लोकतंत्र की एक बार फिर अग्निपरीक्षा हुई। विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लिये बैठा रहा, 20 करोड़ लोग तकते रहे और सिर्फ 16 मिनट में दो बड़े फैसले कर लिये गए। 21 नवम्बर 2011 को उत्तर प्रदेश की विधानसभा में लोकतंत्र ताकता रह गया, दोपहर के 12 बजकर बीस मिनट पर स्थगित सदन की कार्यवाही शुरू हुई, विपक्षी हंगामा मचाने लगे। विपक्ष चाहती था कि विधानसभा में राज्य की क़ानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बहस हो। सपा और भाजपा चाहती थी कि अविश्वास प्रस्ताव लाया जाए। हंगामा चल ही रहा था कि वित्तमंत्री लालजी वर्मा ने आनन-फानन में सत्तर हजार करोड़ का लेखानुदान का प्रस्ताव पटल पर रखा, हो-हल्ले के बीच यह पारित हो गया। एक और प्रस्ताव आया, वह भी पारित हुआ। इसी बीच 12 बजकर 25 मिनट पर मुख्यमंत्री मायावती ने राज्य के चार हिस्सों में बंटवारे का प्रस्ताव रखा। अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने घोषणा कर दी कि तीनों प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित कर दिए गए हैं। चलिये, इसके बाद भी गनीमत तब होती जब सदन इसके बाद चलता लेकिन दुस्साहस आगे भी चला और संसदीय कार्यमंत्री के प्रस्ताव पर सदन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। विधानसभा की पूरी कार्यवाही महज 16 मिनट में संपन्न हो गई। राज्य विधानसभा हो या देश की लोकसभा राज्यसभा, चुने हुए नुमाइंदे जनता बने-बनाए नियमों पर चलने के लिए बाध्य हैं। नियम यह है कि प्रश्नकाल के बाद अध्यक्ष राजभर को मामले में राय देनी चाहिये थी। अविश्वास प्रस्ताव पर उऩका मत आना चाहिये था। विपक्ष ने जब अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था तो उस पर विचार होना चाहिये था। लेखानुदान जैसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर व्यापक चर्चा का प्रावधान है लेकिन सदन जैसे सत्तादल की बंधक थी। कुछ नियम से हुआ ही नहीं जो हुआ वह नियमानुसार नहीं होना चाहिये था।
आश्चर्य की बात यह है कि सदन की यह महत्वपूर्ण बैठक उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने के राज्य सरकार के प्रस्ताव पर चर्चा करने के लिए देश-दुनिया प्रतीक्षारत थी। बेशक, राज्य के विभाजन का यह प्रस्ताव मायावती का सियासी पैंतरा है और लोगों का ध्यान असल मुद्दों से हटाने की कोशिश है लेकिन राज्य में चर्चाओं के दौर भी चलने लगे हैं। लोगों में जिज्ञासा है कि नए बनने वाले बुंदेलखण्ड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल की राजधानी कौन से शहर बनेंगे। आगरा और मेरठ में अधिवक्ता लंबे समय से उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के लिए आंदोलनरत हैं, वहां यह भी इंतजार है कि राजधानी के साथ ही नए राज्य का हाईकोर्ट कहां स्थापित होगा? सदन में चर्चा होती तो लोगों को यह भी पता लगता कि उनके वर्तमान नुमाइंदे इन मुद्दों पर कैसा रुख रखते हैं? यदि सरकार इस मुद्दों पर सियासी वजहों से लाई थी तो उसके लिए भी यह अच्छा होता कि वह चर्चा कराती। इससे वहां उसे लाभ मिलता जहां अन्य दलों के विधायक हैं। हो सकता है कि छोटे राज्यों के गठन की हिमायत करने वाली भारतीय जनता पार्टी सदन में असमंसज में फंस जाती। राज्यों के विभाजन की घोर विरोधी समाजवादी पार्टी के लिए भी चर्चा गले की फांस साबित होने वाली थी। जहां तक कांग्रेस की बात है, वह पहले ही तेलंगाना को अलग राज्य न बना पाने की वजह से सियासी बवंडर में फंसी है और यहां भी उसके लिए रास्ता आसान नहीं होता। बसपा के इस रवैए से विपक्षी दल मजबूत हुए हैं। बसपा जब चुनावी समर में नए राज्यों के प्रस्ताव पर राजनीति करेगी तो विपक्षी दल यह कहकर उसके इस अस्त्र को काटने में सफल हो जाएंगे कि सरकार की नीयत साफ होती तो राजधानी, संसाधनों के बंटवारे जैसे अहम मुद्दों पर विधानसभा में चर्चा कराती। हालांकि मायावती के इस रवैए के कारण हैं। राज्य में जिस तरह से विधायकों-मंत्रियों के विरुद्ध आरोप लगने और सिद्ध होने शुरू हुए हैं, बसपा में स्थितियां खराब हो गई हैं। विधायक टिकट कटने के डर से अन्य दलों की ओर ताक रहे हैं। यह विधायक विधानसभा में मायावती का सिरदर्द बनने वाले थे। बाबू सिंह कुशवाहा जैसे कद्दावर नेता की बगावत से बसपा ज्यादा असहज हुई है। कुशवाहा के समर्थक विधायकों का बड़ा गुट विधानसभा में गुल खिला सकता था। मायावती ने तो फिलहाल सिरदर्द से बचाव करते हुए सरकार बचा ली लेकिन इस अग्निपरीक्षा में लोकतंत्र एक दफा फिर कमज़ोर साबित हुआ है।
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