुप की टाटा संस में 18.4 प्रतिशत हिस्सेदारी है। चार जुलाई 1968 को जन्मे सायरस ने लंदन बिजनेस स्कूल से मास्टर ऑफ साइंस इन मैनेजमेंट की डिग्री ली है। 1991 में जेआरडी टाटा से पदभार संभालने वाले रतन ने कोरस स्टील और जगुआर लैंड रोवर का अधिग्रहण कर इस कंपनी को दुनिया के नक्शे पर ला दिया। यह वह कंपनी है जिसने देश में पहली बार निजी क्षेत्र की एयरलाइंस शुरू की। रतन टाटा जब टाटा संस के चेयरमैन बने थे तो उनके समक्ष बड़ी चुनौती थी। उन्हें जेआरडी टाटा जैसे व्यक्तित्व को पार करना था। इसमें उन्होंने सफलता पायी और रतन टाटा ने टाटा सन्स को देश से लेकर विदेशों में पहुंचा दिया। यह वह कंपनी बन गई जिसकी 58 प्रतिशत आय देश के बाहर से होती है। टाटा समूह के लंबे-चौड़े बायोडाटा पर चर्चा करने का वक्त हमें उस वक्त मिल रहा है जबकि देश की अर्थव्यवस्था में धीमी दर से मंदी की दस्तक सुनाई दे रही है। रुपया गिरावट के रास्ते पर है और यूरोप में आर्थिक संकट से आधी से ज्यादा दुनिया दहशत में है।
सायरस का सबसे पहले सामना स्टील की बढ़ती कीमतों से होने जा रहा है। उन्हें सोचना होगा कि कैसे सस्ती स्टील का उत्पादन बढ़ाया जाए और कैसे भारत में उसकी खपत बढ़े। टाटा की पहचान स्टील की गुणवत्ता से भी है, ऐसे में यह देखने का दायित्व भी है कि अच्छी क्वालिटी के साथ ही सस्ती कीमतें ग्राहकों के समक्ष परोसी जाएं। केंद्रीय इस्पात मंत्रालय कह रहा है कि भारत में इस्पात खपत बढ़ाने की संभावनाएं उज्ज्वल हैं। लेकिन कैसे, यह देखना कंपनियों का काम है। बेशक, सायरस पर यह जिम्मा सर्वाधिक है। कंपनी पर यूरोपीय देशों के संकट का असर कम से कम पड़े, यह भी उन्हें ही देखना है। टाटा स्टील के विस्तारीकरण का कार्य रतन टाटा के नेतृत्व में आरंभ हुआ है जिसे अंजाम तक पहुंचाना है। आटोमोटिव क्षेत्र में आम आदमी की कार 'नैनो' की बुकिंग कम हुई है, जबकि प्रतिस्पर्धी कोई ब्रांड अभी तक बाजार में नहीं आया है। कार के गुण बढ़ाने के बावजूद कायम रही ये चिंता समूह में सबसे ऊपर है। कॉमर्शियल वाहनों के बाजार का दायरा विदेशों तक पहुंचाने का प्रोजेक्ट भी एक चुनौती से कम नहीं, ऐसे में जबकि कई विदेशी बाजार संकटग्रस्त हैं। अभी कई काम है, जो साइरस मिस्त्री नहीं जानते। टाटा मोटर्स, टाटा स्टील, टाटा टी, टाटा से संबंधित कई तरह के प्रोडक्ट है, जिनकी जानकारी अभी होनी बाकी है। रतन अभी एक साल से ज्यादा समय तक कंपनी के साथ हैं, उनके ट्रेनर की भूमिका में हैं। रतन टाटा के साथ उनको काफी समय देना होगा, जिसके बाद ही उनको कई तरह की जानकारियां हो सकेंगी। टाटा संस के निदेशक रहे डॉ. जेजे ईरानी कहते हैं कि कम उम्र के व्यक्ति के चयन से कंपनी में ऊर्जा बढ़ेगी। बेशक, रतन टाटा और मिस्त्री में उम्र का अंतर है, लेकिन जब कोई काम साथ में करता है तो अंतर नहीं होता। सायरस ने स्वीकार भी किया है कि चुनौतियां हैं। समूह के मूल्यों और मानदंडों को ध्यान में रखते हुए मैं इस जिम्मेदारी को बहुत गंभीरता से लेता हूं। भविष्य में हितों के टकराव का कोई मुद्दा नहीं आए, इसके लिए मैं मेरे पारिवारिक कारोबार के प्रबंधन से खुद को कानूनी रूप से अलग करूंगा। मुङो पता है कि मेरे पास एक महान विरासत की बड़ी जिम्मेदारी होगी। समूह के साथ ही देश के हित में भी है कि सायरस जल्दी सीखें। उनकी कामयाबी में देश की प्रतिष्ठा जो छिपी है।
***एक के अतिरिक्त किसी चेयरमैन का कोई वारिस नहीं***
टाटा ग्रुप की इस हकीकत के बारे में बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि टाटा ग्रुप में इनके फाउंडर चेयरमैन के अलावा किसी भी चेयरमैन के कोई वारिस नहीं था। टाटा कंपनी की स्थापना जमशेदजी नुसेरवांजी टाटा ने की थी उन्होंने अपनी 1887 में एक पार्टनरशिप फर्म टाटा एंड संस की स्थापना की 1904 में उनके निधन के बाद उनके बड़े बेटे सर दोराबजी टाटा ने इसकी कमान संभाली और उन्होंने 8 नवंबर 1917 में कंपनी का नाम बदलकर टाटा संस एंड कंपनी कर दिया। लेकिन 1932 में उनकी भी मौत हो गई उनके कोई औलाद नहीं थी जमशेदजी की वसीयत के मुताबिक टाटा कंपनी का चेयरमैन उनकी बहन के बड़े लड़के सर नॉवरोजी सकटवाला को बनाया गया। सर नॉवरोजी सकटवाला की 1938 में मृत्यु के बाद जेआरडी टाटा को टाटा ग्रुप का वारिस बनाया गया। जेआरडी टाटा जमशेदजी टाटा के कसन के लड़के थे उन्होने भारत की पहली कमर्शियल एयरलाइंस की शुरुआत 1932 में की थी। लेकिन जिस तरह से दोराबजी टाटा और नॉवरोजी टाटा के कोई औलाद नहीं थी उसी तरह से जेआरडी टाटा के भी कोई बच्चा नहीं था। 1991 में रतन टाटा को ग्रुप चैयरमेन बनाया गया रतन टाटा नवल टाटा के बेटे थे। नवल टाटा को जमशेदजी टाटा के दूसरे बेटे ने गोद लिया था। रतन टाटा को जेआरडी टाटा ने 1981 में ही टाटा ग्रुप की कमान सौंपने का फैसला कर लिया था। रतन टाटा के भी कोई बच्चा नहीं है क्योंकि उन्होंने शादी ही नहीं की है।
Thursday, November 24, 2011
Monday, November 21, 2011
16 मिनट में लोकतंत्र का 'किडनैप'
लोकतंत्र की एक बार फिर अग्निपरीक्षा हुई। विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लिये बैठा रहा, 20 करोड़ लोग तकते रहे और सिर्फ 16 मिनट में दो बड़े फैसले कर लिये गए। 21 नवम्बर 2011 को उत्तर प्रदेश की विधानसभा में लोकतंत्र ताकता रह गया, दोपहर के 12 बजकर बीस मिनट पर स्थगित सदन की कार्यवाही शुरू हुई, विपक्षी हंगामा मचाने लगे। विपक्ष चाहती था कि विधानसभा में राज्य की क़ानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बहस हो। सपा और भाजपा चाहती थी कि अविश्वास प्रस्ताव लाया जाए। हंगामा चल ही रहा था कि वित्तमंत्री लालजी वर्मा ने आनन-फानन में सत्तर हजार करोड़ का लेखानुदान का प्रस्ताव पटल पर रखा, हो-हल्ले के बीच यह पारित हो गया। एक और प्रस्ताव आया, वह भी पारित हुआ। इसी बीच 12 बजकर 25 मिनट पर मुख्यमंत्री मायावती ने राज्य के चार हिस्सों में बंटवारे का प्रस्ताव रखा। अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने घोषणा कर दी कि तीनों प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित कर दिए गए हैं। चलिये, इसके बाद भी गनीमत तब होती जब सदन इसके बाद चलता लेकिन दुस्साहस आगे भी चला और संसदीय कार्यमंत्री के प्रस्ताव पर सदन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। विधानसभा की पूरी कार्यवाही महज 16 मिनट में संपन्न हो गई। राज्य विधानसभा हो या देश की लोकसभा राज्यसभा, चुने हुए नुमाइंदे जनता बने-बनाए नियमों पर चलने के लिए बाध्य हैं। नियम यह है कि प्रश्नकाल के बाद अध्यक्ष राजभर को मामले में राय देनी चाहिये थी। अविश्वास प्रस्ताव पर उऩका मत आना चाहिये था। विपक्ष ने जब अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था तो उस पर विचार होना चाहिये था। लेखानुदान जैसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर व्यापक चर्चा का प्रावधान है लेकिन सदन जैसे सत्तादल की बंधक थी। कुछ नियम से हुआ ही नहीं जो हुआ वह नियमानुसार नहीं होना चाहिये था।
आश्चर्य की बात यह है कि सदन की यह महत्वपूर्ण बैठक उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने के राज्य सरकार के प्रस्ताव पर चर्चा करने के लिए देश-दुनिया प्रतीक्षारत थी। बेशक, राज्य के विभाजन का यह प्रस्ताव मायावती का सियासी पैंतरा है और लोगों का ध्यान असल मुद्दों से हटाने की कोशिश है लेकिन राज्य में चर्चाओं के दौर भी चलने लगे हैं। लोगों में जिज्ञासा है कि नए बनने वाले बुंदेलखण्ड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल की राजधानी कौन से शहर बनेंगे। आगरा और मेरठ में अधिवक्ता लंबे समय से उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के लिए आंदोलनरत हैं, वहां यह भी इंतजार है कि राजधानी के साथ ही नए राज्य का हाईकोर्ट कहां स्थापित होगा? सदन में चर्चा होती तो लोगों को यह भी पता लगता कि उनके वर्तमान नुमाइंदे इन मुद्दों पर कैसा रुख रखते हैं? यदि सरकार इस मुद्दों पर सियासी वजहों से लाई थी तो उसके लिए भी यह अच्छा होता कि वह चर्चा कराती। इससे वहां उसे लाभ मिलता जहां अन्य दलों के विधायक हैं। हो सकता है कि छोटे राज्यों के गठन की हिमायत करने वाली भारतीय जनता पार्टी सदन में असमंसज में फंस जाती। राज्यों के विभाजन की घोर विरोधी समाजवादी पार्टी के लिए भी चर्चा गले की फांस साबित होने वाली थी। जहां तक कांग्रेस की बात है, वह पहले ही तेलंगाना को अलग राज्य न बना पाने की वजह से सियासी बवंडर में फंसी है और यहां भी उसके लिए रास्ता आसान नहीं होता। बसपा के इस रवैए से विपक्षी दल मजबूत हुए हैं। बसपा जब चुनावी समर में नए राज्यों के प्रस्ताव पर राजनीति करेगी तो विपक्षी दल यह कहकर उसके इस अस्त्र को काटने में सफल हो जाएंगे कि सरकार की नीयत साफ होती तो राजधानी, संसाधनों के बंटवारे जैसे अहम मुद्दों पर विधानसभा में चर्चा कराती। हालांकि मायावती के इस रवैए के कारण हैं। राज्य में जिस तरह से विधायकों-मंत्रियों के विरुद्ध आरोप लगने और सिद्ध होने शुरू हुए हैं, बसपा में स्थितियां खराब हो गई हैं। विधायक टिकट कटने के डर से अन्य दलों की ओर ताक रहे हैं। यह विधायक विधानसभा में मायावती का सिरदर्द बनने वाले थे। बाबू सिंह कुशवाहा जैसे कद्दावर नेता की बगावत से बसपा ज्यादा असहज हुई है। कुशवाहा के समर्थक विधायकों का बड़ा गुट विधानसभा में गुल खिला सकता था। मायावती ने तो फिलहाल सिरदर्द से बचाव करते हुए सरकार बचा ली लेकिन इस अग्निपरीक्षा में लोकतंत्र एक दफा फिर कमज़ोर साबित हुआ है।
आश्चर्य की बात यह है कि सदन की यह महत्वपूर्ण बैठक उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने के राज्य सरकार के प्रस्ताव पर चर्चा करने के लिए देश-दुनिया प्रतीक्षारत थी। बेशक, राज्य के विभाजन का यह प्रस्ताव मायावती का सियासी पैंतरा है और लोगों का ध्यान असल मुद्दों से हटाने की कोशिश है लेकिन राज्य में चर्चाओं के दौर भी चलने लगे हैं। लोगों में जिज्ञासा है कि नए बनने वाले बुंदेलखण्ड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल की राजधानी कौन से शहर बनेंगे। आगरा और मेरठ में अधिवक्ता लंबे समय से उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के लिए आंदोलनरत हैं, वहां यह भी इंतजार है कि राजधानी के साथ ही नए राज्य का हाईकोर्ट कहां स्थापित होगा? सदन में चर्चा होती तो लोगों को यह भी पता लगता कि उनके वर्तमान नुमाइंदे इन मुद्दों पर कैसा रुख रखते हैं? यदि सरकार इस मुद्दों पर सियासी वजहों से लाई थी तो उसके लिए भी यह अच्छा होता कि वह चर्चा कराती। इससे वहां उसे लाभ मिलता जहां अन्य दलों के विधायक हैं। हो सकता है कि छोटे राज्यों के गठन की हिमायत करने वाली भारतीय जनता पार्टी सदन में असमंसज में फंस जाती। राज्यों के विभाजन की घोर विरोधी समाजवादी पार्टी के लिए भी चर्चा गले की फांस साबित होने वाली थी। जहां तक कांग्रेस की बात है, वह पहले ही तेलंगाना को अलग राज्य न बना पाने की वजह से सियासी बवंडर में फंसी है और यहां भी उसके लिए रास्ता आसान नहीं होता। बसपा के इस रवैए से विपक्षी दल मजबूत हुए हैं। बसपा जब चुनावी समर में नए राज्यों के प्रस्ताव पर राजनीति करेगी तो विपक्षी दल यह कहकर उसके इस अस्त्र को काटने में सफल हो जाएंगे कि सरकार की नीयत साफ होती तो राजधानी, संसाधनों के बंटवारे जैसे अहम मुद्दों पर विधानसभा में चर्चा कराती। हालांकि मायावती के इस रवैए के कारण हैं। राज्य में जिस तरह से विधायकों-मंत्रियों के विरुद्ध आरोप लगने और सिद्ध होने शुरू हुए हैं, बसपा में स्थितियां खराब हो गई हैं। विधायक टिकट कटने के डर से अन्य दलों की ओर ताक रहे हैं। यह विधायक विधानसभा में मायावती का सिरदर्द बनने वाले थे। बाबू सिंह कुशवाहा जैसे कद्दावर नेता की बगावत से बसपा ज्यादा असहज हुई है। कुशवाहा के समर्थक विधायकों का बड़ा गुट विधानसभा में गुल खिला सकता था। मायावती ने तो फिलहाल सिरदर्द से बचाव करते हुए सरकार बचा ली लेकिन इस अग्निपरीक्षा में लोकतंत्र एक दफा फिर कमज़ोर साबित हुआ है।
Wednesday, August 31, 2011
केंद्रीय मंत्रियों की दादागिरी
इसे दादागिरी नहीं कहें तो क्या कहें? केंद्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक में मंत्रियों के एक गुट ने कृषि मंत्री शरद पवार की अगुवाई में राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटवा दिया। अब खेल मंत्रालय पवार की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए नए तरीके से विधेयक तैयार कर कैबिनेट में लाएगा। यह विधेयक देश के खेल संघों में पारदर्शिता लाने की मंत्रालय की कवायद का एक अंग था। खेलमंत्री अजय माकन इन खेल संघों को लाइऩ पर लाने के लिए लंबे समय से दुरूह कोशिश में लगे हैं। इस गुट में वह मंत्री शामिल हैं जो विभिन्न खेल संघों से जुड़े हैं। पवार भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे हैं और क्रिकेट की दुनिया की ताकतवर लॉबी का नेतृत्व करते हैं। कमलनाथ, सीपी जोशी, विलासराव देशमुख, प्रफुल्ल पटेल, फारुक अब्दुल्ला, राजीव शुक्ला जैसे कई नेताओं भी विरोध के इस रास्ते पर थे। जोशी राजस्थान क्रिकेट बोर्ड तो विलासराव मुंबई क्रिकेट बोर्ड तथा फारुक अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर किक्रेट बोर्ड में, जबकि पटेल भारतीय फुटबाल संघ में बतौर अध्यक्ष काबिज हैं। वहीं, संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के उपाध्यक्ष हैं। विपक्ष के कई नेता भी इस सूची में शामिल हैं। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, भाजपा के वरिष्ठ नेता विजय कुमार मल्होत्रा भी इसी कतार में हैं। जेटली दिल्ली क्रिकेट संघ से जुड़े हैं और मल्होत्रा तो सुरेश कलमाड़ी के हटाए जाने के बाद भारतीय ओलम्पिक संघ में सबसे प्रभावशाली हस्ती बने हुए हैं। मल्होत्रा भारतीय तीरंदाजी संघ, सुखदेव सिंह ढींढसा साईकिलिंग संघ और कैप्टेन सतीश शर्मा एयरो क्लब के प्रमुख हैं। नेताओं में खेल संघों की कमान संभालना जैसे एक शौक की तरह है। इसी वजह से खिलाड़ी खेल की बेहतरी के लिए कुछ नहीं कर पाते और दिलीप वेंगसरकर की तरह चुनाव हार जाते हैं। वेंगसरकर को मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन (एमसीए) के अध्यक्ष के चुनाव में केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख के हाथों हार का सामना करना पड़ा था।
वेंगसरकर कोई आम क्रिकेटर नहीं हैं। वह अपने जमाने के शानदार बैट्समैन थे, जिनका वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ बहुत अच्छा रिकॉर्ड है। वेंगसरकर अकेले ऐसे गैर इंग्लिश क्रिकेटर हैं, जिन्होंने लॉर्डस पर तीन शतक लगाए हैं। 1983 में विश्व कप और उसके दो साल बाद विश्व चैंपियनशिप जीतने वाली टीमों के भी वह सदस्य थे। अब बताइये, क्रिकेट की बेहतरी के लिए उनसे ज्यादा कोई कैसे सोच सकता है? हालांकि यह भी तथ्य है कि वेंगसरकर और पूर्व क्रिकेटरों की उनकी चुनावी टीम को हराने में सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री जैसी क्रिकेट हस्तियों के लाभ भी आड़े आए थे। खेल संघों की कमान संभालने के पीछे दूसरी वजह पैसा भी है। सुरेश कलमाड़ी का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं कि किस तरह उन्होंने भारतीय ओलंपिक संघ में धींगामुश्ती की, राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी में जमकर धांधलियां की गईं। धांधली भी इतनी कि जो मॉस्किटो रैपेलेंट हम 80-85 रुपये में खरीद लेते हैं, वो राष्ट्रमंडल खेलों में प्रतिदिन 150 रुपये किराए पर ली गईं। क्या नहीं हुआ, सभी को पता है। इसके साथ ही खेल संघ अपने पदाधिकारियों की आयु सीमा तय करने पर भी आपत्ति जता रहे हैं जबकि खेल मंत्री का कहना है कि न्यायपालिका और नौकरशाही के लिए आयु सीमा होती है तो खेल संघों के पदाधिकारियों के क्यों नहीं। उन्होंने कहा कि यदि कोई किसी संगठन की अगुवाई करता रहेगा तो उसमें उसके स्वार्थ निहित होंगे। मल्होत्रा, फारुख आदि ज्यादातर नेता उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां निरंतर सक्रियता संभव नहीं हो पाती। फारुख जैसे नेता यदि सही रास्ते पर होते तो उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला को नहीं कहना पड़ता कि खेल संगठनों की अगुवाई कर रहे केंद्रीय मंत्रियों को स्पोर्ट्स बिल पर होने वाली चर्चा से अलग कर लेना चाहिए। उमर जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री हैं, कोई गैर अनुभवी नेता पुत्र नहीं जो उनकी बात को तवज्जो न दी जाए। एक समय था जबकि खेल संघों में नेताओं और सांसदों की जरूरत पड़ती थी क्योंकि तब संसाधन नहीं थे और सरकार तक आवाज पहुंचाने के लिए इन लोगों को चुना जाता था। बाद में उन्हें इसकी चाट लग गई। लेकिन अब समय बदल गया है। खेलों में कारपारेट जगत से पैसा आ गया है और ऐसे में पेशेवर और ऐसे लोगों को ही इनसे जुड़ना चाहिए जिन्हें खेल की अच्छी समझ हो। खिलाड़ी आगे आ रहे हैं, यह तो और भी अच्छा है। एक समाजसेवी के आमरण अनशन से हिली नेताओं की बिरादरी को समझ लेना चाहिये कि हालात बदल रहे हैं। ऐसा न हो, कि चीन-जापान में लग रहे पदकों से ढेर और यहां बेतरह खर्च के बावजूद पदकों के टोटे से आक्रोशित जनता खुलकर मैदान में न आ जाए। खुदा खैर करे, नेताओं की सदबुद्धि से देश का भी भला है।
वेंगसरकर कोई आम क्रिकेटर नहीं हैं। वह अपने जमाने के शानदार बैट्समैन थे, जिनका वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ बहुत अच्छा रिकॉर्ड है। वेंगसरकर अकेले ऐसे गैर इंग्लिश क्रिकेटर हैं, जिन्होंने लॉर्डस पर तीन शतक लगाए हैं। 1983 में विश्व कप और उसके दो साल बाद विश्व चैंपियनशिप जीतने वाली टीमों के भी वह सदस्य थे। अब बताइये, क्रिकेट की बेहतरी के लिए उनसे ज्यादा कोई कैसे सोच सकता है? हालांकि यह भी तथ्य है कि वेंगसरकर और पूर्व क्रिकेटरों की उनकी चुनावी टीम को हराने में सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री जैसी क्रिकेट हस्तियों के लाभ भी आड़े आए थे। खेल संघों की कमान संभालने के पीछे दूसरी वजह पैसा भी है। सुरेश कलमाड़ी का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं कि किस तरह उन्होंने भारतीय ओलंपिक संघ में धींगामुश्ती की, राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी में जमकर धांधलियां की गईं। धांधली भी इतनी कि जो मॉस्किटो रैपेलेंट हम 80-85 रुपये में खरीद लेते हैं, वो राष्ट्रमंडल खेलों में प्रतिदिन 150 रुपये किराए पर ली गईं। क्या नहीं हुआ, सभी को पता है। इसके साथ ही खेल संघ अपने पदाधिकारियों की आयु सीमा तय करने पर भी आपत्ति जता रहे हैं जबकि खेल मंत्री का कहना है कि न्यायपालिका और नौकरशाही के लिए आयु सीमा होती है तो खेल संघों के पदाधिकारियों के क्यों नहीं। उन्होंने कहा कि यदि कोई किसी संगठन की अगुवाई करता रहेगा तो उसमें उसके स्वार्थ निहित होंगे। मल्होत्रा, फारुख आदि ज्यादातर नेता उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां निरंतर सक्रियता संभव नहीं हो पाती। फारुख जैसे नेता यदि सही रास्ते पर होते तो उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला को नहीं कहना पड़ता कि खेल संगठनों की अगुवाई कर रहे केंद्रीय मंत्रियों को स्पोर्ट्स बिल पर होने वाली चर्चा से अलग कर लेना चाहिए। उमर जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री हैं, कोई गैर अनुभवी नेता पुत्र नहीं जो उनकी बात को तवज्जो न दी जाए। एक समय था जबकि खेल संघों में नेताओं और सांसदों की जरूरत पड़ती थी क्योंकि तब संसाधन नहीं थे और सरकार तक आवाज पहुंचाने के लिए इन लोगों को चुना जाता था। बाद में उन्हें इसकी चाट लग गई। लेकिन अब समय बदल गया है। खेलों में कारपारेट जगत से पैसा आ गया है और ऐसे में पेशेवर और ऐसे लोगों को ही इनसे जुड़ना चाहिए जिन्हें खेल की अच्छी समझ हो। खिलाड़ी आगे आ रहे हैं, यह तो और भी अच्छा है। एक समाजसेवी के आमरण अनशन से हिली नेताओं की बिरादरी को समझ लेना चाहिये कि हालात बदल रहे हैं। ऐसा न हो, कि चीन-जापान में लग रहे पदकों से ढेर और यहां बेतरह खर्च के बावजूद पदकों के टोटे से आक्रोशित जनता खुलकर मैदान में न आ जाए। खुदा खैर करे, नेताओं की सदबुद्धि से देश का भी भला है।
Friday, August 26, 2011
'इन्फोसिस' से नारायणमूर्ति का जाना...
इन्फोसिस बड़ी हो गई है, पूरे तीस साल की। लेकिन इस समय वैसे ही दुखी है जैसे पिता के घर से विदाई के वक्त बेटी होती है। बेशक यह उलटबांसी है, यहां विदाई पिता की हुई है। करीब 31 वर्ष पहले महाराष्ट्र के पुणे शहर में एक छोटे से कमरे से शुरू की गई कंपनी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की दिग्गज सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी के रूप में स्थापित करने वाले एनआर नारायण मूर्ति 21 अगस्त, 2011 को अध्यक्ष के पद से सेवामुक्त हो गए। इन्फोसिस को दुनिया की एक प्रतिष्ठित आईटी कंपनी का रुतबा दिलाने के लिए मूर्ति ने करीब 30 वर्ष तक उसे अपनी अमूल्य सेवा दी। सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में यह एक मिसाल है। जून में 30वीं सालाना बैठक में इन्फोसिस टेक्नोलॉजीज़ के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति बतौर अध्यक्ष आखिरी बार शामिल हुए। माहौल गमगीन था, वह इतने भावुक हुए कि आंसू बहने लगे। बोले, ऐसा लग रहा है जैसे विवाह के बाद बेटी अभिभावक का घर छोड़कर जा रही है। हालांकि जब (बेटी को) जरूरत होगी, मैं हाजिर हो जाऊंगा। इस मंच को अंतिम बार संबोधित करना मेरे लिए आसान नहीं है। मेरे दिमाग में कई छवियां कौंध रही हैं, उनकी सूची अंतहीन है। इन तीस सालों में मैं किए गए अच्छे-बुरे सभी फैसलों का जिम्मेदार हूं। उम्मीद है कि और अच्छे दिन आएंगे। मैंने इसकी हर उपलब्धि का आनंद उठाया है और कंपनी के गलत निर्णयों पर सहानुभूति भी देता रहा हूं।
नारायणमूर्ति की लीडरशिप में इन्फोसिस देश की दूसरी बड़ी साफ्टवेयर निर्यातक कंपनी बनी। करीब साढ़े चार बिलियन डॉलर आकार वाली इस कंपनी में कर्मचारियों की संख्या एक लाख पार कर चुकी है। सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं और समाधान इसका मुख्य व्यवसाय है। भारतीय कंपनियों को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से झटके शुरू होने के बाद माना जा रहा था कि इन्फोसिस जैसी कंपनियों के लिए बाजार थोड़ी मुश्किलों से भरने वाला है। संकट में फंसे यूरोप के असर, मुद्रा में अस्थिरता, कर्ज के बढ़ते भार और कीमतों पर दबाव के कारण दिग्गज सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी इन्फोसिस टेक्नोलॉजिज का संचयी शुद्घ लाभ उम्मीद से कम रहा। 30 जून को समाप्त हुई तिमाही में 1,488 करोड़ रुपये का शुद्घ लाभ हुआ, जो पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 2.4 फीसदी कम है। जबकि तिमाही दर तिमाही आधार पर शुद्घ लाभ में 7 फीसदी की कमी आई। मार्च को समाप्त हुई तिमाही में कंपनी का शुद्घ लाभ 1,600 करोड़ रुपये था। पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले इस तिमाही में कंपनी का राजस्व 13.3 फीसदी बढ़कर 6,198 करोड़ रुपये हो गया, जबकि तिमाही आधार पर इसमें 4.3 फीसदी की मामूली वृद्घि दर्ज की गई। हालांकि इस दौरान प्रत्येक शेयर से होने वाली कंपनी की कमाई में सालाना आधार पर 2.6 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
शुभचिंतकों की ओर से नारायणमूर्ति को विदाई का फैसला कुछ दिन टालने की सलाह दी गईं। सत्यम का सत्यानाश होने के बाद बेहतर लाभ उठाने के मौके अभी खत्म नहीं हुए थे। बेशक, अधिग्रहण करने वाली कंपनी ने स्थितियां संभाली हैं लेकिन पहले से स्थापित कंपनियों के लिए अपना कारोबार बढ़ाने के यह अवसर दुर्लभतम श्रेणी के हैं। नारायणमूर्ति में दम था इसलिये उन पर भरोसा जताया गया था। भावी अध्यक्ष केवी कामथ की क्षमताओं पर हालांकि किसी को संदेह नहीं था लेकिन कंपनी चूंकि अपने फाउंडर प्रेसीडेंट का आसरा तलाशती नजर आती थी इसलिये कामथ पर अविश्वास जाहिर किए गए। कामथ इससे पहले देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई में एक शीर्ष पद कार्यरत थे। वर्ष २००८ में आई आर्थिक मंदी के बाद आईसीआईसीआई बैंक की विदेशों में बिजनेस की नीति को लेकर सवाल भी उठे, लेकिन कामथ ने अपनी सूझ-बूझ से बैंक को इस संकट से उबार लिया।
इन्फोसिस के साथ भी कामथ का साथ नया नहीं है। वे पहले से ही स्वतंत्र डायरेक्टर के रूप में इससे जुड़े रहे हैं। संकेत मिलने लगे हैं, हाल ही में बड़ी संख्या में भर्तियों की घोषणा करने वाली इस कंपनी को उसके नायब छोड़कर जा रहे हैं। अपने फैसलों से चर्चा बटोरने वाले मोहनदास पई चले गए। के. दिनेश सेवानिवृत्त हो गए। दिनेश कंपनी के संस्थापक सात सदस्यों में से एक थे। और अब, रिसर्च हेड सुभाष धर ने विदाई का रास्ता पकड़ लिया। वह कंपनी में इतने महत्वपूर्ण थे, कि खुद नारायणमूर्ति ने उन्हें कंपनी का सीनियर वाइस प्रेसीडेंट, नव प्रवर्तन का कारपोरेट हेड और ब्रिकी-विपणन प्रमुख का काम सौंप था। इसके साथ ही वह कंपनी की एग्जीक्यूटिव कमेटी के मेंबर भी थे। निश्चित रूप से यह चिंता की बात है। इन्फोसिस के तीन दशक के इतिहास में कामथ ऐसे पहले व्यक्ति हैं, जो संस्थापक सदस्य न होते हुए भी कंपनी के चेयरमैन बनाए गए। अब तक इन्फोसिस में इसके संस्थापक सदस्यों को ही इस पद पर बैठाया जाता रहा है। उनके सामने कई सारी चुनौतियां भी आने वाली हैं। एक तरफ जहां उन्हे कंपनी के पुराने लोगों का मनोबल बढ़ाना होगा, वहीं दूसरी तरफ कुछ गैर अनुभवी लोगों के साथ ही उन्हें काम करना होगा। हालांकि उन्हें जानने वाले कहते हैं कि कामथ हमेशा दूसरे लोगों को जगह देने में विश्वास करते हैं जिसके कारण लोग उन्हें बहुत जल्दी पसंद करने लगते हैं। जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में इन्फोसिस लीक से हटकर कुछ नया कर सकती है। यह अपने खर्च को बढ़ा सकती है, विदेशों में अधिग्रहण कर सकती है और एक मजबूत अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड बनने की राह पर चल सकती है। फिलहाल इन्फोसिस के पास 550 ग्राहक हैं और इस सूची में एबीएन एमरो, गोल्डमन सैक्स, टेलस्ट्रा और ब्रिटिश पेट्रोलियम जैसी कंपनियां शामिल हैं। ईश्वर करे, ऐसा ही हो क्योंकि इन्फोसिस हम सभी के लिए गौरव की बात है।
नारायणमूर्ति की लीडरशिप में इन्फोसिस देश की दूसरी बड़ी साफ्टवेयर निर्यातक कंपनी बनी। करीब साढ़े चार बिलियन डॉलर आकार वाली इस कंपनी में कर्मचारियों की संख्या एक लाख पार कर चुकी है। सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं और समाधान इसका मुख्य व्यवसाय है। भारतीय कंपनियों को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से झटके शुरू होने के बाद माना जा रहा था कि इन्फोसिस जैसी कंपनियों के लिए बाजार थोड़ी मुश्किलों से भरने वाला है। संकट में फंसे यूरोप के असर, मुद्रा में अस्थिरता, कर्ज के बढ़ते भार और कीमतों पर दबाव के कारण दिग्गज सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी इन्फोसिस टेक्नोलॉजिज का संचयी शुद्घ लाभ उम्मीद से कम रहा। 30 जून को समाप्त हुई तिमाही में 1,488 करोड़ रुपये का शुद्घ लाभ हुआ, जो पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 2.4 फीसदी कम है। जबकि तिमाही दर तिमाही आधार पर शुद्घ लाभ में 7 फीसदी की कमी आई। मार्च को समाप्त हुई तिमाही में कंपनी का शुद्घ लाभ 1,600 करोड़ रुपये था। पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले इस तिमाही में कंपनी का राजस्व 13.3 फीसदी बढ़कर 6,198 करोड़ रुपये हो गया, जबकि तिमाही आधार पर इसमें 4.3 फीसदी की मामूली वृद्घि दर्ज की गई। हालांकि इस दौरान प्रत्येक शेयर से होने वाली कंपनी की कमाई में सालाना आधार पर 2.6 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
शुभचिंतकों की ओर से नारायणमूर्ति को विदाई का फैसला कुछ दिन टालने की सलाह दी गईं। सत्यम का सत्यानाश होने के बाद बेहतर लाभ उठाने के मौके अभी खत्म नहीं हुए थे। बेशक, अधिग्रहण करने वाली कंपनी ने स्थितियां संभाली हैं लेकिन पहले से स्थापित कंपनियों के लिए अपना कारोबार बढ़ाने के यह अवसर दुर्लभतम श्रेणी के हैं। नारायणमूर्ति में दम था इसलिये उन पर भरोसा जताया गया था। भावी अध्यक्ष केवी कामथ की क्षमताओं पर हालांकि किसी को संदेह नहीं था लेकिन कंपनी चूंकि अपने फाउंडर प्रेसीडेंट का आसरा तलाशती नजर आती थी इसलिये कामथ पर अविश्वास जाहिर किए गए। कामथ इससे पहले देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई में एक शीर्ष पद कार्यरत थे। वर्ष २००८ में आई आर्थिक मंदी के बाद आईसीआईसीआई बैंक की विदेशों में बिजनेस की नीति को लेकर सवाल भी उठे, लेकिन कामथ ने अपनी सूझ-बूझ से बैंक को इस संकट से उबार लिया।
इन्फोसिस के साथ भी कामथ का साथ नया नहीं है। वे पहले से ही स्वतंत्र डायरेक्टर के रूप में इससे जुड़े रहे हैं। संकेत मिलने लगे हैं, हाल ही में बड़ी संख्या में भर्तियों की घोषणा करने वाली इस कंपनी को उसके नायब छोड़कर जा रहे हैं। अपने फैसलों से चर्चा बटोरने वाले मोहनदास पई चले गए। के. दिनेश सेवानिवृत्त हो गए। दिनेश कंपनी के संस्थापक सात सदस्यों में से एक थे। और अब, रिसर्च हेड सुभाष धर ने विदाई का रास्ता पकड़ लिया। वह कंपनी में इतने महत्वपूर्ण थे, कि खुद नारायणमूर्ति ने उन्हें कंपनी का सीनियर वाइस प्रेसीडेंट, नव प्रवर्तन का कारपोरेट हेड और ब्रिकी-विपणन प्रमुख का काम सौंप था। इसके साथ ही वह कंपनी की एग्जीक्यूटिव कमेटी के मेंबर भी थे। निश्चित रूप से यह चिंता की बात है। इन्फोसिस के तीन दशक के इतिहास में कामथ ऐसे पहले व्यक्ति हैं, जो संस्थापक सदस्य न होते हुए भी कंपनी के चेयरमैन बनाए गए। अब तक इन्फोसिस में इसके संस्थापक सदस्यों को ही इस पद पर बैठाया जाता रहा है। उनके सामने कई सारी चुनौतियां भी आने वाली हैं। एक तरफ जहां उन्हे कंपनी के पुराने लोगों का मनोबल बढ़ाना होगा, वहीं दूसरी तरफ कुछ गैर अनुभवी लोगों के साथ ही उन्हें काम करना होगा। हालांकि उन्हें जानने वाले कहते हैं कि कामथ हमेशा दूसरे लोगों को जगह देने में विश्वास करते हैं जिसके कारण लोग उन्हें बहुत जल्दी पसंद करने लगते हैं। जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में इन्फोसिस लीक से हटकर कुछ नया कर सकती है। यह अपने खर्च को बढ़ा सकती है, विदेशों में अधिग्रहण कर सकती है और एक मजबूत अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड बनने की राह पर चल सकती है। फिलहाल इन्फोसिस के पास 550 ग्राहक हैं और इस सूची में एबीएन एमरो, गोल्डमन सैक्स, टेलस्ट्रा और ब्रिटिश पेट्रोलियम जैसी कंपनियां शामिल हैं। ईश्वर करे, ऐसा ही हो क्योंकि इन्फोसिस हम सभी के लिए गौरव की बात है।
Wednesday, August 17, 2011
... इसलिये जननायक बन गए अन्ना
पांच जून 1989 की सुबह। अखबार खून से रंगे थे। चीन के थ्येनआनमन चौक पर एक दिन पहले लोकतंत्र की लड़ाई में सैकड़ों छात्र चीनी टैंकों का शिकार हो गये थे और पूरी दुनिया में हाहाकार मचा था। तब मेरी उम्र कोई 16 साल की होगी। स्कूल में टीचर्स के बीच बातचीत का मुद्दा यही था। घर के बुजुर्ग कहा करते थे कि जब अति हो जाती है तो क्रांति होती है। तब बदलाव की बयार बहती है। तब से आज तक मैं, इसी इंतज़ार में हूं कि हमारे यहां अति हो रही है। अब क्रांति हो, तब क्रांति हो।
15 जून 1937 को जन्मे किसन बाबूराव हजारे यानि अन्ना हज़ारे को मैं किसी क्रांति का फिलहाल अग्रदूत नहीं मानता। हां, अन्ना ने देश को जगाने का काम किया है। और हम जागे इसलिये नहीं कि किसी सबल लोकपाल से हमारे यहां के प्रधानमंत्री या मंत्री भ्रष्ट नहीं होंगे। न ही इसकी गारंटी है कि यह लोकपाल ही भ्रष्ट नहीं हो जाएगा। हम जैसे तमाम देशों में इतिहास गवाह है कि सिक्कों की खनक ने बड़े-बड़ों की अकड़ ढीली की है। यहां तक कि हम यह तक मानने लगे कि जब तक भगवान को भेंट नहीं चढ़ाएंगे, हमारी मनोकामना पूरी नहीं होगी। कुछ साल पहले की बात है, सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ तो हम बल्लियों उछल पड़े थे। क्या हो रहा है अब, सूचना अधिकार कानून को भी धता बताने से तंत्र बाज नहीं आ रहा। सरकारी स्तर से कुछ हुआ नहीं इसलिये गांधी टोपी और खादी पहनने वाले अन्ना को महाराष्ट्र छोड़कर दिल्ली में झंडा उठाना पड़ा। अन्ना के इस अंधाधुंध अनुसरण की वजह हैं। अन्ना चाहें भ्रष्टाचार पर निर्णायक प्रहार न कर पाएं या सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में डूबे नेता इसकी कोई काट ढूंढ लें, फिर भी हम उम्मीद लगाए बैठे हैं। संसद के जनलोकपाल विधेयक को ध्वनिमत से पारित करने से इस उम्मीद को दम मिला है। दरअसल, भ्रष्टाचार ने हमारे देश की जड़ों में ऐसा मट्ठा डाला है जिसने हमें नौ-नौ आंसू रुलाया है। कहां नहीं हैं भ्रष्टाचार? आम दिनचर्या की छोड़िए, सरकारी विभागों को भी छोड़ दीजिए, अब तो प्राइवेट कंपनियों में भी यह बीमारी पहुंच चुकी है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के हर हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार चरम पर है| ये हालात एक दिन या कुछ बरसों में पैदा नहीं हो गए, बल्कि लंबे समय तक हमारी लापरवाही भी इसके लिए ज़िम्मेदार साबित हुई है। गलत एवं पथभ्रष्ट लोगों को सम्मान देने की नीति का पनपना और ऐसे लोगों के विरुद्ध आवाज न उठाने की हमारी आदत भी खूब दोषी है। हम लड़ने की आदत भूल बैठे। इसके जरिए हमने भी शॉर्ट-कट रास्ता चुनना शुरू कर दिया। बजाए यह देखने के, कि रिश्वत दिए बिना कैसे काम कराएं, हम सोचने लगे कि कैसे रिश्वत कम कराएं और सही आदमी तक पहुंचा दें।
हद होने लगी तो मजबूरी में हम चेते। अन्ना के शांति और प्रशांत भूषण जैसे दागी साथियों को भी हम दरकिनार कर समर्थन कर रहे हैं क्योंकि लक्ष्य हमारी पसंद का है। हम दोनों भूषणों के इलाहाबाद में स्टाम्प चोरी और नोएडा में करोड़ों के भूमि आवंटन को इसीलिये भूल जाते हैं। इसके बजाए महत्व देते हैं अन्ना को, वजह वही है अन्ना हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं। अन्ना के समर्थन में लोग झंडा उठा रहे हैं, कारों के पीछे लिखवा रहे हैं 'मैं हू अन्ना', यह वही लोग हैं जो थक चुके हैं व्यवस्था से। मीडिया के कैमरों की फ्लैश तक चलने वाले समर्थक आंदोलनों का भी असर है, इससे आवाज बुलंद हो रही है। दिल्ली के रामलीला मैदान में बेशक अन्ना के साथ तमाम लोग बैठे हैं लेकिन देश के हर हिस्से में उनका झण्डा फहर रहा है। शहरों की छोड़िए, गांवों में किसी बड़े पेड़ के नीचे बैनर लगाकर बैठे लोगों को अन्ना का समर्थन करते मैंने देखा है, वह भी उन गांवों में जहां लोग बिजली न आने पर कुछ नहीं बोलते। पानी साफ मिले तो ठीक वरना दूर से भरकर ले आते हैं। गांवों में कोई कब्जा कर ले तो कुछ दिन अफसरों के चक्कर लगाते हैं, फिर थककर हार मानकर बैठ जाते हैं। यह लोग '... तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं' जैसे पुराने नारे के शुरू में अन्ना का नाम जोड़ते हैं तो इसके मायने हैं। मैं उन लोगों में नहीं जो कह रहे हैं कि देश पूरी तरह जाग गया है। इन जागे हुए लोगों को मैंने कई बार देखा है, पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध, फिर अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्ज़िद विवाद के वक्त। यह जगे, तोड़ा-फोड़ा और सो गए। जैसे मकसद था कि कुछ हंगामा बरपाने का। अन्ना के साथ उठ खड़ी हुई भीड़ के मायने हैं कि इस बार एक ऐसे मुद्दे पर जागृति आयी है जो न जाति से जुड़ा और न धर्म से। इसी दिल्ली में बाबा रामदेव भी बैठे थे। उनकी अगवानी करने केंद्रीय मंत्री पहुंचे थे, लगा था कि जैसे कुछ बड़ा कर गुजरने वाला है यह बाबा। लेकिन हुआ क्या, सरकार ने धोबी पाट दिया और बाबा चारों खाने चित्त। लेडीज़ सूट में गायब होने के बाद जब देहरादून में मिला तो बोलती बंद। अन्ना की मुहिम की शुरुआत उत्साहित कर रही है। लोकतंत्र में लोक पहली बार तंत्र से भारी पड़ता नजर आ रहा है। इसका श्रेय अन्ना के साथ ही, कांग्रेस की उस सरकार को भी है जो आम आदमी की आवाज़ को दबाने में तुली है। सरकार अगर चुपचाप अन्ना की बात मान लेती तो यह हवा पैदा न होती, जनाक्रोश पैदा न होता। अति हो रही है, काश अब क्रांति भी हो जाए।
15 जून 1937 को जन्मे किसन बाबूराव हजारे यानि अन्ना हज़ारे को मैं किसी क्रांति का फिलहाल अग्रदूत नहीं मानता। हां, अन्ना ने देश को जगाने का काम किया है। और हम जागे इसलिये नहीं कि किसी सबल लोकपाल से हमारे यहां के प्रधानमंत्री या मंत्री भ्रष्ट नहीं होंगे। न ही इसकी गारंटी है कि यह लोकपाल ही भ्रष्ट नहीं हो जाएगा। हम जैसे तमाम देशों में इतिहास गवाह है कि सिक्कों की खनक ने बड़े-बड़ों की अकड़ ढीली की है। यहां तक कि हम यह तक मानने लगे कि जब तक भगवान को भेंट नहीं चढ़ाएंगे, हमारी मनोकामना पूरी नहीं होगी। कुछ साल पहले की बात है, सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ तो हम बल्लियों उछल पड़े थे। क्या हो रहा है अब, सूचना अधिकार कानून को भी धता बताने से तंत्र बाज नहीं आ रहा। सरकारी स्तर से कुछ हुआ नहीं इसलिये गांधी टोपी और खादी पहनने वाले अन्ना को महाराष्ट्र छोड़कर दिल्ली में झंडा उठाना पड़ा। अन्ना के इस अंधाधुंध अनुसरण की वजह हैं। अन्ना चाहें भ्रष्टाचार पर निर्णायक प्रहार न कर पाएं या सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में डूबे नेता इसकी कोई काट ढूंढ लें, फिर भी हम उम्मीद लगाए बैठे हैं। संसद के जनलोकपाल विधेयक को ध्वनिमत से पारित करने से इस उम्मीद को दम मिला है। दरअसल, भ्रष्टाचार ने हमारे देश की जड़ों में ऐसा मट्ठा डाला है जिसने हमें नौ-नौ आंसू रुलाया है। कहां नहीं हैं भ्रष्टाचार? आम दिनचर्या की छोड़िए, सरकारी विभागों को भी छोड़ दीजिए, अब तो प्राइवेट कंपनियों में भी यह बीमारी पहुंच चुकी है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के हर हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार चरम पर है| ये हालात एक दिन या कुछ बरसों में पैदा नहीं हो गए, बल्कि लंबे समय तक हमारी लापरवाही भी इसके लिए ज़िम्मेदार साबित हुई है। गलत एवं पथभ्रष्ट लोगों को सम्मान देने की नीति का पनपना और ऐसे लोगों के विरुद्ध आवाज न उठाने की हमारी आदत भी खूब दोषी है। हम लड़ने की आदत भूल बैठे। इसके जरिए हमने भी शॉर्ट-कट रास्ता चुनना शुरू कर दिया। बजाए यह देखने के, कि रिश्वत दिए बिना कैसे काम कराएं, हम सोचने लगे कि कैसे रिश्वत कम कराएं और सही आदमी तक पहुंचा दें।
हद होने लगी तो मजबूरी में हम चेते। अन्ना के शांति और प्रशांत भूषण जैसे दागी साथियों को भी हम दरकिनार कर समर्थन कर रहे हैं क्योंकि लक्ष्य हमारी पसंद का है। हम दोनों भूषणों के इलाहाबाद में स्टाम्प चोरी और नोएडा में करोड़ों के भूमि आवंटन को इसीलिये भूल जाते हैं। इसके बजाए महत्व देते हैं अन्ना को, वजह वही है अन्ना हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं। अन्ना के समर्थन में लोग झंडा उठा रहे हैं, कारों के पीछे लिखवा रहे हैं 'मैं हू अन्ना', यह वही लोग हैं जो थक चुके हैं व्यवस्था से। मीडिया के कैमरों की फ्लैश तक चलने वाले समर्थक आंदोलनों का भी असर है, इससे आवाज बुलंद हो रही है। दिल्ली के रामलीला मैदान में बेशक अन्ना के साथ तमाम लोग बैठे हैं लेकिन देश के हर हिस्से में उनका झण्डा फहर रहा है। शहरों की छोड़िए, गांवों में किसी बड़े पेड़ के नीचे बैनर लगाकर बैठे लोगों को अन्ना का समर्थन करते मैंने देखा है, वह भी उन गांवों में जहां लोग बिजली न आने पर कुछ नहीं बोलते। पानी साफ मिले तो ठीक वरना दूर से भरकर ले आते हैं। गांवों में कोई कब्जा कर ले तो कुछ दिन अफसरों के चक्कर लगाते हैं, फिर थककर हार मानकर बैठ जाते हैं। यह लोग '... तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं' जैसे पुराने नारे के शुरू में अन्ना का नाम जोड़ते हैं तो इसके मायने हैं। मैं उन लोगों में नहीं जो कह रहे हैं कि देश पूरी तरह जाग गया है। इन जागे हुए लोगों को मैंने कई बार देखा है, पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध, फिर अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्ज़िद विवाद के वक्त। यह जगे, तोड़ा-फोड़ा और सो गए। जैसे मकसद था कि कुछ हंगामा बरपाने का। अन्ना के साथ उठ खड़ी हुई भीड़ के मायने हैं कि इस बार एक ऐसे मुद्दे पर जागृति आयी है जो न जाति से जुड़ा और न धर्म से। इसी दिल्ली में बाबा रामदेव भी बैठे थे। उनकी अगवानी करने केंद्रीय मंत्री पहुंचे थे, लगा था कि जैसे कुछ बड़ा कर गुजरने वाला है यह बाबा। लेकिन हुआ क्या, सरकार ने धोबी पाट दिया और बाबा चारों खाने चित्त। लेडीज़ सूट में गायब होने के बाद जब देहरादून में मिला तो बोलती बंद। अन्ना की मुहिम की शुरुआत उत्साहित कर रही है। लोकतंत्र में लोक पहली बार तंत्र से भारी पड़ता नजर आ रहा है। इसका श्रेय अन्ना के साथ ही, कांग्रेस की उस सरकार को भी है जो आम आदमी की आवाज़ को दबाने में तुली है। सरकार अगर चुपचाप अन्ना की बात मान लेती तो यह हवा पैदा न होती, जनाक्रोश पैदा न होता। अति हो रही है, काश अब क्रांति भी हो जाए।
Thursday, August 11, 2011
खिलाड़ियों को 'भारत रत्न'... जरा संभलकर
क्या चाहती है सरकार? क्यों बनती हैं इस तरह की बकवास नीतियां? क्यों हम लोकतंत्र का मजाक बनाने पर तुले हैं? भारत रत्न को खिलाड़ियों के लिए भी खोलने की तैयारी है। क्यां हम उन खिलाड़ियों को भारत रत्न मिलता झेल पाएंगे जो कोका कोला जैसे विदेशी उत्पाद बेचते नजर आते हैं? खेल के मैदान में रिकार्डों की झड़ी लगा देने का मतलब यह नहीं कि हमसे उसकी कीमत मांगी जाए। भारत रत्न हमारे लिए श्रद्धा का भी मसला है, यह किसी टुच्चे उत्पाद के ब्रांड एंबेस्डर और समाज में अलग तरह का आचरण करने वाले खिलाड़ी को मिले, यह शायद मेरी तरह तमाम लोगों को कतई बर्दाश्त नहीं।
एक बार फिर हम आजादी की वर्षगांठ बनाने की तैयारी में हैं। बहुत कीमत चुकाकर हमने पाई है यह आजादी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे चौधरी रुस्तम सिंह मेरे पड़ोसी थे। बात करीब दस साल पुरानी है, नेताजी के जन्मदिन पर जागरण के लिए उनका इंटरव्यू किया। मैंने पूछा कि फिल्म अभिनेता-अभिनेत्रियों को पद्म पुरस्कार मिलते देखकर आपको कैसा लगता है, उन्होंने गुस्से में कहा, नचकइयों के लिए नहीं हैं यह सब। उनके लिए फिल्मों के तमाम अवार्ड हैं तो। उनका साफ कहना था, पद्म पुरस्कार इतने बड़े हैं कि उनके लिए पात्रों का चयन करते वक्त जरा सी चूक देश के सम्मान को ठेस पहुंचा सकती है। वो नेताजी के निजी अंगरक्षक रहे थे। सुबह सैर के वक्त पद्मश्री डॉ. लाल बहादुर सिंह चौहान से मुलाकात हुई। चर्चा चली तो उन्होंने भी विरोध किया। बोले, भारत रत्न के चयन में लापरवाही नहीं चलेगी।
बहरहाल, भारत रत्न यदि खिलाड़ियों के लिए खुले तो मास्टर ब्लास्टर जैसे नामों से चर्चित सचिन तेंदुलकर और शतरंज के ग्रैंड मास्टर विश्वनाथन आनंद के नाम चुनने वालों के सामने सबसे पहले आएंगे। सचिन बेशक, बिरले खिलाड़ी हैं लेकिन क्या हम यह बर्दाश्त कर सकते हैं कि हमारा भारत रत्न किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के जूते या कोल्ड ड्रिंक बेचता नजर आए। आनंद ने भी विज्ञापन किए हैं। फिर खिलाड़ियों के लिए राजीव गांधी खेल रत्न जैसे पुरस्कार हैं तो, दोनों खिलाड़ी इन पुरस्कारों तक पहुंच चुके हैं। देना ही है तो कड़ी स्क्रीनिंग करनी होगी। मामले पर सरकार को समझदारी से निर्णय लेना है क्योंकि जरा सी चूक देश के लिए शर्मिंदगी की वजह बन सकती है। सरकार सचिन से कहे कि विज्ञापन करना छोड़ें और क्रिकेट से संन्यास लें वरना मैदान में जरा भी विपरीत आचरण पूरे देश का अपमान साबित होगा। और मैदान में रहकर कभी न कभी तो इस तरह आचरण तो करना ही पड़ सकता है। यह बहुत बड़ा निर्णय होगा और सरकार को समझदारी तो दिखानी ही होगी। सरकार महज रिकार्डों को ढेर को आधार न बनाए, सोचे कि कैसे यह दोनों चीजें एकसाथ चलेंगी। ईश्वर सरकार को सोचने की सदबुद्धि प्रदान करे।
एक बार फिर हम आजादी की वर्षगांठ बनाने की तैयारी में हैं। बहुत कीमत चुकाकर हमने पाई है यह आजादी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे चौधरी रुस्तम सिंह मेरे पड़ोसी थे। बात करीब दस साल पुरानी है, नेताजी के जन्मदिन पर जागरण के लिए उनका इंटरव्यू किया। मैंने पूछा कि फिल्म अभिनेता-अभिनेत्रियों को पद्म पुरस्कार मिलते देखकर आपको कैसा लगता है, उन्होंने गुस्से में कहा, नचकइयों के लिए नहीं हैं यह सब। उनके लिए फिल्मों के तमाम अवार्ड हैं तो। उनका साफ कहना था, पद्म पुरस्कार इतने बड़े हैं कि उनके लिए पात्रों का चयन करते वक्त जरा सी चूक देश के सम्मान को ठेस पहुंचा सकती है। वो नेताजी के निजी अंगरक्षक रहे थे। सुबह सैर के वक्त पद्मश्री डॉ. लाल बहादुर सिंह चौहान से मुलाकात हुई। चर्चा चली तो उन्होंने भी विरोध किया। बोले, भारत रत्न के चयन में लापरवाही नहीं चलेगी।
बहरहाल, भारत रत्न यदि खिलाड़ियों के लिए खुले तो मास्टर ब्लास्टर जैसे नामों से चर्चित सचिन तेंदुलकर और शतरंज के ग्रैंड मास्टर विश्वनाथन आनंद के नाम चुनने वालों के सामने सबसे पहले आएंगे। सचिन बेशक, बिरले खिलाड़ी हैं लेकिन क्या हम यह बर्दाश्त कर सकते हैं कि हमारा भारत रत्न किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के जूते या कोल्ड ड्रिंक बेचता नजर आए। आनंद ने भी विज्ञापन किए हैं। फिर खिलाड़ियों के लिए राजीव गांधी खेल रत्न जैसे पुरस्कार हैं तो, दोनों खिलाड़ी इन पुरस्कारों तक पहुंच चुके हैं। देना ही है तो कड़ी स्क्रीनिंग करनी होगी। मामले पर सरकार को समझदारी से निर्णय लेना है क्योंकि जरा सी चूक देश के लिए शर्मिंदगी की वजह बन सकती है। सरकार सचिन से कहे कि विज्ञापन करना छोड़ें और क्रिकेट से संन्यास लें वरना मैदान में जरा भी विपरीत आचरण पूरे देश का अपमान साबित होगा। और मैदान में रहकर कभी न कभी तो इस तरह आचरण तो करना ही पड़ सकता है। यह बहुत बड़ा निर्णय होगा और सरकार को समझदारी तो दिखानी ही होगी। सरकार महज रिकार्डों को ढेर को आधार न बनाए, सोचे कि कैसे यह दोनों चीजें एकसाथ चलेंगी। ईश्वर सरकार को सोचने की सदबुद्धि प्रदान करे।
Sunday, June 26, 2011
आगरे का बदनाम छोरा
कहानी आगरा के एक लड़के की है, उस पुलिसवाले की जिससे मुंबई के माफिया भी थर-थर कांपते थे। चाल मायानगरी में चलता तो धमक दुबई में अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहीम तक पहुंचती। यहां कामयाबी की खुशी होती तो वहां साथी के मारे जाने का गम। लड़का लंबे डग भर रहा था। कहानी दिलचस्प है, छोरे ने मुंबई में राज किया जो सपना होता है किसी के भी लिये। इतना लोकप्रिय हो गया कि बच्चे बड़ा होकर उस जैसा बनने के सपने देखने लगे। मुंबई में उसके फोटो और कारनामे छपने का रेकार्ड रच गया। प्रदीप शर्मा नाम है आगरे के इस छोरे का। मुंबई में पैदा हुआ और 1984 में वहां की पुलिस में सब इंस्पेक्टर के रूप में भर्ती हुए प्रदीप ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक विवादों में फंसे थे, अखबार लगातार निगेटिव लिख रहे थे। तब इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा, मुंबई में आतंक का राज खत्म नहीं होता यदि दया नायक और प्रदीप न होते। प्रदीप ने एनकाउंटर में दया नायक को पीछे छोड़ रखा था। पत्रकार जे डे की हत्या के बाद अकूत कमाई और फर्जी एनकाउंटर के आरोपों पर जेल में बंद प्रदीप जैसे पुलिसवाले फिर चर्चा में हैं। एक असिस्टेंट कमिश्नर आफ पुलिस अनिल महाबोले से तो पूछताछ भी की गई है।
बात उस समय की है जब प्रदीप का नाम खासी चर्चा में था। प्रदीप से मेरी मुलाकात आगरा के नेहरू नगर स्थित एक आफिस में हुई। आगरा से जुड़े होने के कारण प्रदीप अक्सर आया करते थे। उनके कई मित्र थे यहां। यह आफिस दैनिक जागरण में मेरे सिटी चीफ आनंद शर्मा के मित्र का था। अचानक मेरे पास फोन आया, बताया गया कि प्रदीप कुछ देर के लिए आगरा में हैं। उनसे बात कर लो। किसी अन्य अखबार को पता नहीं है, एक्सक्लूसिव स्टोरी बनेगी। मैंने ख्याति सुनी थी। दो-तीन दिन पहले ही प्रदीप के बारे में पढ़ा था। स्टोरी इंडियन एक्सप्रेस में ही थी। प्रदीप ने मुंबई में कोलाबा की गली में एक दुर्दांत अपराधी को मार गिराया था। उसी दिन शाम को वह आगरा के लिए चले थे। मेरे लिए यह मौका था, सो बिना समय गंवाए पहुंच गया। प्रदीप के इर्द-गिर्द भीड़ थी, सादा वर्दी में सुरक्षा भी। वो गर्मजोशी से मिले। लगा ही नहीं कि यह अपराधियों के लिए टेरर का सबब है। हर सवाल का जवाब मिला। संजय दत्त के बारे में पूछा तो हंसकर बोले, अंदर कराओगे। पुलिसवाले भी नहीं बोलते संजू बाबा के बारे में। अकाट्य साक्ष्य हैं लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता वरना संजय दत्त को फायदा पहुंचेगा। मैंने फिर पूछा तो एक साथी पुलिसवाला बोला, संजय दत्त को पूरी जिंदगी जेल की चक्की पीसेगा। राइफल उसकी थी, उसने न केवल अपने पास रखी बल्कि तमाम अन्य जानने वालों को भी दिलवाई थीं। प्रदीप ने चुप रहने को कहा। बातचीत निजी जिंदगी पर पुलिसिया जीवन के असर पर चल निकली। प्रदीप का कहना था कि कई-कई दिन बीवी-बच्चों से मुलाकात नहीं हो पाती। मुंबई में घर होने के बावजूद चौदह दिन तक लगातार होटल का खाना खा चुका हूं। घर आने पर पत्नी स्वागत के बजाए फिर जाने की तैयारी शुरू कर देती है। आगरा उन्हें खासा पसंद है, चाहत है रिटायरमेंट के बाद बचा जीवन आगरा में मदिया कटरा स्थित घर में काटना। पहले एनकाउंटर के अनुभव पूछने पर प्रदीप ने कहा, लगा जैसे हमने कोई बड़ा काम किया है। सामने अपराधी की लाश पड़ी थी। यह वही अपराधी था जो बंबई पुलिस का अरसे से सिरदर्द बना हुआ था। एसीपी ने शाबासी दी तो सीना गर्व से फूल गया। वहीं से मैंने सोचा कि अपराध के खात्मे के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ूंगा। इसके बाद मैं कभी डरा नहीं। भगवान ने हर बार अकूत साहस प्रदान किया।
सलमान का जलवा भी फीका था सामने
प्रदीप शर्मा के बातचीत के दौरान एक सिपाही ने बॉलीवुड सरताज सलमान खान का नाम ले लिया। बोला कि साहब (प्रदीप शर्मा) के सामने तो सलमान भी ढक्कन है। एक फिल्म की शूटिंग के दौरान प्रदीप पहुंच गए तो मिलने आए सलमान कुर्सी लेकर बैठने लगे। इससे खफा प्रदीप ने कुर्सी को लात मारकर गिरा दिया और सलमान से खड़े होकर बात करने को कहा। इसी दौरान पता चला कि प्रदीप की जबर्दस्त सुरक्षा की जाती थी। मुंबई के पुलिस कमिश्नर के समान उनके काफिले में कई गाड़ियां चला करती थीं। वह किसने बैठे हैं, यह सिर्फ कुछ लोगों को पता होता था जो उनके खास होते थे।
बर्खास्त प्रदीप जेल में हैं
महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे रामदास कदम ने एक बार यह मुद्दा उठाकर सबको चौंका दिया था कि प्रदीप शर्मा के पास तीन हजार करोड़ की संपत्ति है। ये संपत्तियां शॉपिंग मॉल, बीयर बार, भवन निर्माण जैसे रूपों में है। शर्मा पर यह आरोप था कि वह पहले माफिया छोटा राजन के लिए काम करते थे। 114 एनकाउंटर करने वाले प्रदीप इस समय फर्जी एनकाउंटर के मामले में बर्खास्त होकर जेल में हैं।
बात उस समय की है जब प्रदीप का नाम खासी चर्चा में था। प्रदीप से मेरी मुलाकात आगरा के नेहरू नगर स्थित एक आफिस में हुई। आगरा से जुड़े होने के कारण प्रदीप अक्सर आया करते थे। उनके कई मित्र थे यहां। यह आफिस दैनिक जागरण में मेरे सिटी चीफ आनंद शर्मा के मित्र का था। अचानक मेरे पास फोन आया, बताया गया कि प्रदीप कुछ देर के लिए आगरा में हैं। उनसे बात कर लो। किसी अन्य अखबार को पता नहीं है, एक्सक्लूसिव स्टोरी बनेगी। मैंने ख्याति सुनी थी। दो-तीन दिन पहले ही प्रदीप के बारे में पढ़ा था। स्टोरी इंडियन एक्सप्रेस में ही थी। प्रदीप ने मुंबई में कोलाबा की गली में एक दुर्दांत अपराधी को मार गिराया था। उसी दिन शाम को वह आगरा के लिए चले थे। मेरे लिए यह मौका था, सो बिना समय गंवाए पहुंच गया। प्रदीप के इर्द-गिर्द भीड़ थी, सादा वर्दी में सुरक्षा भी। वो गर्मजोशी से मिले। लगा ही नहीं कि यह अपराधियों के लिए टेरर का सबब है। हर सवाल का जवाब मिला। संजय दत्त के बारे में पूछा तो हंसकर बोले, अंदर कराओगे। पुलिसवाले भी नहीं बोलते संजू बाबा के बारे में। अकाट्य साक्ष्य हैं लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता वरना संजय दत्त को फायदा पहुंचेगा। मैंने फिर पूछा तो एक साथी पुलिसवाला बोला, संजय दत्त को पूरी जिंदगी जेल की चक्की पीसेगा। राइफल उसकी थी, उसने न केवल अपने पास रखी बल्कि तमाम अन्य जानने वालों को भी दिलवाई थीं। प्रदीप ने चुप रहने को कहा। बातचीत निजी जिंदगी पर पुलिसिया जीवन के असर पर चल निकली। प्रदीप का कहना था कि कई-कई दिन बीवी-बच्चों से मुलाकात नहीं हो पाती। मुंबई में घर होने के बावजूद चौदह दिन तक लगातार होटल का खाना खा चुका हूं। घर आने पर पत्नी स्वागत के बजाए फिर जाने की तैयारी शुरू कर देती है। आगरा उन्हें खासा पसंद है, चाहत है रिटायरमेंट के बाद बचा जीवन आगरा में मदिया कटरा स्थित घर में काटना। पहले एनकाउंटर के अनुभव पूछने पर प्रदीप ने कहा, लगा जैसे हमने कोई बड़ा काम किया है। सामने अपराधी की लाश पड़ी थी। यह वही अपराधी था जो बंबई पुलिस का अरसे से सिरदर्द बना हुआ था। एसीपी ने शाबासी दी तो सीना गर्व से फूल गया। वहीं से मैंने सोचा कि अपराध के खात्मे के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ूंगा। इसके बाद मैं कभी डरा नहीं। भगवान ने हर बार अकूत साहस प्रदान किया।
सलमान का जलवा भी फीका था सामने
प्रदीप शर्मा के बातचीत के दौरान एक सिपाही ने बॉलीवुड सरताज सलमान खान का नाम ले लिया। बोला कि साहब (प्रदीप शर्मा) के सामने तो सलमान भी ढक्कन है। एक फिल्म की शूटिंग के दौरान प्रदीप पहुंच गए तो मिलने आए सलमान कुर्सी लेकर बैठने लगे। इससे खफा प्रदीप ने कुर्सी को लात मारकर गिरा दिया और सलमान से खड़े होकर बात करने को कहा। इसी दौरान पता चला कि प्रदीप की जबर्दस्त सुरक्षा की जाती थी। मुंबई के पुलिस कमिश्नर के समान उनके काफिले में कई गाड़ियां चला करती थीं। वह किसने बैठे हैं, यह सिर्फ कुछ लोगों को पता होता था जो उनके खास होते थे।
बर्खास्त प्रदीप जेल में हैं
महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे रामदास कदम ने एक बार यह मुद्दा उठाकर सबको चौंका दिया था कि प्रदीप शर्मा के पास तीन हजार करोड़ की संपत्ति है। ये संपत्तियां शॉपिंग मॉल, बीयर बार, भवन निर्माण जैसे रूपों में है। शर्मा पर यह आरोप था कि वह पहले माफिया छोटा राजन के लिए काम करते थे। 114 एनकाउंटर करने वाले प्रदीप इस समय फर्जी एनकाउंटर के मामले में बर्खास्त होकर जेल में हैं।
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