Monday, December 17, 2012
मुलायम का दांव और सवर्ण-मुस्लिम पाले में
समाजवादी पार्टी ने बरसों से बंद आरक्षण की वो पिटारी खोल दी है जो जब-जब खुली, आक्रोश की वजह बन गई। सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के आरक्षण का मुद्दा फंस चुका है और सपा अन्य दलों से बहुत आगे है। सवर्ण और मुस्लिम मतों पर उसका निशाना एक साथ लगा है। राज्यसभा ने बेशक, इस सम्बन्ध में संविधान संशोधऩ का बिल पास कर दिया है लेकिन उत्तर प्रदेश में हड़ताल जारी है और आग उत्तराखण्ड समेत अन्य राज्यों में पहुंच गई है। हड़ताल से राज्य कर्मचारी समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी के खेमों में बंट गए हैं। राजनीतिक नुकसान का आंकलन होने लगा है, कांग्रेस और भाजपा को डर लग रहा है कि कहीं सवर्ण और पिछड़ा वर्ग की जातियां उनसे रूठ न जाएं। कांग्रेस को तो मुस्लिमों का भी डर है।
इस बार सपा मुखिया राजनीति के चाणक्य सिद्ध हुए हैं। प्रोन्नति में आरक्षण विरोध कर जहां वह सवर्णों के दिल के करीब पहुंचे हैं, वहीं सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर मुस्लिमों के लिए आरक्षण मांगकर मुसलमानों को अपनी ओर खींचने में कामयाब रहे हैं। पूरा गणित उन्होंने जिस तरह फैलाया है कि अन्य दल चारों खाने चित्त हैं। विरोध बसपा की मजबूरी है और इससे उसे फायदा नहीं हो रहा बल्कि पुराना वोट बैंक बच भर रहा है। सपा सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देकर विरोध पर उतारू है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले से उत्तर प्रदेश की सरकारी नौकरियों में दलित वर्ग के लिए पदोन्नति में आरक्षण और वरिष्ठता के नियम को गैरकानूनी करार दिया था। समाजवादी पार्टी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करके पांच साल से रुकी पदोन्नति की प्रक्रिया को पुन: शुरू कर दिया है और दलित वर्ग के लोग सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए संविधान संशोधन की मांग कर रहे हैं। सरकार संशोधन को तैयार भी है। इसके तहत संविधान संशोधन 17 साल पहले के पूर्ववर्ती प्रभाव से लागू किया जा रहा है। आरक्षण विरोधी कह रहे हैं कि इससे कनिष्ठ कर्मचारी अपने सीनियर के ऊपर हो जाएंगे। आरक्षण की समस्या बरसों पुरानी है जो संविधान बनने से लेकर आज तक सुलझने के बजाए उलझती ही रही है। दरअसल, समाज का वह वर्ग, जो समाज की दिशा तय करता आया है, इसे अपनी परंपरागत स्थिति के लिए खतरा मानता है। आरक्षण जातिबद्ध समाज को समता आधारित समाज में बदलने का एकमात्र संवैधानिक उपाय माना गया था और इसकी समयसीमा तय हुई थी लेकिन बाद में वोटों की राजनीति के तहत निर्णय किए जाते रहे। समानता के लिए पहला कदम जातिवार जनगणना के जरिए जातियों के संबंध में सही आंकड़े इकट्ठा करना था लेकिन इससे सभी सरकारें बचती रहीं। शासक वर्ग ने समस्या का हल करने और उपेक्षित जातियों को समानता तक लाने के स्थान पर आरक्षण को पैंतरे की तरह प्रयोग किया। वह अंग्रेजी की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति के तहत चलते रहे। फूट नहीं होती तो सत्ता के समीकरण वो नहीं होते, जो आज हैं। जातिगत विभाजन की कोशिशें 1932 में शुरू हुर्इं जब कम्युनल अवार्ड से अनुसूचित जातियों और जनजातियों को शेष हिंदुओं से अलग किया गया। इसके बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों को उस शूद्र समाज से भी अलग किया जो एक इकाई के रूप में जाति-व्यवस्था के खिलाफ लम्बे समय से संघर्षरत था। 1907 में डिप्रेस्ड क्लासेस लीग बनने से लेकर 1932 तक जाति-व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाला यही एक जरिया था। ब्रिटिश सरकार के बाद कांग्रेस भी उसी नीति पर चली।
तय है कि इससे अनुसूचित जातियों में बेचैनी का भाव है। वह किसी भी तरह आरक्षण का अपना हक खोना नहीं चाहतीं। याद कीजिए, मंडल आयोग की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद की स्थिति को। तब इंदिरा साहनी मामले (1992) में आए इस फैसले के पश्चात अनुसूचित जातियों ने पिछड़े वर्गों पर क्रीमीलेयर का संविधान-विरोधी सिद्धांत लागू करने का विरोध नहीं किया क्योंकि यह उनके आरक्षण पर लागू नहीं हुआ था। इसी तरह पदोन्नति में आरक्षण का निषेध भी पिछड़े वर्गों के संदर्भ में ही हुआ था, यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर लागू नहीं होता था। फिर भी उन्हें चिंता हुई कि यह नियम किसी भी दिन उन पर भी लागू हो सकता है। उन्होंने राजनेताओं पर जोर डालना शुरू किया कि उनकी पदोन्नतियों में आरक्षण को सुरक्षित रखा जाए पर पिछड़ों को भी पदोन्नतियों में आरक्षण मिले यह मांग उन्होंने कभी नहीं की। देश में अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग की सियासत के रूप में भी राजनीति का वर्गीकरण हुआ है। बसपा जैसे दल जहां खुलकर अनुसूचित जातियों की सियासत करते हैं, वहीं अन्य कई पार्टियां पिछड़े वर्ग की भावनाओं का इस्तेमाल कर रही हैं। मौजूदा स्थिति बसपा के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है क्योंकि आरक्षण का मसला उसके वोट बैंक से सीधे जुड़ा हुआ है। राज्यसभा में मर्यादाओं से आगे बढ़कर सभापति हामिद अंसारी पर कटाक्ष का मायावती का मकसद भी यही था कि उनके वोट बैंक के पास यह संकेत कतई न जाए कि उनका रवैया ढीला है। अनुसूचित जातियों के वोटों पर कांग्रेस की भी नजर है, इसीलिये वह संविधान संशोधन विधेयक को किसी तरह पारित कराना चाहती है। यह वही कांग्रेस है जिसने 1995 में संविधान संशोधन के माध्यम से ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था की थी और पिछड़े वर्गों को इसमें शामिल नहीं किया था। इससे अनुसूचित जातियां और जनजातियां प्रसन्न हुई थीं कि पिछड़ों को यह लाभ नहीं मिलेगा। 1992 के फैसले में यह व्यवस्था भी थी कि कोटे के जो पद भरे नहीं जाएंगे वे खत्म नहीं होंगे बल्कि जमा रहेंगे। हालांकि उसने आरक्षण पर पचास प्रतिशत की सीमा बांध दी थी। आरक्षण के इस मसले पर सभी सरकारों का जो रवैया रहा है, वह कुल मिलाकर निराशाजनक ही कहा जा सकता है। सरकारें वोट बैंक के आधार पर फैसले कर रही हैं और सामाजिक असंतुलन की स्थिति से मुंह मोड़े हुए हैं। जरूरत सतर्क विश्लेषण और निर्णय की है। सरकारी नौकरियों में चयन सरकार की अपनी ही दी हुई एक निश्चित व्यवस्था के अधीन होता है। इसके बावजूद यदि उसे लगातार आरक्षण का दायरा बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है तो तय है कि उसकी खुद की व्यवस्था में ही खामियां हैं। और अपनी दी हुई व्यवस्था की निष्पक्षता पर स्वयं सरकार का ही भरोसा नहीं है, बाकी जनता उस पर कैसे विश्वास कर सकती? यह सीधे तौर पर स्वयं सरकार की अपनी अक्षमता और विफलता है। अगर स्वतंत्रता के बाद से अब तक के 65 वर्षों में आरक्षण की व्यवस्था से हम उपेक्षित वर्गों का उत्थान सुनिश्चित नहीं कर पाए तो साफ है कि हम भविष्य में भी कामयाब होने का सपना नहीं पाल सकते। यह सिर्फ एक प्रलोभन है और किसी के हित के अनुकूल नहीं।
Monday, December 3, 2012
सियासी बिसात पर सपा का जाति कार्ड
उत्तर प्रदेश में सियासत की नई बिसात बिछ रही है। सपा ने लोकसभा चुनावों की रणनीति के तहत जातिवाद का वह कार्ड चलने की तैयारी की है जो विपक्षी बसपा की नींद उड़ा रहा है। वह 17 उन जातियों को पिछड़ी से अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने जा रही है, जो अब तक बसपा की वोट बैंक कही जाती थीं। ज्यादा फायदे का सौदा किसे पसंद नहीं, सत्ता की इस रिश्वत से वोट बैंक का हस्तांतरण तय माना जा रहा है। सपा का यह दांव अन्य विपक्षी दलों पर भी भारी पड़ना तय है।
निषाद, मल्लाह, केवट, बिंद, कश्यप, कहार, राजभर अब तक बसपा की वोट बैंक हैं। इन जातियों के कार्यकर्ताओं की बात छोड़ें, सबसे ज्यादा नेता तक बसपा में हैं। सरकार ने इन जातियों समेत 17 उप जातियों को फिर से अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने के लिए उप समिति गठित की है। कैबिनेट से गठित इस उप समिति की सिफारिश पर राज्य सरकार केंद्र को रिपोर्ट भेजेगी, क्योंकि अनुसूचित जाति में शामिल करने या हटाने की प्रक्रिया केंद्र स्तर पर ही सम्पन्न की जाती है। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में इस सम्बन्ध में प्रस्ताव भेजा गया था, उप समिति दो महीने के भीतर नई संस्तुतियां भेजेगी। बसपा विरोध कर रही है। उसका कहना है कि यदि प्रस्ताव भेजा ही जा चुका है, तो उप समिति के गठन का औचित्य क्या है। सत्ता हाथ से जाने के बाद मानसिक तौर पर शून्य की सी स्थिति में पहुंच गई बसपा काट ढूंढ नहीं पा रही। वह प्रदेश के अवाम का मिजाज जानती है जो जाति और धर्म को प्रथम प्राथमिकता दिया करता है। यह वह राज्य है जहां वोट हासिल करने के लिए जाति और धर्म के प्रयोग की लम्बी परंपरा है। किसी समय यहां ह्यअजगरह्ण और ह्यमजगरह्ण की बात हुआ करती थी। अहीर, जाट, गूजर और राजपूत इस समीकरण के सबसे बड़े आधार होते थे। मुस्लिम वोट लंबे समय तक कांग्रेस के माने जाते थे, पर बाद में जब समाजवादियों के कारण उनका वोट बैंक बना, तो उसमें मुस्लिमों को शामिल कर उसे ह्यमजगरह्ण कहा जाने लगा। सपा मुस्लिमों में बसपा से बढ़त प्राप्त करती रही है। दलित और पिछड़े वोटों को भुनाने के लिए यहां प्रतिस्पर्धा है। पिछड़े और अशिक्षित उत्तर प्रदेश से जब उत्तराखंड को अलग किया गया, तब से राजनीतिज्ञों के मन में यह बात घर कर गई कि भविष्य में प्रदेश का और भी विभाजन हो सकता है इसीलिए मायावती ने प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव तैयार किया। कहा जाता है कि मायावती के समर्थक पहले वोट, फिर रोटी के नारे पर मतदान के दिन सुबह ही घर से निकला करते हैं और वोट डालकर ही अन्य काम किया करते हैं। उन्हें डर रहता है कि बाद में उनके वोट फर्जी ढंग से बसपा से इतर किसी अन्य प्रत्याशी को न पड़ जाएं। इन समर्थकों में सबसे ज्यादा अनुसूचित जाति के लोग हैं। सपा हो या अन्य कोई दल, बसपा के इन जुनूनी मतदाताओं पर सभी की लार टपकती रहती है। इन्हें अपनी ओर लाने की कोशिशें भी इसीलिये की जाती हैं। राज्य में मुसलमान वोटों की मारामारी भी कम नहीं है। आपातकाल के बाद मुस्लिम वोट भले ही कांग्रेस की झोली से निकल गए हों, पर वे जिसको भी मिले, एकमुश्त मिले, इसलिए हर पार्टी इनको लुभाने के दांव चलती रही। सपा के बाद मुस्लिम मत बसपा और कांग्रेस में बंटते नजर आते हैं। केंद्र सरकार ने इस वोट बैंक को रिझाने के लिए कई प्रयास किए हैं। उसने उन्हें पिछड़ों के कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव रखा है। प्रभावशाली देवबंद मदरसे को खुश करके अपना घोड़ा आगे बढ़ाया है।
पिछले कुछ वर्षों से कानून-कायदे और संसद में पास होने वाले बिलों में भी इस स्वर को अधिक बुलंद किया गया कि कांग्रेस मुस्लिमों के प्रति समर्पित है। आतंकवाद के आरोपियों को विभिन्न जेलों से छोड़े जाने और उन पर लगे आरोपों को निरस्त कराने की कवायद भी यह पार्टी करती रही है। हालांकि इस होड़ में अब सपा भी है, उसने दंगों समेत तमाम गंभीरतम आरोपों में फंसे लोगों से मुकदमे वापस लेने की कवायद शुरू की है, उसके यह प्रयास अदालती चक्रव्यूह में फंसे हैं और उनकी आलोचनाएं भी हुई हैं। मुस्लिम मतों पर इतनी मारामारी है कि इतने प्रयासों पर भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को उतनी अहमियत नहीं दी गई जितनी उसने अपेक्षा की थी। एक समय था कि मुस्लिम मतदाताओं पर उनके नेताओं की जोर-जबर्दस्ती चलती थी, पर पिछले वर्षों में मतदाता परिपक्व हुआ है। नेता तो ठीक, अब तो मौलानाओं के फतवों की भी चिंता वह नहीं किया करता है। दरअसल, वर्तमान पीढ़ी की सोच बदली है। वह धमकी और लालच से परे है, इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि कोई भी दल उन्हें आसानी से फुसला सकता है। यह समस्या और है, जनमोर्चा, यूनाईटेड फ्रंट, पीस पार्टी, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल, वेलफेयर पार्टी आॅफ इंडिया जैसे दल भी मुस्लिम मतों पर हिस्सा बंटाने आ गए हैं। गत चुनावों में इन्हें भी खासे वोट हासिल हुए हैं। स्थानीय मुसलमानों पर अपनी पकड़ के चलते कई इलाकों में इन दलों ने राज्य और राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का खेल बिगाड़ा है। प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक की चर्चा करते वक्त यह भी ध्यान में रखा जाना जरूरी है कि यहां कुल 16 प्रतिशत वोटों में 11 प्रतिशत वोट सुन्नियों के हैं और पांच प्रतिशत शियाओं के। यदि विधानसभा सीट वार आंकलन करें तो 23 विधानसभा सीटों पर शिया निर्णायक हैं जबकि 106 सीटों पर शिया मतदाता हैं। सुन्नी मुस्लिमों की संख्या प्रदेश में तमाम सीटों पर अच्छी-खासी हैं, विशेषकर मुरादाबाद, आगरा, कानपुर, वाराणसी आदि में। मुस्लिम मतों पर इसी आपाधापी और अपना अच्छा स्थान होने से निश्चिंत सपा ने इसीलिये बसपा के वोट बैंक मानी जाने वाली जातियों को अपने पाले में खींचने की कोशिशें की हैं। इनके अनुसूचित जाति में शामिल होने का प्रदेश की सियासत पर बड़ा असर पड़ेगा, यह तय है। सपा ने समझदारी से बड़ा कार्ड चला है, इससे न केवल बसपा या कांग्रेस बल्कि कांग्रेस के खेमे में भी बड़ी हलचल मची है। सत्ता के इस प्रस्ताव की काट उन्हें ढूंढे नहीं मिल रही। लोकसभा चुनावों के लिए सपा का यह बड़ा दांव है।
Wednesday, November 28, 2012
कांग्रेस की राहुल से उम्मीदें
'जाएंगे तो लड़ते हुए जाएंगे' के जिस नारे के आसरे कांग्रेस आर्थिक सुधारों का फर्राटा भरने वाले मनमोहनी अर्थशास्त्र की अपनी लीक पर चल रही है और उसी की थाप पर उसके युवराज राहुल गांधी आगामी लोकसभा चुनाव का रास्ता तैयार कर रहे हैं। वहीं मनमोहन सिंह के पास भी कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को पूरा करने की एक बड़ी चुनौती सामने खड़ी है। प्रश्न यह है कि आधी-अधूरी रणनीति के दम पर अभी तक हर चुनावी समर में उतरे राहुल से ज्यादा उम्मीदें करना क्या ठीक रहेगा?
सूरजकुंड के मंथन में तय हो चुका है कि कांग्रेस को राहुल की अगुवाई में ही 2014 का रास्ता तय करना है और पार्टी ने इसी को ध्यान में रखकर राहुल को राष्ट्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाया है। गौर करने लायक बात है कि इस पूरी उपसमिति में भी सोनिया के सलाहकारों की छाप साफ देखी जा सकती है। जहां गठबंधन और चुनावी घोषणा पत्र वाला विभाग सोनिया के सबसे भरोसेमंद एके एंटनी के पास है तो वहीं प्रचार-प्रसार का जिम्मा गांधी परिवार के सबसे वफादार दिग्विजय सिंह संभालेंगे। राहुल को आगे करने की अटकलें कांग्रेस में लम्बे समय से चल रही थीं। सूरजकुंड के बाद पार्टी के किए गए फैसलों ने एक बात तो साफ कर दी है कि आने वाला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन के बजाए राहुल गांधी को प्रोजेक्ट करके लड़ने जा रही है। इस चुनाव में पार्टी के टिकट आवंटन में भी राहुल गांधी की ही चलेगी और वही नेता टिकट पाने में कामयाब होगा जो राहुल गांधी की चुनावी बिसात के खांचे में फिट बैठेगा। ऐसा ना होने की सूरत में कई नेताओं के टिकट कटने का अंदेशा अभी से बनने लगा है। पार्टी में एक बड़ा तबका लम्बे समय से उनको आगे करने की बात कह रहा था। खुद मनमोहन सिंह भी उनसे मंत्रिमंडल में शामिल होने का आग्रह कर चुके थे। राहुल को कांग्रेस आने वाले लोकसभा चुनाव में उस ट्रंप कार्ड के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रही है जो अपनी काबिलियत के बूते देश में युवाओं की एक बड़ी आबादी के वोट का रुख कांग्रेस की ओर मोड़ सके। लेकिन राहुल गांधी की राह आने वाले दिनों में इतनी आसान भी नहीं है। 2009 के लोकसभा चुनावों में भले ही वह पार्टी के सेनापति रहे थे लेकिन जीत का सेहरा मनमोहन की मनरेगा, आरटीआई, किसान कर्ज माफी जैसी योजनाओं के सिर ही बंधा था। उस दौर को अगर याद करें तो आम युवा वोटर राहुल गांधी में एक करिश्माई युवा नेता का अक्स देख रहा था और भारतीयों के एक बड़े मध्यम वर्ग को लुभा रहा था क्योंकि वह आम आदमी से जुड़ने चले थे। वह दलितों के घर आलू-पूड़ी खाने जाते थे, कलावती सरीखी महिला के दर्द को संसद में परमाणु करार की बहस के दौरान उजागर करते थे। लेकिन संयोग देखिये राजनीति एक सौ अस्सी डिग्री के मोड़ पर कैसे मुड़ जाती है, यह कांग्रेस को अब पता चल रहा है। अभी मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से तो घिरी ही है। साथ ही ‘आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ’ जैसे नारों की भी हवा निकली हुई है क्योंकि महंगाई चरम पर है। सरकार ने घरेलू गैस की सब्सिडी सीमित कर दी है जिससे उसका ग्रामीण मतदाता भी नाखुश है और इन सबके बीच राहुल ने पार्टी के सामने नई जिम्मेदारी ऐसे समय में दी है जब बीते चार बरस में मनमोहन सरकार से देश का आम आदमी नाराज हो चला है। वह भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई, घरेलू गैस की सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे से लेकर तेल की बड़ी कीमतों के साथ ही, एफडीआई के मुद्दे पर सीधे घिर रही है। देश की अर्थव्यवस्था जहां सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है, वहीं आम आदमी का नारा देने वाली कांग्रेस सरकार से आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है क्योंकि उसका चूल्हा इस दौर में नहीं जल पा रहा है। यह सरकार अपने मनमोहनी इकोनॉमिक्स के जरिए आम आदमी के बजाए कारपोरेट घरानों पर दरियादिली ज्यादा दिखा रही है। ऐसे निराशाजनक माहौल के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में है कि राहुल गांधी को आगे करने से उसके भ्रष्टाचार के आरोप धुल जायेंगे तो यह बेमानी ही है। यूपीए-2 की इस सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियों के तौर पर कोई बड़ा काम नहीं हुआ है। उल्टा कांग्रेस कॉमनवेल्थ, 2-जी, कोलगेट जैसे घोटालों पर लगातार घिरती रही है जिससे उसका इकबाल कमजोर हुआ है। ऊपर से रामदेव, अन्ना के जनांदोलन के प्रति उसका रुख गैर जिम्मेदाराना रहा है जिससे जनता में उसके प्रति नाराजगी का भाव है। देश में मजबूत विपक्ष के गैप को अब केजरीवाल सरीखे लोग भरते नजर आ रहे हैं। ऐसे निराशाजनक माहौल में कांग्रेस के युवराज के सामने पार्टी को मुश्किलों से निकालने की बड़ी चुनौती सामने खड़ी है क्योंकि राहुल को आगे करने से कांग्रेस की चार साल में खोयी हुई साख वापस नहीं आ सकती। दाग तो दाग हैं, वह पार्टी का पीछा नहीं छोड़ सकते। ऊपर से आम आदमी के लिए आर्थिक सुधार इस दौर में कोई मायने नहीं रखते। उसके लिए दो जून की रोजी-रोटी ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन सरकार का ध्यान विदेशी निवेश में लगा है। वह आम आदमी को हाशिये पर रखकर इस दौर में कारपोरेट के ज्यादा करीब नजर आ रही है । ज्यादा समय नहीं बीता जब 2009 में 200 से ज्यादा सीटें लोक सभा चुनावों में जीतने के बाद कांग्रेस का बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु के विधान सभा चुनावों में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। उत्तराखंड में लड़खड़ाकर कांग्रेस संभली जरूर लेकिन यहां भी भाजपा में खंडूरी के जलवे के चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत से दूर ही रही। इन जगहों पर राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार की कमान खुद संभाली थी। संगठन भी अपने बजाय राहुल के करिश्मे की सोच रहा था लेकिन लोगों की भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो पाई और चुनाव निपटने के बाद राहुल गांधी ने भी उन इलाकों का दौरा नहीं किया जहां कांग्रेस कमजोर नजर आई। चुनाव निपटने के बाद संगठन को मजबूत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गए जबकि दूसरी परीक्षा में पास होने की बड़ी चुनौती राहुल के सामने खड़ी है।
Tuesday, November 27, 2012
सोना और महंगाई का रिश्ता
सोने आज उस मूल्य पर है, जहां पहले कभी नहीं था। कभी शादी-ब्याहों के मौसम में महंगाई का रास्ता पकड़ने वाली यह पीली धातु अब सालभर रफ्तार पर रहने लगी है। यह संकेत है महंगाई बढ़ने का। मौद्रिक नीति में भारतीय रिजर्व बैंक की कड़ाई के बावजूद ब्रेक जरूर लगा किंतु ठहराव नहीं आया है। कीमतों में स्थिरता के मोर्चे पर भारत अन्य देशों से पिछड़ रहा है। सोने का बढ़ता आयात बता रहा है कि लोगों में इसकी दीवानगी बढ़ रही है। दरअसल, सोने की कीमतों और महंगाई का महत्वपूर्ण सम्बन्ध है।
मुद्रास्फीति की गति में लगातार वृद्धि की कई तरह से विवेचना की जा सकती है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि पहली श्रेणी में शुरूआत में ही मौद्रिक चक्र में सख्ती न करने के कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है यानि देश के नीति-नियंताओं की लापरवाही इसकी वजह बनती है। फिर घरेलू खाद्य कीमतों में इजाफे से महंगाई उछाल पाती है। यह स्थिति न्यूनतम समर्थन मूल्य के रास्ते आती है। मानते तो यह भी हैं कि सरकारी पात्रता योजनाओं के कारण ग्रामीण लोगों की आय में वृद्धि से कीमतों पर दबाव बढ़ा है। पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड नहीं आती थी, वहां कृषि से आय प्रमुख थी इसलिये यह समस्या पिछले तीन दशकों से लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर विभिन्न खाद्यान्नों की ऊंची कीमत भी इसके लिए जिम्मेदार रही है। रिजर्व बैंक जो रास्ता अपनाती है, उस रास्ते यानि ब्याज दरों में बदलाव के जरिये मुद्रास्फीति पर नियंत्रण का तरीका यह है कि इससे मौजूदा निवेश और खपत को प्रभावित किया जाए। इसके तहत ऋण को और महंगा किया जा सकता है। केंद्रीय बैंक ने पिछले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में रेपो दर में 13 बार वृद्धि की, और इसे पौने पांच से बढ़ाकर साढ़े आठ प्रतिशत तक पहुंचा दिया। इस अवधि का जिक्र इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यही वो काल था जब सरकार केंद्रीय बैंक के जरिए महंगाई पर काबू करने का पहला अस्त्र चला रही थी। हालांकि इसका असर उतना नहीं हुआ जितना अपेक्षित था और थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पांच-साढ़े पांच फीसदी के सहज दायरे से बाहर चली गई। इस प्रयोग का मनचाहा नतीजा न निकलने के बाद अर्थशास्त्री मानने लगे कि मुद्रास्फीति के आंकलन के बारे में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ज्यादा कारगर है। इस सूचकांक के अनुसार अप्रैल 2012 से मुद्रास्फीति की दर नौ-दस फीसदी के इर्द-गिर्द बनी हुई है। उल्लेखनीय यह है कि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में मुद्रा के मुद्रण का काम सन 2007 के पश्चात पूर्ववर्ती समय की तुलना में अधिक तेजी से चल रहा है। तमाम सर्वेक्षणों, यहां तक कि सरकारी राष्ट्रीय सैंपल सर्वे आफिस के भी सर्वे, का निष्कर्ष है कि गत कुछ वर्षों में देश में लोगों की निजी संपत्ति और हैसियत में जबर्दस्त तेजी आई है। संपत्ति में हुई इस वृद्धि के मूल में अक्टूबर 2009 से करीब एक वर्ष तक वैश्विक स्तर पर स्वर्ण की कीमतों में 75 फीसदी की तेजी बड़ा कारण है।
याद करें, तब सोने की कीमत प्रति औंस 1000 डॉलर के मुकाबले 1750 डॉलर प्रति औंस तक पहुंच गई थी। रुपये की कसौटी पर कसें तो यह अंतर और भी अधिक है। आयात के आंकड़ों का जिक्र भी प्रासंगिक है, भारत में सोने का आयात 13 हजार से 40 हजार टन के बीच है। इसके पीछे भारत के लोगों में सुरक्षित निवेश के तौर पर बड़ी मात्रा में सोना भंडारित करने का चलन है। सोने से बेइंतिहा प्रेम करने वाला भारत अकेला देश है। यहां महिलाओं की भी यह पसंदीदा धातु है। गरीब हो या अन्य किसी भी तबके की, हर महिला चाहती है कि उसके पास सोने का अच्छा-खासा संग्रह हो ताकि वक्त-जरूरत उसे बेचकर काम भी चलाया जा सके। यह तथ्य भी कम उल्लेखनीय नहीं है कि केवल सोना ही कोई ऐसी वैश्विक जिंस नहीं जिसके मूल्यों में इतनी तेजी से वृद्धि हुई हो। सोने में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो उसे अन्य जिंसों से अलग खड़ा कर देती हैं। यह पीढ़ियों तक घरों में रखी जाती है, यही नहीं यह पीढ़ी दर पीढ़ी अन्य संपत्तियों की तरह हस्तांतरित भी होती है। सोने को मानक मानना पुरानी बात है। बावजूद इसके, आधिकारिक दस्तावेजों में आज भी विभिन्न देशों के सरकारी खजानों और अन्य संस्थानों में रखे हुए स्वर्ण भंडारों को विदेशी मुद्रा के बराबर माना जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक वर्ष 2009 में भारत में निजी तौर पर 17 हजार टन सोने का स्टॉक था जिसकी कीमत वर्ष 2012 के अक्टूबर महीने में तकरीबन 960 अरब डॉलर यानी कुल जीडीपी के 50 फीसदी से ज्यादा थी। इससे तीन साल पहले यह मात्र 550 अरब डॉलर था। देश में लोगों के बाद ज्यादा वित्तीय परिसंपत्तियों की कीमतों में गिरावट के दौरान भी सोने के मूल्यों में हुई बढ़ोतरी ने एक सीमा तक घरेलू खपत को सहारा दिया है। माना यह जा रहा है अगर सोने की कीमतों में तेजी का क्रम आगे भी जारी रहता है तो देश के मौद्रिक प्रशासन को मुद्रास्फीति को काबू करने में और अधिक मशक्कत करनी पड़ेगी। सरकार इस मोर्चे पर सोच नहीं रही। वह भी तब जबकि देश की कमान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथों में है। सन् 1991 में वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन ने नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में आर्थिक उदारवादी नीति अपनाई और विदेशी निवेश को आमंत्रित किया। इससे देश में विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ, परन्तु उनका यह महत्वपूर्ण निर्णय देश के तत्कालीन हालात के वशीभूत होकर मजबूरी में उठाया गया कदम था, न कि सरकार की कल्याणकारी नीतियों का नतीजा। तब हालात ऐसे थे कि आवश्यकता पूरी करने के लिए पेट्रोलियम पदार्थों को खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भी खजाने में नहीं थी। रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर तेल खरीदना पड़ा था। मनमोहन ने इसी वजह से उदारवादी अर्थव्यवस्था का मार्ग अपनाया था। कोशिश थी कि देश में विदेशी मुद्रा का प्रवाह हो सके और विश्व पटल पर साख बच जाए। बाद की सरकारों में भी स्थितियां बहुत बदली नहीं और अन्य दलों की सरकारें भी नीति बदल नहीं पार्इं। कोई यदि उदारवादी नीतियों के लिए मनमोहन को श्रेय देता है तो यह उसकी गलती है। दरअसल, यह देश की अर्थव्यवस्था की मजबूरी ही है।
Sunday, November 25, 2012
'आप' से आम आदमी की उम्मीदें
समाजसेवी अन्ना हजारे के साथ उठे जनांदोलन के तूफान में एक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने अपनी नई सियासी पार्टी का गठन कर लिया है, नाम दिया है आम आदमी पार्टी। शॉर्टफॉर्म में कहें तो 'आप'। लेकिन सवाल कई खड़े हैं। केजरीवाल एक ऐसे अभियान पर निकले हैं जहां जीत के पीछे अब तक हथकंडों की नई-नई कहानियां हुआ करती हैं। राजनीति शब्द चाहे चार अक्षरों का मेल है लेकिन इसके अच्छे अर्थ कम और बुरे शब्दों की इंतिहा है। समस्या यह भी है कि केजरीवाल ने अपनी पार्टी का गठन तो राष्ट्रीय स्तर के नतीजे पाने की आस में किया है पर पहुंच कुछ क्षेत्रों तक सीमित है। अभी तक राजधानी दिल्ली तक ही उनकी धमक बार-बार दिखती रही है, देश के बाकी हिस्से सिर्फ उनकी कथा-कहानियां सुना, सुनाया करते हैं।
कुछ समय पहले अन्ना नाम की आंधी चली जिसमें सरकार की नींद गुम सी हो गई। जनलोकपाल लाने के उद्देश्य से अन्ना हजारे के नेतृत्व में एक टीम अन्ना का गठन किया गया। परंतु दुर्भाग्यवश अन्ना टीम जनलोकपाल बिल को तो पास नहीं करा पाई लेकिन अंदरूनी मतभेद बढ़ता देख अन्ना को अपनी टीम भंग करना पड़ी। लेकिन समाज के लिए नासूर बन चुके भ्रष्टाचार को समाप्त करने का जो कार्य अन्ना टीम नहीं कर पाई उसे पूरा करने का बीड़ा अन्ना टीम का मुख्य चेहरा रहे मैगसेसे अवॉर्ड विजेता अरविंद केजरीवाल ने उठाया है। आंदोलन की शुरुआत में केजरीवाल सत्ताधारी दल को निशाना बनाकर नए-नए घोटालों और भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर कर रहे थे। माना जा रहा था कि वह विपक्षी दलों के साथ मिलकर आगामी लोकसभा चुनावों के चेहरे को बदलकर रख देंगे। लेकिन अब जब उन्होंने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भी आरोप लगाने शुरू कर दिए हैं तो संसद तक पहुंचने की उनकी रणनीति के सफल होने पर संदेह उठने लगे हैं। नि:संदेह केजरीवाल का स्वघोषित उद्देश्य काबिल-ए-तारीफ है लेकिन जिस रणनीति पर चलकर वह अपने उद्देश्य को पाने की कोशिश कर रहे हैं वह कितनी सफल होगी इस बात पर बहस शुरू हो गई है। एक तरफ वह चाहते हैं कि अपने खुलासों से जनता को जागरूक करें ताकि आगामी चुनावों में वह अपने वोट का सही प्रयोग कर उन्हें संसद तक पहुंचाए। ह्यआम आदमीह्ण की मानसिकता और विचारों पर पूरी तरह से भरोसा करने के बाद केजरीवाल सत्ताधारी पार्टी के साथ-साथ विपक्षी दलों को भी आरोपों के निशाने पर लेने लगे हैं। कोशिश यह है कि पार्टी विशेष नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्ट नेताओं की पोल खोलकर उनकी सच्चाई जनता के सामने लायी जाए। आदर्शवाद की राजनीति के सहारे वह वास्तविक लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं। उनकी रणनीति की सफलता पर संदेह करने वाले लोगों का कहना है कि केजरीवाल जिस आदर्शवाद को प्रधानता देकर जनता की सोच को महत्व दे रहे हैं वह उनके सभी प्रयासों को असफल कर देगा। वह भूल गए हैं कि भारत की जनता चंद रुपयों और जरा से लालच के लिए अपना वोट बेच देती है। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जब प्रत्याशी पर लगे गंभीर आरोपों के बाद भी जनता उसे वोट देकर कुर्सी पर बैठा देती है। इसे उसकी विवशता कहें या फिर आदत लेकिन धनबल और बाहुबल के कारण जनता अपना वोट बेचने में देर नहीं करती। देश का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि एक सच्चे इंसान के लिए जनता तालियां तो बजा सकती है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का बटन दबाने से पहले उसकी आंखें तमाम प्रलोभनों, निजी स्वार्थों और जाति-धर्म जैसे फुसलावों पर रास्ता भटक जाती हैं।
जनता के सपनों को पूरा करने का दावा और वादा कर रहे केजरीवाल के सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं, जिनसे वे समय रहते पार नहीं पाए तो अगले आम चुनाव में अप्रासंगिक भी हो सकते हैं। सामाजिक आंदोलनों के मैदान से आकर ताजा-ताज नेता बने केजरीवाल की सक्रियता पर निगाह दौड़ाएंगे तो यह साफ हो जाएगा कि भारतीय राजस्व सेवा के इस पूर्व अधिकारी के नेतृत्व में आयी नयी पार्टी के पास कोई रणनीति नहीं है। केजरीवाल ने केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के एनजीओ में अनियमितताओं को लेकर दिल्ली में प्रदर्शन करते हुए शुरू में कहा था कि पुलिस उन्हें जेल ले जाती है तो वे जेल से नहीं निकलेंगे। जेल से छूटते ही केजरीवाल ने संसद मार्ग का रुख कर लिया। फिर कहा कि जब तक खुर्शीद इस्तीफा नहीं देते, तब तक उनका धरना जारी रहेगा। लेकिन फिर फर्रुखाबाद में रैली का ऐलान कर धरना खत्म कर दिया। भले ही वे आम लोगों के बीच उम्मीद जगाते हैं, लेकिन वे अपनी किसी बात पर बहुत देर तक टिकते नहीं दिख रहे। केजरीवाल के आंदोलन के सुर आदर्शवाद के इर्दगिर्द ज्यादा सुनाई पड़ते हैं। कुछ लोगों को लेकर दिल्ली में प्रदर्शन कर ताकतवर मंत्री और केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक चेहरे के रूप में राजनीति कर रहे खुर्शीद का इस्तीफा महज नारों और आरोपों के सहारे लेने की कोशिश को आदर्शवाद ही माना जाएगा। इसके अलावा केजरीवाल की प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी के आगे की राह को लेकर भी तस्वीर साफ नहीं लगती। एक और उदाहरण है, उन्होंने पिछले दिनों अपने समर्थकों से कहा कि जो लोग देश के लिए काम करना चाहते हैं, वे अपने नाम उनके पास नोट कराएं। लेकिन इसके साथ ही यह ताकीद भी दी कि सिर्फ नाम लिखवाने से काम नहीं चलेगा, बल्कि बुलाए जाने पर आना भी होगा। साफ है कि अरविंद को अपने साथ जोड़ने के लिए लोगों की जरूरत है, क्योंकि उनके पास कोई संगठन नहीं है। राजनीतिक पार्टी के ऐलान के बाद अब वह अपने संगठन को औपचारिक स्वरूप देने की कवायद शुरू करेंगे। लेकिन देश के हर ब्लॉक, जिले और प्रदेश में संगठन खड़ा करना इतना आसान नहीं है। समय भी ज्यादा नहीं है क्योंकि 2014 के चुनाव महज सवा-डेढ़ साल दूर हैं। अन्ना का साथ न होना भी केजरीवाल को खल रहा होगा। अन्ना के साथ देश भर में कई लोग जुड़े हुए हैं।
Friday, November 23, 2012
सियासी अखाड़े में चित्त ममता
बिना तैयारी के लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव ने तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां कम से कम खुशी से कोई नहीं जाना चाहेगा। इतना हो-हल्ला करना और समर्थन के नाम पर अकेले बीजू जनता दल का सामने आना, ममता की बड़ी सियासी मात है। इससे सत्ताधारी यूपीए की नेता कांग्रेस को ममता का मजाक उड़ाने का मौका मिल गया है। संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले छिड़ी बेमुरव्वत जंग में, सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता अपने कल तक के सहयोगियों को यह कहकर चिढ़ाने से नहीं हिचक रहे हैं कि जनतंत्र के इतिहास में पहली बार है कि एक पार्टी ने अविश्वास प्रस्ताव लाना पहले तय कर लिया और उसके लिए लोकसभा में पचपन की संख्या पूरी करने के लिए समर्थकों की खोज करने के लिए बाद में निकली। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि कहीं बनर्जी को एक बार फिर राष्ट्रपति चुनाव के मौके जैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ गई।
पाखंड, चाहे वामपंथ से बढ़कर वामपंथी दीखने का ही क्यों न हो, अक्सर ऐसे ही शर्मिंदा कराता है। ऐसी नौबत क्यों आती है, यह समझने के लिए किसी भारी राजनीतिक विद्वत्ता की जरूरत नहीं है। सचाई यह है कि जिस वामपंथ से बढ़कर कांग्रेस विरोधी नजर आने की कोशिश में तृणमूल कांग्रेस अपने अविश्वास प्रस्ताव को लेकर इतना उछल रही है, उसने ही नहीं विपक्ष के बाकी सभी घटकों ने भी, तृणमूल के प्रस्ताव के प्रति कोई गर्मजोशी नहीं दिखाई। इसकी वजह सीधे-सीधे संसदीय संख्याओं और राजनीतिक कतारबंदियों के उस गणित में है, जिसे ध्यान में रखते हुए वामपंथ ने खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने के सरकार के फैसले के खिलाफ, संसद के दोनों सदनों में ऐसे नियमों के तहत प्रस्ताव के लिए नोटिस दिए हैं, जिनमें चर्चा पर निर्णय मतदान से होने की व्यवस्था है। दूसरे शब्दों में इस तरह सरकार में विश्वास-अविश्वास के प्रश्न को बरतरफ करते हुए, खुदरा व्यापार में एफडीआई के फैसले पर जरूर, संसद के विश्वास-अविश्वास का निर्णय कराया जा सकता है। इस प्रस्ताव के सफल होने की संभावना ज्यादा होने की और अविश्वास प्रस्ताव की विफलता ही पहले से तय होने की वजह भी किसी से छुपी हुई नहीं है। वास्तव में अगर तृणमूल कांग्रेस के नाता तोड़ने के बाद भी मनमोहन सिंह की सरकार कम से कम अब तक लोकसभा में बहुमत साबित करने को लेकर बहुत आश्वस्त नजर आई तो इसीलिए कि समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी ने, सबसे बढ़कर अपनी आपसी प्रतिद्वंद्विता के चलते भी, यूपीए-द्वितीय की सरकार के लिए अपना आम समर्थन बनाया हुआ है। इन दोनों पार्टियों के चालीस से ज्यादा लोकसभा सदस्यों का समर्थन, कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार को बहुमत का भरोसा दिलाने के लिए काफी है। इसके विपरीत, खासतौर पर खुदरा व्यापार में एफडीआई के मुद्दे पर, समाजवादी पार्टी विरोध का दो-टूक रुख ही नहीं अपना चुकी है बल्कि सपा इसी निर्णय को केंद्र में रखकर वामपंथी पार्टियों व अन्य धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियों द्वारा किए गए, 20 सितंबर को देशव्यापी विरोध कार्रवाई के आह्वान में भी शामिल थी। इतना ही नहीं, सत्ताधारी यूपीए में अब भी शामिल, द्रमुक ने भी उक्त विरोध कार्रवाई के लिए समर्थन का ऐलान किया था। सच तो यह है कि यूपीए में शामिल पार्टियों के ससंदीय सत्र की पूर्व-संध्या में आयोजित भोज में भी द्रमुक ने प्रधानमंत्री को इसका इशारा किया कि एफडीआई के मुद्दे पर पर अगर मतदान की नौबत आयी, तो उसके लिए सरकार के पक्ष में खड़े होना मुश्किल होगा।
साफ है कि अगर सरकार के खिलाफ किसी प्रस्ताव के संसद में मंजूर होने की संभावनाएं हैं, तो खुदरा व्यापार में एफडीआई के खिलाफ प्रस्ताव के ही मंजूर होने की संभावनाएं हैं। मामला इससे बढ़कर राजनीतिक है। अविश्वास प्रस्ताव की निश्चित हार का मतलब है कि सरकार को अभयदान। इससे सरकार को अनावश्यक रूप से संसद में अपने बहुमत का सबूत पेश करने का बहाना मिलता। यह न सिर्फ अगले छ: महीने के लिए सरकार को किसी भी तरह के अविश्वास प्रस्ताव की चिंता से बरी कर देता, शेष शीतकालीन सत्र में सरकार को अपने सत्यापित बहुमत के डंडे से, अपनी तमाम आलोचनाओं को पीटने का भी मौका दे देता। इसके बाद, एफडीआई के मुद्दे पर संसद में किसी सार्थक चर्चा तथा निर्णय की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस तरह, खुद को वामपंथ से गर्मपंथी दिखाने की हड़बड़ी में तृणमूल कांग्रेस, वस्तुगत रूप से तो अपने पूर्व-सहयोगी की ही मदद करने पर उतारू नजर आई। तृणमूल कांग्रेस के और देश के भी दुर्भाग्य से, शेष विपक्ष की अनिच्छा के बावजूद, तृणमूल कांग्रेस विपक्ष को इस प्रकटत: आत्मघाती रास्ते पर घसीटने की कोशिश कर रही थी। इसका तृणमूल कांग्रेस के लिए कहीं कम नुकसानदेह रास्ता यह हो सकता था कि अन्नाद्रमुक तथा बीजू जनता दल जैसी पार्टियों से अविश्वास प्रस्ताव के लिए सांसदों की उसकी संख्या पूरी करा लेती। प्रस्ताव का गिरना और उसका कांग्रेस की मदद करना तो तय था, पर तृणमूल को शायद इसका ज्यादा राजनीतिक खामियाजा नहीं भुगतना पड़ता। दूसरी सूरत यह हो सकती है कि आगे चलकर एनडीए का विस्तार करने के अपने क्षुद्र स्वार्थ को देखते हुए, भाजपा तथा उसकी पहल पर एनडीए अनिच्छापूर्वक ही सही, सुश्री बनर्जी को मौजूदा मुश्किल से निकालने में मदद करने के लिए तैयार हो सकती थी। उस सूरत में अविश्वास प्रस्ताव के संबंध में वस्तुगत स्थिति तो नहीं बदलती पर तृणमूल कांग्रेस का एनडीए के समर्थन का अतीत जरूर फिर से प्रासंगिक होकर, उसके अल्पसंख्यक-हितैषी मुखौटे को दरका देता। दूसरे शब्दों में, ममता बनर्जी ने अपने लिए आगे कुंआ, पीछे खाई की स्थिति पैदा कर ली है। अविश्वास प्रस्ताव की उछलकूद, खुद उन्हें महंगी ही पड़ने जा रही है। इसकी शुरुआत हो चुकी है।
डिम्पल यादव में संतुलन का गुण
सैनिक परिवार की पृष्ठ भूमि से राजनीतिक परिवेश में आना और विभिन्न जातियों और विचार धाराओं के बीच संतुलन स्थापित करना, एक महिला के लिए कितनी मुश्किल परीक्षा होगी। घरेलू जिम्मेदारियों को निभाते हुए ऐसी राजनीतिक परीक्षा में उतरना जहां विभिन्न जातियों और विचार धाराओं के बीच संतुलन स्थापित करके चलना हो तो यह मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं? डिम्पल यादव को कभी यह एहसास नहीं रहा होगा कि एक दिन उन्हें अपने पितातुल्य ससुर और देश के प्रमुख राजनेता, परिवार के वरिष्ठ सदस्यों की मौजूदगी और भारी जनसमूह के सामने उस लक्ष्य की ओर सफलतापूर्वक चलना होगा जो उनके परिवार की राजनीतिक सफलताओं और मान मर्यादा को आगे बढ़ाता है। डिम्पल यादव से किया जाने वाला यह महत्वपूर्ण सवाल है कि उस रोज उन्हें कैसा लगा जब भारी जन समूह उनके बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था। डिम्पल भले ही आज एक असाधारण और खुले विचारों वाले राजनीतिक परिवार से हैं मगर उन्हें बड़ों के सामने पारिवारिक अनुशासन और लोक लिहाज और जन आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर चलना, राजनीति के अटपटे और अंतहीन संघर्षों की चुनौती से भरा है और वह अपनी कुशलता से इनका सामना भी कर रही हैं। जिस तरह से उन्होंने शीर्ष राजनीतिक परिवार से सम्बन्ध रखने के बावजूद अपनी पहचान अलग सिद्ध करने की कोशिश की है, उससे लगता है कि अन्य परिवारों की महिला सदस्यों की तरह न होकर वह अपना अलग मुकाम हासिल करेंगी।
Sunday, November 18, 2012
बाल ठाकरे की विरासत का सवाल
मराठा शेर बाल ठाकरे के अवसान पर यह सवाल सबको मथ रहा है कि हिन्दुत्व की राजनीति का अगला खेवैया कौन होगा होगा, राज ठाकरे या उद्धव ठाकरे? अपने चाचा बाल ठाकरे की शैली में सियासत करने वाले राज के बाद अपना अलग दल महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है जिसे उन्होंने छह साल में पाल-पोसकर बड़ा किया है। उद्धव के पास पिता की बनाई, पाली-पोसी शिवसेना है जिसका पूरे महाराष्ट्र के साथ कुछ अन्य राज्यों में संगठन है, कार्यकर्ता हैं। मुश्किल यह है कि उद्धव के पास तेवर नहीं। बाल ठाकरे चाहते थे कि राज और उद्धव फिर एक हो जाएं, हालांकि इस बारे में आंकलन अभी दूर की कौड़ी है और राज-उद्धव तैयार हो जाएं, यह संभव नहीं दिख रहा। फिर भी, यह संभव हो जाए तो शिवसेना में आया बल राजनीतिक समीकरणों में बड़ा उलटफेर कर देगा।
बाल ठाकरे के जीते-जी राजनीतिक हलकों में राज ठाकरे को उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था। राज का उठने-बैठने और यहां तक कि भाषण देने का अंदाज अपने चाचा पर गया था। उद्धव को भी पार्टी में ऊंचा मुकाम हासिल था लेकिन लोकप्रियता और स्वीकार्यता में वह राज से उन्नीस बैठते थे। पिछले विधानसभा चुनाव में जहां शिवसेना को 44 सीटें मिली थीं, राज ठाकरे की एमएनएस 14 सीटें जीतने में सफल हुई थी। दोनों भाइयों के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ती चली गई। उद्धव की बीमारी के दिनों में राज न सिर्फ उन्हें देखने अस्पताल पहुंचे बल्कि उन्हें अपनी कार में बैठा कर वापस मातोश्री लाए। राज की इस पहल पर कई लोगों की भौंहें तनी लेकिन दोनों कैंपों से यही प्रतिक्रिया आई कि इसके राजनीतिक अर्थ नहीं लगाए जाने चाहिए लेकिन राज के इस कदम को बारीकी से देखा जाए तो इसके गहरे राजनीतिक माने समझ में आते हैं। भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठबंधन कम से कम कागज पर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एनसीपी गठबंधन को हराने की क्षमता रखता है। बाल ठाकरे जैसे राजनीतिक रूप से सजग इंसान के लिए मौके की नजाकत को भांपना और उसका राजनीतिक फायदा उठाना बाएं हाथ का खेल था। बाल ठाकरे अब नहीं रहे। उनके घोषित उत्तराधिकारी उद्धव को एक महीने के अंदर दिल के दो-दो आॅप्रेशन कराने पड़े हैं। अंतिम क्षणों में बाल ठाकरे का अपने नाराज भतीजे से संपर्क साधना और उन्हें अपने चचेरे भाई से मतभेदों को दूर करने के लिए राजी करना, एक राजनीतिक सूजबूझ भरा कदम था। बाल ठाकरे का फॉर्मूला था कि अगले विधानसभा चुनावों के बाद राज को शिवसेना विधानमंडल दल का नेता बनाया जाए और उद्धव को पार्टी की कमान दी जाए। राज को इस फॉमूर्ले से कोई आपत्ति नहीं है लेकिन उद्धव की तरफ से इसे हरी झंडी नहीं मिली है। बाल ठाकरे के इस असंभव से समझे जाने वाले प्रस्ताव पर गुपचुप तरीके से ही सही लेकिन विचार तो चल रहा है लेकिन देखने वाली चीज यह होगी कि ठाकरे के जाने के बाद दोनों भाई उनकी विरासत को अक्षुण्ण रख पाते हैं या नहीं। पार्टी में फूट के बाद राज्य के दूरदराज इलाकों में हुए सर्वेक्षणों में संकेत मिले थे कि दोनों भाइयों का आपसी मतभेद कभी दुश्मनी में नहीं बदल सकता और कार्यकर्ता चाहते हैं कि दोनों पार्टियां फिर से एक हो जाएं। लेकिन अब, जबकि छह साल में पहली बार ठाकरे परिवार में मेल-मिलाप की जरूरत महसूस हो रही है तो क्या ये मुमकिन है कि नव निर्माण सेना शिवसेना में फिर से वापस चली जाए। इसका जवाब शायद अभी न मिले लेकिन दोनों पार्टियों का फिर से मिल जाना इतना आसान भी नहीं होगा। राज ठाकरे ने अपनी पार्टी को राज्यभर में स्थापित कर दिया है। चुनावी सफलताओं के कारण अब राज्य में उनकी पार्टी को संजीदगी से लिया जाता है। दूसरी तरफ शिव सेना के समर्थकों को अपनी तरफ खींचकर उन्होंने अपने भाई और चाचा की पार्टी को कमजोर करने का भी काम किया है।
अगर राज ठाकरे शिवसेना में लौटेंगे तो इसकी कीमत भी चाहेंगे। क्या उद्धव उन्हें वो पद देने के लिए तैयार होंगे जिसके न मिलने पर वो पार्टी से अलग हुए थे या फिर उन्हें उद्धव की बराबरी का कोई दर्जा दिया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो राज उद्धव को लोकप्रियता में काफी पीछे छोड़ देंगे। क्या उद्धव ये सियासी खुदकुशी करने को तैयार होंगे। दूसरी तरफ शिव सेना के नेतागण इस बात को जानते हैं कि राज ठाकरे की वापसी से 2014 के आम चुनाव और उसी साल होने वाले विधानसभा के चुनाव में पार्टी को जबर्दस्त फायदा होगा। इससे भी ज्यादा शिवसेना और नवनिर्माण सेना के जमीनी कार्यकतार्ओं की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो जाएगी। अब देखना है दोनों भाइयों की दोबारा दोस्ती का सफर ठाकरे परिवार तक ही सीमित रहता है या फिर राजनीति में अपना रंग लाता है। यहां यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि बाला साहेब खुद की तरह अपने बेटे को भी किंग मेकर बनाना चाहते थे। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, मैंने शुरू से यही किया। सत्ता से अलग रहा हूं। और चाहता हूं उद्धव भी ऐसा ही करे। मैंने उससे कहा है कि सत्ता के पीछे न भागे। इसके बदले सामाजिक काम करे। शिवसेना को अच्छी तरह चलाए। और लोगों को सत्ता हासिल करने का मौका दे। ताकि जनता के साथ न्याय हो सके। बाला साहेब के रहते ही शिवसेना के टुकड़े हुए थे, तब पिछड़े वर्ग के छगन भुजबल और कद्दावर नारायण राणे जैसे बड़े नाम अलग हो गए थे। लेकिन शिवसेना पर असर उतना नहीं पड़ा जितना कोई दल होता तो उसे पड़ता। ठाकरे नाम के बाद शिवसेना का वजूद नहीं। यह वैसा ही है, जैसे गांधी नाम के बिना कांग्रेस की कल्पना करना। शिवसेना में दो नंबर के नेताओं के कोई मायने नहीं हैं। शिवसैनिकों की भीड़ ही शिवसेना की असली ताकत है। यह साफ है कि राज और उद्धव में से जो भी शिवसैनिकों की भीड़ जुटाएगा, वही सही मायने में 'हिंदू हृदय सम्राट' बन पाएगा। गणित उतना सरल नहीं है, भीड़ जुटाने के मामले में राज और उद्धव के बीच राज ही सरस हैं। फिलहाल तो शिवसेना ब्रांड ही उद्धव के पास है। जब तक उद्धव खुद शिवसेना का नेतृत्व नहीं छोड़ते या बालासाहेब को बेतहाशा प्रेम करनेवाली शिवसैनिकों की भीड़ एमएनएस में शामिल नहीं होती, तब तक राज उस पर काबिज नहीं हो सकते। यह बड़े सवाल हैं जिनका जवाब सियासत के जानकारों के साथ ही आम जनता भी ढूंढ रही है।
Wednesday, November 14, 2012
म्यांमार पर सधे कदमों की जरूरत
म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की 40 साल बाद आजकल भारत की यात्रा पर हैं। पिछले चार दशक से म्यांमार के सैन्य शासकों के साथ रिश्ते बनाए रखने वाले भारत को सू की के साथ संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। इसकी वजह भी हैं, सू की अपने देश में शक्तिशाली होने के रास्ते पर हैं, तमाम देशों की विदेश नीतियां उन्हें केंद्रबिंदु में रखकर बनाई-बदली जा रही हैं। म्यांमार से चूंकि भारत के सहयोग की पुरानी परम्परा है इसलिये उस पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। सू की के भारत दौरे और उसके निष्कर्षों को समूचा विश्व जानने को व्यग्र है। भारत ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया है, किसी राष्ट्राध्यक्ष जैसी अहमियत दी है। लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर संतुलन बनाए रखने की एक बड़ी चुनौती भारत के सामने खड़ी है। भारत का मौजूदा नेतृत्व इस देश को कितना महत्व देता है, यह इससे पता चलता है कि 1987 के बाद डॉ. मनमोहन सिंह पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं जो म्यांमार गए हैं। सू की राजनीतिक स्तर पर दोनों देशों के लोगों के बीच घनिष्ठ सम्बंध चाहती हैं, क्योंकि हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच चीन आड़े आया है और भारत को शक है कि सैन्य शासक चीन से नजदीकी बनाने को प्रायर्टी देते हैं।
भारत से सू की का रिश्ता पुराना है, यहां उनका बचपन बीता है। 60 के दशक में उनकी मां खिन की भारत में बर्मा की राजदूत थीं। उस दौरान वह अकबर रोड के उसी घर में रहती थी जहां आज कांग्रेस का कार्यालय है। म्यांमार की सैनिक सरकार से दो दशक से ज्यादा समय से लोहा लेनेवाली सू की ने दिल्ली के जीसस एंड मैरी कॉन्वेंट में स्कूली शिक्षा ली थी और उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए लेडी श्रीराम कॉलेज में दाखिला लिया था। उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चली गई थीं। इस बीच शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडीज में भी उन्होंने दो साल तक अध्ययन किया था। तब से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं। लोकतंत्र की समर्थक सू की अब 67 साल की हो चुकी हंै। भारत ने दशकों तक म्यांमार के सैन्य हुकूमत से संबंध बनाए रखा जिससे पश्चिमी मुल्क नाता तोड़ चुके थे। हालांकि बीच-बीच में वह सू की को भी बराबर अहमियत देता रहा। इसी क्रम में उन्हें 1993 में जवाहर लाल नेहरू अवॉर्ड फॉर इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिंग से सम्मानित किया गया था। उस समय वह म्यांमार की सैनिक सरकार द्वारा अपने घर में नजरबंद रखी गई थीं। 1991 में जब उन्हें नोबेल पुरस्कार देने की आधिकारिक घोषणा हुई तब भी वह नजरबंद हीं थीं। इसके चलते वह अपने इस पुरस्कार को ग्रहण नहीं कर सकी थीं। आंग सान सू की सलाखों के पीछे तो कभी घर में नजरबंद होकर भी लोकतंत्र के लिए लड़ती रहीं। इस संघर्ष में उनका देश की जनता ने भी खूब साथ दिया। यही वजह है कि हाल ही में संपन्न चुनावों में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली और कभी नजरबंद रहने वाली सू की ने एक बार फिर खुली हवा में सांस ली। सांसद बनने के बाद वह अपनी पहली विदेश यात्रा पर निकलीं तो भाषणों में भारत का कई बार नाम लिया और अपने देश से भारत के निरंतर सहयोग की बार-बार वकालत की। इससे यह सिद्ध हुआ कि वह भारत को काफी महत्व देती हैं। सू की ने 24 वर्षों के बाद अपने देश से बाहर निकलना शुरू किया है। यह बात बेहद महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि जब उनके पति लंदन में बीमारी से जूझ रहे थे तब भी सू की ने देश छोड़ने से मना कर दिया था। उन्हें डर था कि उन्हें वापस म्यांमार में नहीं आने दिया जाएगा। लेकिन चुनाव जीतने के बाद यह डर लगभग खत्म हो गया। उन्हें देश की सरकार ने पिछले माह ही उनका पासपोर्ट सौंपा था।
अप्रैल में हुए चुनावों के महीने भर बाद मनमोहन ने म्यामांर की यात्रा की थी। म्यांमार पर चीन के प्रभाव को देखते हुए सिंह ने व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया। इस दौरान भारत और म्यांमार के बीच 12 समझौते हुए, इनमें सुरक्षा, सीमा से सटे इलाकों में विकास, व्यापार और परिवहन में सहयोग की इबारत रचने का संकल्प लिया गया। सू की भारत के इस रुख से दुखी हैं। वह कह चुकी हैं कि भारत को म्यांमार की दिखावटी सरकार के बहकावे में नहीं आना चाहिए। हाल ही में एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, मैं निराशा के बजाए दुख शब्द का इस्तेमाल करूंगी क्योंकि भारत के साथ मेरा निजी लगाव है। दोनों देशों के बीच काफी नजदीकी है। अति आशावादी न रहें, लेकिन इतना साहस अवश्य होना चाहिए जिस चीज को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, उसे प्रोत्साहित करें। अति आशा से मदद नहीं मिलती है क्योंकि ऐसे में आप गलत चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं. नजरअंदाजी ठीक नहीं है और ठीक न होना ही गलत है। भारत और म्यांमार के कारोबारी रिश्ते बहुत मजबूत हो सकते हैं। प्रेक्षक मानते हैं कि म्यांमार से सटी भारत की पूर्वी सीमा पर 'सही ढंग से निवेश' किया जाना चाहिए। लोकतंत्र की राह पर चलने की कोशिश करते म्यांमार से अब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने कई प्रतिबंध हटा भी दिए हैं। अमेरिका, यूरोप, चीन और भारत के कारोबारी वहां निवेश करना चाहते हैं। सरकारें भी तैयार हैं, अगर सू की यह सिद्ध करने में कामयाब रहती हैं कि बदला माहौल उनके अनुकूल है तो निवेश का यह क्रम तेजी से शुरू हो सकता है। म्यांमार की सैनिक सरकार के पूर्व नेता थीन सेन ने जिस तरह के संकेत दिए हैं, उससे लगता है कि सू की का कद और बढ़ने जा रहा है। सेन के अनुसार, यदि लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की को जनता का समर्थन प्राप्त होता है तो वह देश की राष्ट्रपति बन सकती हैं। सेन ने कहा कि जनता की इच्छाओं का सम्मान किया जाएगा। वर्ष 2015 में चुनाव में जनता जिसके पक्ष में भी मतदान करेगी, उसे स्वीकार किया जाएगा।
Sunday, November 4, 2012
अमर सिंह पर सपा की कृपा के मतलब...
... तो क्या अमर सिंह की समाजवादी पार्टी में वापसी की तैयारियां शुरू हो गई हैं। अपने पूर्व नेता अमर सिंह के विरुद्ध 600 फर्जी कम्पनियों के माध्यम से करोड़ों रुपए की मनीलॉड्रिंग का केस वापस लेने के समाजवादी पार्टी सरकार के कदम से अटकलें तेज हो गई हैं। माना यह भी जा रहा है कि इन मामलों के जरिए अपनी सांसद जया बच्चन के मेगास्टार पति अमिताभ बच्चन को राहत देने की मंशा है जिनकी देर-सवेर गर्दन फंसने का अंदेशा पैदा होने लगा था। सियासती गलियारों में चर्चाएं तो यहां तक हैं कि सरकार के कदम के पीछे अपने कुछ नेताओं को बचाने की भी योजना है। इतने बड़े और चर्चित मामले की फाइल यूं बंद कराने से अटकलें लगना तो लाजिमी है ही।
अमर सिंह पिछले आठ साल से, खासकर 1996 से हिन्दुस्तान की राजनीति की कई धुरियों में से एक रहे हैं, जिनका इस्तेमाल ज्यादातर समाजवादियों ने तो कभी वामपंथियों ने और कभी कांग्रेसियों ने किया। यूं तो उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय जाता है प्रदेश के स्वर्गीय मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह को लेकिन वास्तव में यह चर्चा में तब आए जब कर्ज के बोझ में दबे बॉलीवुड मेगास्टार अमिताभ बच्चन की मदद की और प्रत्येक जगह उनके साथ दिखने लगे। सपा में आने के बाद तो वह आएदिन चर्चा बटोरने लगे। यहां तक कि उन्हें और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को दो जिस्म और एक जान तक कहा जाने लगा। अपनी पुत्रवधु डिंपल यादव के रूप में सपा की अपनी ही जीती सीट को फीरोजाबाद में हार जाने से आहत मुलायम सिंह ने अमर सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके बाद अमर सिंह ने अपनी अलग पार्टी लोकमंच बनायी और हर गली-मुहल्ले में उन्होंने मुलायम सिंह के खिलाफ आग उगली। विधानसभा चुनाव में इस पार्टी के 360 प्रत्याशी मैदान में उतरे लेकिन जीता एक भी नहीं। दरअसल, अमर सिंह राजनेताओं की उस जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सिर्फ परिणाम की चिंता करता है। साधन की पवित्रता और अपवित्रता से जिसका दूर-दूर तक कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सपा सरकार ने जो मामले वापस लिये हैं, वह गंभीरतम श्रेणी के हैं। कानपुर निवासी शिवाकांत त्रिपाठी की शिकायतों पर यह मामले दर्ज हुए थे और गंभीरता देखते हुए तत्कालीन बसपा सरकार ने इनकी जांच पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा को सौंपी थी। एक क्षेत्राधिकारी जांच का दायित्व संभाल रहे थे। मामले के अनुसार, घोटाले में तमाम छोटी-छोटी 600 कम्पनियों के सस्ते शेयरों को ऊंचे दामों पर खरीदा गया, फिर फर्जी तरीके से उन्हें बेच दिया गया। चूंकि मामला 25 हजार रुपए से बहुत ज्यादा राशि का था इसलिये स्थानीय पुलिस इस संबंध में जांच नहीं कर सकती थी, इसलिए तत्कालीन मायावती सरकार ने मामले की जांच आार्थिक अपराध शाखा को सौंप दी। इसके बाद शिवाकांत त्रिपाठी ने एक याचिका दाखिल कर हाईकोर्ट से आग्रह किया कि पूरी जांच प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) से कराई जाए, साथ ही जांच की निगरानी अदालत करे। इस दौरान हाईकोर्ट ने अमर सिंह की गिरफ्तारी पर स्टे दे दिया। साथ ही 20 मई 2011 को ईडी को निर्देश दिया कि मामले की जांच अपने स्तर से करे। ईडी ने अक्टूबर में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपनी जांच रिपोर्ट फाइल की है। इसी बीच प्रदेश की सपा सरकार ने आर्थिक अपराध शाखा से मामला दोबारा कानपुर की बाबूपुरवा थाने की पुलिस को ट्रांसफर करने का आदेश जारी कर दिया। अखिलेश सरकार के निर्देश पर कानपुर पुलिस ने अदालत में अपनी क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी है।
सपा कह रही है कि सरकार किसी भी मामले में निष्पक्ष जांच की पक्षधर है। पिछली सरकार के दौरान मामले में जांच ठीक से नहीं हो सकी थी, इसी कारण मामला बाबूपुरवा थाने की पुलिस को ट्रांसफर किया गया था। याचिकाकर्ता शिवाकांत त्रिपाठी मामले में अपनील करने की तैयारी में हैं। शिवाकांत का आरोप है कि मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश विकास परिषद के अध्यक्ष के तौर पर अमर सिंह ने कई वित्तीय अनियमितताएं कीं। शिवाकांत त्रिपाठी ने मामले में कई किलो कागजात भी सबूत की तरह पेश किए, जिनमें बताया गया कि अमर सिंह ने कोलकाता, दिल्ली और कई अन्य जगहों के फर्जी पतों वाली कंपनियों से मनी लांड्रिंग की। मामले की वापसी के पीछे दिल्ली के चर्चित शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी की भूमिका को भी माना जा रहा है। बुखारी सपा सरकार के अब तक के कार्यकाल में प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। वह कैबिनेट मंत्री आजम खां के धुर विरोधी हैं और आजम खुद अमर सिंह को पसंद नहीं करते। दोनों के बीच कटुता जगजाहिर है। बुखारी के माध्यम से अमर सिंह ने मुलायम सिंह के पास अपनी अर्जी भिजवाई है कि उनके खिलाफ मायावती सरकार के दौरान दर्ज किया गया मनी लॉंड्रिंग का मुकदमा वापस ले लिया जाए। बुखारी आजम से बदला ले रहे हैं।
Wednesday, October 31, 2012
रिलायंस के कोप का शिकार जयपाल रेड्डी
इंडिया अंगेस्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल ने पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी की विदाई के पीछे दिग्गज उद्योग घराने रिलायंस का हाथ बताया है। बात में दम है। तमाम उदाहरण ऐसे हैं जिनमें इस कंपनी की इस तरह की भूमिका उजागर होती रही है। देश के मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इसी घराने के चलते आरोप के घेरे में आए थे, तब धीरूभाई अंबानी विमल ब्रांड की सूटिंग-शर्टिंग बनाने वाली कपड़ा उत्पादन कंपनी की कमान संभालते थे। पॉलिस्टर यार्न आयात उस समय विवादों की वजह बना था।
यह कंपनी भारत के एक चिथड़े से धनी व्यावसायिक टाइकून बनने की कहानी है। धीरूभाई ने रिलायंस उद्योग की स्थापना मुम्बई में अपने चचेरे भाई के साथ की। कई लोग अंबानी के अभूतपूर्व विकास का श्रेय सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों तक उनकी पहुंच को देते हैं क्योंकि उनको यह उपलब्धि अति दमनकारी व्यावसायिक वातावरण में मिली थी। अंबानी ने अपनी कंपनी रिलायंस को 1977 में सार्वजानिक क्षेत्र में सम्मिलित किया, और 2007 तक परिवार (बेटे अनिल और मुकेश) की सयुंक्त धनराशि 100 अरब डॉलर तक पहुंच गई और अंबानी विश्व के धनी परिवारों में शुमार हो गए। याद कीजिए, तब मणिशंकर अय्यर यूपीए सरकार में ही पेट्रोलियम मंत्री थे और वह भारत-ईरान और लेटिन अमेरिका के कुछ देशों के बीच पेट्रोलियम कूटनीति में सक्रिय थे। रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष मुकेश अंबानी उनसे मुलाकात करने ह्यशास्त्री भवनह्ण आते थे। उन्हें या तो इंतजार करना पड़ता था अथवा मणिशंकर उनसे मिले बिना ही मंत्रालय से खिसक जाते थे। आखिरी नतीजा क्या निकला-मणि को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटा दिया गया। उसके बाद मुरली देवड़ा इस मंत्रालय में आए, जिन्हें रिलायंस की ही परछाईं माना जाता रहा है, लेकिन जब जयपाल रेड्डी पेट्रोलियम मंत्री बने, तो समाजवादी सोच भी उनके साथ आई थी। निजी कंपनियों की अपेक्षा सार्वजनिक सरकारी कंपनियां उनकी प्राथमिकता थीं। उनकी दृष्टि थी कि पेट्रो क्षेत्र में वर्चस्व भी सरकारी नेतृत्व में काम कर रहीं कंपनियों का ही रहे। नतीजतन आम धारणा बनने लगी कि यह समाजवाद बनाम आर्थिक सुधारों का समीकरण है। जयपाल की रिलायंस के प्रति कुछ सख्ती ने इस धारणा को पुख्ता ही किया। उन्होंने रिलायंस के कुछ प्रस्ताव नामंजूर किए। केजी बेसिन से उत्पादित गैस के दाम 2014 से पहले बढ़ाने से इनकार कर दिया। चूंकि रिलायंस कंपनी करार के मुताबिक, गैस का उत्पादन कम कर रही थी, ताकि उस दबाव में गैस के दाम बढ़ा दिए जाएं, लेकिन जयपाल रेड्डी ने उस संदर्भ में 7000 करोड़ रूपए का जुमार्ना रिलायंस पर ठोंक दिया। इस बीच रिलायंस के चेयरमैन मुकेश अंबानी सरकार और कांग्रेस के भीतर लॉबिंग करते रहे। एक घटना गौरतलब है, लिहाजा यहां प्रासंगिक लगती है। मुकेश दिल्ली हवाई अड्डे से आ रहे थे, तो सरदार पटेल रोड से पहले भारी जाम मिला होगा। उन्हें विलिंगडन रोड की कोने वाली कोठी में एक ताकतवर नेता से मुलाकात करनी थी। उस दिन देर शाम के समय मुकेश हांफते हुए उस कोठी की चौखट तक पहुंचे थे। उन्हें पता था कि वह शख्स वक्त का घोर पाबंद है और मुकेश के लिए वह मुलाकात बेहद अहम थी। पेट्रोलियम का वह ऐसा चक्रव्यूह बुना जा रहा था, जिसमें रेड्डी की बलि तय थी। लिहाजा पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल को हटाना महज विभागों का फेरबदल नहीं है और न ही प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार का मुद्दा है। यह निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का आपसी द्वन्द्व है। पेट्रोलियम की देश की अर्थव्यवस्था में करीब 22 फीसदी हिस्सेदारी है और 90 फीसदी राजनीति उसी के आधार पर की जाती है। उस लिहाज से वह वित्त मंत्रालय के बाद का दूसरी महत्त्वपूर्ण मंत्रालय माना जाता है। उद्योगपतियों और राजनेताओं की मुलाकातों और मिलीभगत से भी साफ है कि यदि वे राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देंगे, तो जाहिर है कि वे उनके काम करने की भी अपेक्षा रखेंगे। इस समीकरण का नतीजा क्या यह होता रहेगा कि उद्योगपति के दबाव में कैबिनेट मंत्री ही बदले जाते रहेंगे? क्या यही हमारे लोकतांत्रिक ढांचे का यथार्थ है? यदि जयपाल रेड्डी के संदर्भ में वाकई ऐसा हुआ है तो सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं है, सरकार निजी क्षेत्र की कठपुतली भी है, लेकिन भारत के निजी क्षेत्र की परिभाषा क्या है? वह अमरीका और जर्मनी के निजी क्षेत्र सरीखा नहीं है, जहां कंपनियों की बागडोर शेयरधारकों के ही हाथों में होती है। वहां कोई पारिवारिक वर्चस्व न होकर बाकायदा चुना हुआ निदेशक मंडल होता है,जो पूरी तरह शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह होता है। भारत में आज भी कहां है निजी क्षेत्र? बेशक रिलायंस सरीखी कंपनियों में निदेशक मंडल है, लेकिन उसमें भी परिवार या निष्ठावान चापलूसों का वर्चस्व रहता है। उसके बावजूद वे कंपनियां सरकार, मंत्री और कैबिनेट सचिव की नियुक्तियां तय करती हैं। मौजूदा प्रकरण को सिर्फ समाजवादी बनाम आर्थिक सुधार के चश्मे से ही देखना उचित नहीं होगा। करीब 70 फीसदी तेल और गैस का क्षेत्र आज भी सरकारी सार्वजनिक कंपनियों के अधीन है। प्रधानमंत्री उसे थोड़ा खोलना और उसका आधुनिकीकरण चाहते हैं। जाहिर है कि वह निजी क्षेत्र की सक्रिय भागीदारी के पक्षधर हैं। क्या जयपाल रेड्डी उसमें रोड़ा साबित हो रहे थे? गौरतलब यह भी है कि केजी बेसिन गैस, रिलायंस, गैस के ज्यादातर उपभोक्ता और खुद जयपाल सभी का संबंध आंध्रप्रदेश से है। जो आंध्र की जमीनी हकीकत से रू-ब-रू हैं, वे जानते हैं कि जयपाल को पेट्रोलियम मंत्रालय से बाहर करने के फैसले के फलितार्थ क्या हो सकते हैं? उस स्थिति में आंध्र पर कांग्रेस का राजनीतिक और चुनावी फोकस नाकाम साबित हो सकता है। जरा उस दौर की भी कल्पना की जाए,जब भविष्य में रिलायंस जैसी 50 ताकतवर निजी कंपनियां होंगी और वे अपने-अपने हिस्से की धूप चाहेंगी, लेकिन दूसरी ओर लड़खड़ाती, बौनी सरकार और बिकाऊ राजनीति होगी, तब देश के हालात क्या होंगे? कैबिनेट मंत्री की बात छोड़िए, प्रधानमंत्री उनके अनदिखे इशारों पर नाचेंगे या संभव है कि उन्हें भी सुविधाजनक तरीके से बदला जाएगा। देश इस समय ऐसे तमाम प्रकरणों से रूबरू है जिनसे राजनीतिज्ञों की प्रति आम जनता की सोच बहुत खराब हो गई है। जयपाल की विदाई ऐसा ही एक प्रकरण है।
Sunday, October 28, 2012
चीनी सत्ता में बदलाव के दिन
चीन करवट लेने की तैयारी में है। अगले माह की आठ तारीख को राष्ट्रपति और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हू जिन ताओ उप राष्ट्रपति शी जिन पिंग के नेतृत्व की नई पीढ़ी को सत्ता सौंपेंगे। रहस्यों के तमाम पर्दों में घिरे एशिया के इस प्रभावशाली देश में असमंजस का दौर है, साथ ही विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के भावी शासकों की नीतियों को लेकर रहस्य भी कायम है। सत्तारूढ़ सीपीसी की सबसे ताकतवर संस्था पोलित ब्यूरो ने जो बयान जारी किया है, उसने अटकलें और बढ़ा दी हैं। बयान में पार्टी संविधान में संशोधन करने की बात कही गयी थी लेकिन मार्क्सवाद, लेनिनवाद और माओवादी विचारधारा का जिक्र तक नहीं किया गया। ये तीनों शब्द अब तक कम्युनिस्ट पार्टी के हर सैद्धांतिक दस्तावेज के शुरू में लिखे जाते थे। इनसे पता चलता था कि पार्टी अब भी उन आदर्शों पर कायम है जिन्हें लेकर इसकी स्थापना की गई थी। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि चीन क्या रास्ता बदलने की योजना बना चुका है?
करीब 10 साल पहले विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की थी कि हू जिन ताओ की अगुआई में चीन के नए कमांडर आर्थिक उदारीकरण से तालमेल बैठाने वाले राजनीतिक सुधार लागू करेंगे। उस वक्त हू सत्ता संभाल रहे थे। लेकिन, वे उम्मीदें धराशायी हो गर्इं। राजनीतिक प्रेक्षक झांग यिहे कहती हैं, किसी ने कल्पना नहीं की थी, हू का प्रशासन इतना पिछड़ा होगा। 2002 की तुलना में चीन आज अधिक अमीर है पर वहां खुलापन नहीं है। आय बढ़ने के साथ अमीर-गरीब के बीच गैर बराबरी बढ़ी है। भ्रष्टाचार फैला है। इसके साथ इंटरनेट ने नागरिकों को सूचना के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराए हैं। विरोध प्रदर्शन इतने बढ़ गए हैं कि अधिकारियों ने सात साल पहले इनके आंकड़े देने बंद कर दिए। अगले दस साल के लिए चीन को चलाने के लिए अगली पीढ़ी के नेताओं का यह चुनाव बेशक चीन का घरेलू राजनीतिक फैसला है, लेकिन कुछ ऐसी बातें हैं, जिसके कारण वहां की सत्ता के गलियारों में होने वाले फैसले पर बाकी दुनिया की भी निगाह रहेगी, 'धनी होना है आनंददायक होना।' 35 साल पहले पूर्व नेता डेंग जिओंपिंग ने यह नारा दिया था। आज चीन में दस लाख ऐसे नागरिक हैं जो कि डॉलरों में लखपति हैं। इस साल अगली पीढ़ी के नेताओं के हाथ में सत्ता आने के बाद शायद चीन विश्व अर्थव्यवस्था के शीर्ष पर बैठे अमेरिका को चुनौती देगा। नए नेताओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती पहले की तरह आर्थिक वृद्धि को बनाए रखने की होगी। चीन में सस्ते मजदूरों के कारण यूरोप लगभग हर चीज के लिए इस देश पर निर्भर है। चीन अब अफ्रीका में सबसे बड़ा निवेशक है। चीन के संपन्न होने की स्थिति में दुनिया का सबसे धनी मध्य वर्ग तैयार होगा।
चीन ने अपनी तरक्की के लिए 'शांतिपूर्वक उत्थान' शब्द का इस्तेमाल किया। उसने हमेशा ही अपने डरे हुए पड़ोसियों को बताने की कोशिक की है कि वह अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल उन्हें डराने में नहीं करेगा. लेकिन इसके बावजूद जापान, फिलीपिंस और वियतनाम जैसे पड़ोसियों और अमेरिका के साथ विवाद के कारण चीन के शांतिपूर्वक उत्थान के नारे को खोखला साबित करता है। इसके अलावा विश्व की सबसे बड़ी सेना वाला देश चीन अपनी रक्षा और सैन्य आधुनिकीकरण पर अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है। यकीनन अमेरिका की तरह बाकी देशों पर उसका प्रभाव और बढ़ा है।
लेकिन नेतृत्व हस्तांतरण से पहले चीन की सत्ताधारी चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी का मतभेद एक बार फिर सार्वजनिक हो गया है। पार्टी के लगभग 300 से अधिक वामपंथी बुद्धिजीवियों ने संसद से बो शिलाई के निष्कासन का विरोध किया है। बुद्धिजीवियों और कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व अधिकारियों ने इस संबंध में खुला पत्र लिखकर बो शिलाई के इस्तीफे की वजह बताने की मांग की है। इस पत्र को ह्यरेड चाइनाह्ण वेबसाइट पर जारी किया गया है। पत्र में कहा गया है, ‘बो शिलाई को निष्कासित करने के लिए क्या वजह बताई गई है? कृपया तथ्यों और सबूत की जांच कीजिए। कृपया इस बात की घोषणा कीजिए कि बो शिलाई कानून के मुताबिक अपना बचाव करने में सक्षम होंगे।’ पत्र लिखने वाले चीनी वामपंथियों को पार्टी में एक छोटा, लेकिन मुखर दबाव समूह माना जाता है। समूह ने शिलाई के निष्कासन पर कानूनी तौर पर सवाल खड़ा करते हुए इसे राजनीति से प्रेरित बताया है। पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के पूर्व निदेशक ली चेंगरूरी, पीकिंग विश्वविद्यालय के विधि के एक प्राध्यापक, स्थानीय जन प्रतिनिधि, झेंजीयांग के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं। चीन में प्रतिबंधित वेबसाइट ह्यरेड चाइनाह्ण पर प्रकाशित इस पत्र में कहा गया है कि नेशनल पीपुल्स कांग्रेस से बो के निष्कासन का मतलब होगा कि उन्हें प्राप्त विशेषाधिकार छिन गए हैं और उनपर उस घटना के लिए मुकदमा चलाया जा सकेगा, जिस मामले में उनकी पत्नी को सजा मिली है। गौरतलब है कि बो को अवैध संबंध, अनैतिक व्यवहार और भ्रष्टाचार सहित कई आरोपों के चलते मुकदमे का सामना करने के लिए पार्टी से निष्कासित किया गया है। इसके अलावा उन पर अपनी पत्नी को जांच से बचाने का भी आरोप है। उनकी पत्नी गु काईलाई को एक ब्रिटिश व्यवसायी की हत्या के मामले में दोषी पाया गया था। सत्ता परिवर्तन के इस मौके पर चीन पर दुनियाभर की निगाहें टिकी हैं। यह वह देश है जो अपनी विस्तारवादी और महत्वकांक्षी सोच की वजह से समय-समय पर किसी न किसी विवाद में उलझा ही रहा है। अभी हाल ही में मध्य-पूर्व सागर में जापान के विवादित द्वीप खरीदने के बाद दोनों देशों में फिर से विवादों को हवा मिली। सोवियत यूनियन और चीन में राजनीतिक और वैचारिक मतभेद उभरने के बाद दोनों देश सात महीने तक सैन्य संघर्ष में उलझे रहे हैं।
मार्च 1969 में जेनबाओ द्वीप के आस-पास की सीमा को लेकर दोनों देशों के बीच झगड़ा बढ़ गया था। बाद में नए सिरे से सीमाकंन के बाद झगड़ा सुलझ पाया। चीन के साथ अमेरिका का ऐसा कोई गंभीर विवाद नहीं हैं, लेकिन लोकतंत्र के पैरोकार अमेरिका के साम्यवादी देश चीन की जुबानी जंग हमेशा चलती रहती है। उत्तर कोरिया की सीमा के नजदीक, दक्षिण कोरिया-अमेरिका के संयुक्त सैन्य अभ्यास के समय भी उत्तर कोरिया का पक्ष लेते हुए चीन ने कड़ा विरोध दर्ज कराया था। अभी हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के चीन दौरे से पहले चीनी नेताओं ने अमेरिका को उनके आंतरिक मामलों में दखल न देने की सीख दे डाली। वहीं भारत-चीन संबंधों पर भी अमेरिका का ज्यादा झुकाव भारत की तरफ रहा है। अमेरिका भारत को चीन के मुकाबले में एशिया में बड़ी ताकत के रूप में देखना चाहता है, जिससे एशिया में शक्ति का संतुलन बना रहे। कहते हैं दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। यह बात इसलिए भी कही जा रही है, क्योंकि दक्षिण एशिया में चीन, पाकिस्तान का बड़ा सहयोगी है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद दोनों देश और ज्यादा नजदीक आ गए। चीन ने पाकिस्तान को पीआरसी देश के दर्जा दिया है, जिसके तहत आर्थिक, सैन्य और तकनीक सहायता देगा। दोस्ती की खातिर कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन, पाकिस्तान का बचाव कर चुका है। साम्यवादी देश होने के नाते उत्तर कोरिया-चीन के संबंध बहुत ज्यादा प्रगाढ़ हैं। अमेरिका की निंदा करने की बात हो तो दोनों देश एक सुर में बोलने लगते हैं। वीटो पावर देश होने के नाते चीन कई बार उत्तर कोरिया के समर्थन में आवाज उठा चुका है, जबकि यह देश दुनिया में अलग-थलग पड़ा रहता है।
Thursday, October 25, 2012
हिंदुत्व के शेर का बूढ़ा हो जाना...
'हिन्दुत्व के शेर' यानि शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने आखिरकार मान लिया कि शरीर उनका साथ नहीं दे रहा। बात यह नहीं कि वह बूढ़े हो गए हैं, बल्कि अहम इसलिये है कि उन्होंने अपने बेटे उद्धव और पौत्र आदित्य को अपना राजनीतिक साम्राज्य सौंपने का फैसला किया है। ऐसे समय में जबकि उनके भतीजे राज ठाकरे का सियासी कद भी बढ़ा है, बाल ठाकरे का फैसला क्या गुल खिलाएगा, यह देखा जाना खासा दिलचस्प होगा। मुंबई के ऐतिहासिक शिवाजी पार्क में दशहरा के उपलक्ष्य में होने वाली शिवसेना की परंपरागत रैली में बाल ठाकरे के भाग न लेने से ही यह अटकलें लगने लगी थीं कि वह अब परिदृश्य से हटने का मन बना चुके हैं।
अटकलें लग ही रही थीं कि शिवसेना ने अपने अध्यक्ष का रिकॉर्डेड संदेश जारी किया, जिसमें उन्होंने अपने गिरते स्वास्थ्य की मजबूरी जताते हुए शिवसैनिकों को अपने बेटे और पोते के साथ डटे रहने की मार्मिक अपील की। संदेश में बाल ठाकरे ने कहा कि जिस तरह इतने वर्षों तक सैनिक उनके साथ डटे रहे, उसी तरह अब वे उद्धव और आदित्य का भी साथ दें। हालांकि परिवारवाद थोपने का आरोप न लगे, इसके लिए वह यह जोड़ना नहीं भूले कि वे उद्धव और आदित्य को शिवसैनिकों पर थोप नहीं रहे हैं। ये लोग सफल हैं और राज्य-राष्ट्र का हित किसमें है, यह जानते हैं। 46 वर्षीय शिवसेना आज जिस मुकाम पर है, वह अकेले बाल ठाकरे का ही दम है। हिन्दुत्व की खुलकर बात करने वाले वह देश के अकेले नेता हैं। उनके दल ने महाराष्ट्र में जिस तरह से अपना साम्राज्य स्थापित किया है, वो कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी कहीं नहीं बना पाई। यह अकेली ऐसी पार्टी है जिस पर मुंबई के लोग पुलिस से ज्यादा भरोसा करते हैं। महिलाओं से छेड़छाड़ हो जाए तो वह पुलिस चौकी-थाने के बजाए शिवसेना बूथ पर शिकायत को प्राथमिकता देते हैं। बाल ठाकरे जो कह दें, वो पत्थर की लकीर बन जाया करती है। महाराष्ट्र के बारे में कहा जाता है कि मुंबई अगर अकेले राज्य की सत्ता का निर्धारण करने की हैसियत में हो तो शिवसेना का हर बार सत्ता में आना तय है। पिछले चुनावों के उदाहरण से ही स्पष्ट है कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अगर बीच में नहीं होती तो महाराष्ट्र की सीटों की तस्वीर ही दूसरी होती। ठाकरे परिवार की बात की जाए तो वहां राज ठाकरे दरअसल यह साबित करना चाहते हैं कि बाल ठाकरे के असली वारिस उद्धव ठाकरे नहीं, बल्कि वह खुद हैं। राज ठाकरे अपनी भाषण देने की शैली, हाव-भाव में बाल ठाकरे की हू-ब-हू नकल करते हैं और उनकी राजनीतिक शैली भी बाल ठाकरे जैसी ही है। गाली-गलौज तथा धमकियों से भरी भाषा और हिंसा की राजनीति उन्हें ही शिवसेना का ही उत्तराधिकारी सिद्ध करती है। मनसे की ही तरह शिवसेना को भी लंबे वक्त तक कांग्रेस ने समाजवादियों और कम्युनिस्टों के खिलाफ इस्तेमाल किया था।
एक वक्त बाद जब मराठीभाषी शिवसेना के कथित बाहरी लोगों के विरोध से छिटकने लगे, तब अस्सी के दशक में बाल ठाकरे हिंदुत्ववादियों की जमात में कूद पड़े और भाजपा के सहयोगी हो गए। अब तक शिवसेना और भाजपा की महाराष्ट्र में साथ-साथ राजनीति चलती है और भाजपा ने भी शिवसेना की हिंसक राजनीति का कभी विरोध नहीं किया। महाराष्ट्र की राजनीति में मनसे और शिवसेना जैसे उग्र तत्व सभी राजनीतिक ताकतों को रास आते हैं, इसलिए वे अपनी असली ताकत से ज्यादा मजबूत नजर आते हैं। हालांकि इसकी कीमत महाराष्ट्र के लोग भी चुकाते हैं क्योंकि राजनीति को ऐसे उग्र गिरोहों के हाथों सौंप देने का नतीजा राज्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। मुंबई की वजह से महाराष्ट्र आज भी आर्थिक रूप से देश में सबसे आगे है लेकिन धीरे-धीरे उसकी जगह फिसल रही है। स्थानीय स्तर पर ऐसी राजनीति में उलझे रहने की वजह से महाराष्ट्र का कोई नया नेता राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक पहचान और स्वीकृति भी नहीं पा सकता। शरद पवार को यह स्थान मिला है तो इसकी वजह कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरियां हैं। कांग्रेस को खुद ही पर्याप्त सीटें मिल जातीं तो पवार को केंद्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं मिलता। राज ठाकरे का राजनीतिक संघर्ष उन महत्वाकांक्षाओं पर आधारित माना जाता है जिन्हें वह बाल ठाकरे से हासिल करने में वंचित रह गए। राज की पार्टी को महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनाव में कोई समर्थन नहीं मिला और जिसे वो समर्थन कह रहे हैं वह उस परिवार से अलग होने पर उपजी एक तात्कालिक सहानुभूति थी जो आज खत्म हो चुकी है। बाल ठाकरे ने राज ठाकरे को शिवसेना की राजनीति की अंगुली पकड़कर चलाना सिखाया है। उन्हें कई बार यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह कांग्रेस के साथ खड़े होकर जो कर रहे हैं उससे उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह बाल ठाकरे का बड़प्पन कहा जाएगा कि जिस प्रकार राज ठाकरे ने इस परिवार के खिलाफ मोर्चा खोला है उस पर बाल ठाकरे ने अपनी ओर से कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी। उधर, उद्धव ठाकरे की दुनिया तो पूरी तरह बाल ठाकरे की विरासत पर ही टिकी है। उद्धव को राज की तुलना में आक्रामक नहीं माना जाता। हां, यह जरूर है कि उनके पुत्र आदित्य ने जरूर अपनी शुरुआत उग्र तेवरों के साथ की है। लेकिन देखना यह है कि पिता और चाचा की लड़ाई में अपना वह क्या स्थान बना पाते हैं। युवाओं में वह लोकप्रिय तो हो रहे हैं लेकिन चाचा यहां उन पर भारी पड़ते हैं। दादा की विरासत के हिसाब से उद्धव उनसे पहले हैं। कुछ भी हो, यह तो तय है कि महाराष्ट्र में बैठे हिन्दुत्व के शेर का खुद को बूढ़ा मान लेना आने वाले समय में कई नए घटनाक्रमों का साक्षी बनेगा। चूंकि लोकसभा चुनाव भी नजदीक आ रहे हैं, इसलिये फिलहाल तो लग ही रहा है कि इनकी धमक केंद्रीय राजनीति पर भी पड़ेगी।
Tuesday, October 23, 2012
मोर्चे पर कांग्रेस, कमान दिग्विजय पर
कांग्रेस महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपनी पार्टी पर भ्रष्टाचार के लगातार आरोपों पर जवाब देने की कमान सम्हाली है। निशाने पर भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी हैं, जिनके विरुद्ध उन्होंने पीएम को सुबूत भेजे हैं। जिस तरह से वो सक्रिय हुए हैं, ये उनकी पार्टी की रणनीति है या खुद की मजबूरी? रणनीति का तर्क देने वाले मानते हैं कि कांग्रेस के हमलावर शैली के वह नेताओं में वो सबसे आगे हैं और मजबूरी यह हो सकती है कि वे पार्टी में उस हाशिये पर आ गए हैं, जहां उनकी न हिंदुओं में उपयोगिता बची है और न ही कांग्रेस को उनकी कार्यशैली से मुसलमानों वोटों का कोई लाभ मिलने वाला। दोनों वर्गों में दिग्विजय की छटपटाहट भरी राजनीतिक चाल को आसानी से पकड़ लिया गया है, इसीलिए उनसे सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर राजनीति में वे कहां खड़े हैं और जो कर रहे हैं उसमें राजनीतिक संकट आने पर कांग्रेस उनके साथ खड़ी रहेगी या नहीं?
कांग्रेस का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इस प्रकार के अनेक नेता गुमनामी में जा चुके हैं। कांग्रेस ने पहले उनका भरपूर इस्तेमाल किया और जब उसकी लपटें कांग्रेस की तरफ आर्इं तो अपने बचाव में कांग्रेस ने सबसे पहले उसी को उन लपटों के हवाले कर दिया यानि न बांस रहा और न बांसुरी। कई दृष्टांत ऐसे हैं जो कांग्रेस की इस राजनीति को सहजता से स्थापित करते हैं। इसके शिकार कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह भी हो चुके हैं किंतु वे एक कदम चलते थे तो बीस कदम आगे की सोच लेते थे। उन्होंने इसी राजनीतिक चतुराई से अपने को लंबे समय तक बचाए रखा और जब उनकी उपयोगिता शून्य की ओर बढ़ी तो अर्जुन सिंह को भी सड़क दिखा दी गई। वैसे भी अर्जुन सिंह की भी उपयोगिता उस समय खत्म हो गई थी जब उनको बसपा के एक मामूली कार्यकर्ता ने लोकसभा चुनाव में उन्हें पराजित कर दिया था इसमें यह अलग बात है कि वहीं के कांग्रेसियों ने भी उस बसपाई को जिताने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दिग्विजय सिंह और अर्जुन सिंह की राजनीति में फर्क इतना है कि काफी समय तक उनके हर बयान के साथ समूची कांग्रेस खड़ी दिखाई देती थी, किंतु दिग्विजय के साथ ऐसा होता नहीं दिख रहा। अनेक आशंकाएं दिग्विजय सिंह पर मंडरा रही हैं क्योंकि वे अपने बयानों के बाद अकेले ही नजर आ रहे हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनने के बाद से वे लगातार विवादस्पद बयान देते और फिर उनसे पलटते आ रहे हैं? मुंबई में ताज होटल के हमलावरों से मोर्चा लेते हुए शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे का ही मामला लिया जाए। दिग्विजय सिंह का पहले कहना था कि करकरे ने उन्हें फोन किया था, और कॉल रिकार्ड पेश करते वक्त फरमा रहे हैं कि उन्होंने ही करकरे को पहले कॉल लगाई थी। आश्चर्य तो तब होता है जब उनका फोन एटीएस के मुंबई स्थित मुख्यालय में शाम पांच बजकर 44 मिनट पर पहुंचता है, वह भी इंटरनेट पर एटीएस के पीबीएक्स नंबर पर। कॉल रिकार्ड बताता है कि इस नंबर पर 381 सेकेंड बात हुई है। सवाल उठता है कि जब उस दिन दोपहर को ही मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादियों ने कब्जा जमा लिया था, तब क्या एटीएस चीफ करकरे के पास आतंकियों से निपटने और रणनीति बनाते हुए इतना समय था कि वे मोबाइल या फोन पर दिग्विजय सिंह से खुद को हिंदूवादियों से मिलने वाली धमकियों का दुखड़ा रोएं? इसके अलावा दिग्विजय सिंह खुद यह भी स्वीकार कर चुके हैं कि वे करकरे से कभी मिले भी नहीं थे, तब करकरे क्या पहली ही बातचीत में उनसे अपने मन की ऐसी बातें कह गए होंगे? दिग्विजय पहले तो कॉल रिकार्ड नहीं मिलने की बात कर रहे थे? उन्होंने कौन सी जादू की छड़ी से रिकार्ड तलब कर लिया? इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के गृह मंत्री आरआर पाटिल से माफी की मांग करने में भी देरी नहीं की। इसका एनसीपी और कांग्रेस के संबंधों पर तो कोई असर दिखाई नहीं दिया अलबत्ता दिग्विजय सिंह जरूर अलग-थलग पड़ गए। भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू के इस दावे में दम लगता है जिसमें उन्होंने कहा है कि कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को एक मिशन पर लगाया हुआ है जिसका मकसद भ्रष्टाचार से लोगों का ध्यान बांटना है। हिंदू आतंकवादियों वाले बयान से दिग्विजय सिंह क्या हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज के हीरो बन गए हैं? देश-विदेश के किसी भी राजनेता ने या पाकिस्तान को छोड़कर किसी भी देश ने ऐसा बयान नहीं दिया। जैसाकि कुछ समय के पूर्व तक दिग्विजय सिंह की छवि कुछ और थी क्योंकि उन जैसे नेताओं के व्यक्तित्व से ऐसे बयान और आरोप बिल्कुल भी मेल नहीं खाते हैं। मुंबई आतंकी हमले के बाद शिवराज पाटिल को केंद्रीय गृहमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। महाराष्ट्र में सियासत करने वाले अब्दुल रहमान अंतुले ने भी मुंबई हमले पर विवादस्पद बयान दिया था जिससे कांग्रेस को अंतुले से किनारा करना पड़ा था। यदि आपको याद हो तो देश के बहुचर्चित शाहबानो तलाक मामले में इसी कांग्रेस ने राजीव गांधी मंत्रिमंडल में शामिल केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से पहले तो तलाक के खिलाफ बयान दिलवा दिया और जब इस पर तूफान उठा तो कांग्रेस ने आरिफ के बयान से अपने को अलग कर लिया। यही नहीं केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से इस्तीफा ले लिया गया और शाहबानों मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में संशोधन विधेयक के जरिए प्रभावहीन कर दिया गया। इस घटनाक्रम में आरिफ मोहम्मद खान जैसा दिग्गज और योग्य लीडर निपट गया। वह दिन और आज का दिन है आरिफ मोहम्मद खान देश तो छोड़िए अपने राज्य उत्तर प्रदेश और अपने ही जिले बहराइच के राजनीतिक परिदृश्य से ही ओझल हो चुके हैं। कांग्रेस को इस बात का कोई पछतावा नहीं है कि उसने आरिफ मोहम्मद खान को शाहबानो मामले में बलि का बकरा बनाया। कांग्रेस अब आरिफ मोहम्मद खान का नाम भी लेने से डरती है, उन्हें कांग्रेस में वापस लेने की बात तो बहुत दूर है। वे यह जानते हुए भी कि यह कांग्रेस है जिसमें डूब जाने वाले या डुबो दिए जाने वाले का पता नहीं चल पाया ऐसी राजनीतिक गलतियां करते जा रहे हैं जिनका कांग्रेस साथ देने वाली नहीं है पर दिग्विजय सबक नहीं ले रहे।
Monday, October 15, 2012
खुर्शीद के बहाने खुली एनजीओ की पोल
केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद के गैरसरकारी संगठन यानि एनजीओ ‘डॉ. जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट’ पर आरोप सच हों या झूठ, लेकिन इस घटनाक्रम से देश में इन संगठनों की धींगामुश्ती की कलई जरूर खुली है। आश्चर्यजनक रूप से देश का एक मंत्रालय को अपना पूरा काम इन्हीं एनजीओ के जरिए कराता है। सामने दिखता है कि वह क्या चाहता होगा और कमाई के स्रोत बने इन संगठनों के जरिए क्या हो पाता होगा।
खुर्शीद पर आरोपों से देश की सियासत गर्म है। ट्रस्ट पुराना है और दावे किए जाते रहे हैं कि उसके स्तर से ढेरों कार्य किए गए हैं। यही नहीं, तमाम गणमान्य लोगों ने उसके कार्यक्रमों में हिस्सा लिया है। ऐसे में जैसे ही आरोप लगे तो लोग हैरत में पड़ गए। वैसे भी यह मान पाना बेहद मुश्किल था कि देश के कानून मंत्री भी नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ा सकते हैं। खुर्शीद राजनीतिक तौर पर बेहद प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य हैं, उनके पिता खुर्शीद आलम खां कई बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहे और राज्यपाल जैसे पदों को भी सुशोभित किया। लुईस खुद भी अपना सियासी कद रखती हैं और चुनावी मैदान में हाथ आजमा चुकी हैं। मौजूदा घटनाक्रम से सबसे ज्यादा मुश्किल कांग्रेस को हो रही है। खुर्शीद पार्टी के बड़े नेता हैं और संकट की स्थिति में उसके अभियान की कमान सम्हाला करते हैं। अरविंद केजरीवाल इस मामले में फिलहाल सियासी नफे की स्थिति में नजर आ रहे हैं क्योंकि एक बड़े केंद्रीय मंत्री की घेराबंदी का उनका प्रयास कांग्रेस की चूलें हिलाने में सफल रहा है। तमाम तरह के राजनीतिक तूफानों में घिरी कांग्रेस को खुर्शीद पर भरोसा था पर वो भी अब शक के घेरे में आ गए हैं।
बहरहाल, सच जो भी है, वो सामने आना बाकी है लेकिन इससे देश में गैर सरकारी संगठनों की धींगामुश्ती की पोल खुली है। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने गैर सरकारी संगठनों को तेजी से खड़ा और मजबूत किया है। कई मामलों में एनजीओ लगभग सरकार या उसकी एजेंसियों के बराबर हस्तक्षेप रखते हैं। सरकार ने भी अपनी नीतियों के जरिये अपरोक्ष रूप से एनजीओ को बढ़ावा दिया है। केंद्र और राज्य में चाहे भी जिस दल की सरकार रही हो, सभी ने एनजीओ को धीरे-धीरे विपक्ष के रूप में खड़ा किया है। पहले जो काम राजनीतिक दलों या उससे जुड़े जन संगठन किया करते थे, उदारीकरण की नीतियों के बाद उनकी जगह ये एनजीओ लेने लगे। यह सब-कुछ बिल्कुल सोची-समझी रणनीति के तहत धीरे-धीरे किया जा रहा है। पिछले वित्त वर्ष में आदिवासी मामलों के मंत्रालय का कुल बजट 2229 करोड़ रुपये का था। इससे पहले वर्ष 2009-2010 में यह बजट 1818 करोड़ और उससे पहले वर्ष 2008-2009 में करीब 2133 करोड़ रुपये का था। आदिवासियों के विकास के नाम पर खर्च होने वाला उन सब बजट से अलग है जो गृह मंत्रालय आदिवासी बहुल जिलों में वामपंथी उग्रवाद को खत्म करने के लिए खर्च करता है, या दूसरी अन्य योजनाओं के जरिये आदिवासियों पर खर्च हो रहे हैं। देश व राज्य के आदिवासी मामलों के मंत्रालय या सामाजिक अधिकारिता विभाग की वार्षिक रिपोर्टों पर नजर डालना रोचक होगा। यह इकलौते ऐसे मंत्रालय या विभाग होंगे जिनका अधिकांश काम गैर सरकारी संगठनों के जिम्मे होता है। मसलन आदिवासी मामलों के मंत्रालय की वर्ष 2010-11 की रिपोर्ट को लेते हैं। इसमें आदिवासियों के विकास से जुड़ी जितनी भी योजनाएं हैं वह बिना एनजीओ की भागीदारी के नहीं चल रहीं। कई सारी योजनाएं तो महज एनजीओ के भरोसे ही चल रही हैं। एनजीओ के प्रति आकर्षण का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मौजूदा समय में हमारे देश में सक्रिय सूचीबद्घ एनजीओ की संख्या एक रिपोर्ट के मुताबिक 33लाख के आसपास है। यानी हर 365 भारतीयों पर एक एनजीओ। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा एनजीओ हैं, करीब 4.8 लाख। इसके बाद दूसरे नंबर पर आंध्रप्रदेश है। यहां 4.6 लाख एनजीओ हैं। उत्तर प्रदेश में 4.3 लाख, केरल में 3.3 लाख, कर्नाटक में 1.9 लाख, गुजरात व पश्चिम बंगाल में 1.7-1.7 लाख, तमिलनाडु में 1.4 लाख, उड़ीसा में 1.3 लाख तथा राजस्थान में एक लाख एनजीओ सक्रिय हैं। इसी तरह अन्य राज्यों में भी बड़ी तादाद में गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं। दुनिया भर में सबसे ज्यादा सक्रिय एनजीओ हमारे ही देश में हैं। धन की बात करें तो दान, सहयोग और विभिन्न फंडिंग एजेंसियों के जरिये एनजीओ क्षेत्र में अरबों रुपया आता है। अनुमान है कि हमारे देश में हर साल सारे एनजीओ मिल कर 40 हजार से लेकर 80 हजार करोड़ रुपये तक जुटा ही लेते हैं। सबसे ज्यादा पैसा सरकार देती है। ग्यारहवीं योजना में सामाजिक क्षेत्र के लिए 18 हजार करोड़ रुपये का बजट रखा गया था। दूसरा स्थान विदेशी दानदाताओं का है। सिर्फ सन् 2005 से 2008 के दौरान ही विदेशी दानदाताओं से यहां के गैर सरकारी संगठनों को 28876 करोड़ रुपये (करीब 6 अरब डॉलर) मिले। इसके अलावा कॉरपोरेट सेक्टर से भी सामाजिक दायित्व के तहत काफी धन गैर सरकारी संगठनों को प्राप्त होता है।
Thursday, October 4, 2012
आर्थिक सुधारों का दूसरा दौर
खुदरा कारोबार में विदेश निवेश को मंजूरी, डीजल के दाम बढ़ाने और एलपीजी पर सब्सिडी को सीमित करने के करीब 20 दिनों बाद दूसरे दौर के आर्थिक सुधारों को मंजूरी दिए जाने से यह सिद्ध हुआ है कि आलोचनाओं और विरोध के बवंडर से बेपरवाह डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार की आर्थिक सुधार की रेल बेधड़क दौड़ रही है। पेंशन में विदेशी निवेश को स्वीकृति और बीमा क्षेत्र में इसका दायरा बढ़ाने का सरकार का ताजा फैसला एक और राजनीतिक भूचाल लाने को तैयार है। सवाल उठता है कि नए फैसले में उसकी हिमायत कौन-कौन करने जा रहा है और जो विरोधी हैं, उनसे सरकार कैसे टक्कर लेने जा रही है। मनमोहन के सुधारों का अर्थव्यवस्था पर अच्छे परिणामों के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। इनसे सरकार को विपक्षी तीरों का जवाब देना आसान होने जा रहा है।
सरकार समझ रही है कि अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए बढ़ता औद्योगिकीकरण जरूरी है। जिस तरह के हालात हैं, देशी निवेशकों के समक्ष चुनौती अपनी पूंजी कायम रखने की है और वह नए निवेश की तरफ नहीं बढ़ रहे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मंदी दस्तक दे रही है। अमेरिका समेत तमाम दुनिया के कई बैंक तक धराशाई हो चुके हैं। ऐसे में विदेशी निवेश एक सरल रास्ता हो सकता है। तथ्य यह भी है कि भारत के बड़े आकार के बाजार पर बड़ी विदेशी कम्पनियों की पहले से नजर है। ढेरों प्रस्ताव सत्ता के समक्ष लम्बित हैं यानी सरकार के समक्ष यह चुनौती भी नहीं है कि विदेशी निवेश जुटाया कहां से जाए। इसीलिये पेंशन क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश स्वीकृत किया गया जबकि बीमा क्षेत्र में इस निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 प्रतिशत की गई। इससे पहले यूपीए सरकार ने 14 सितंबर को मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत एफडीआई की मंजूरी दी थी। साथी ही नागरिक उड्डयन क्षेत्र में एफडीआई नियमों में और ढील देने का फैसला किया था। प्रसारण क्षेत्र में भी एफडीआई को उदार बनाया गया था। सरकार दरअसल, सितम्बर में शुरू सुधार के अपने कदमों को आगे भी जारी रखना चाहती है। तृणमूल कांग्रेस की विदाई के बाद राजनीतिक माहौल भी अनुकूल ही है। समाजवादी पार्टी खुलकर साथ है तो बहुजन समाज पार्टी चुपचाप पीछे-पीछे चल रही है। यूपीए का घटक द्रमुक कहे कुछ भी लेकिन अपनी मजबूरियों के चलते वह अलग नहीं हो सकता है, यह बिल्कुल तय है। यूपीए को उम्मीद है कि वह विकास दर में गिरावट रोकने में सफल रहेगी। जून में नौ साल पुराने पेंशन फंड रेग्युलेटरी एण्ड डेवलपमेंट अथॉरिटी बिल को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के चलते कदम पीछे खींच लिये। इस बिलि से बिल से पेंशन नियामक तो कानूनी दर्जा मिलेगा। वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम की इसमें रुचि है, कार्यभार संभालने के तुरंत बाद उन्होंने बीमा और पेंशन बिलों को आगे बढ़ाने का फैसला किया था। नियामक खुद भी मानता है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढ़ाने की जरूरत है। इरडा चेयरमैन जे. हरिनारायण का कहना है, 'जब तक हम यह सीमा 49 फीसदी नहीं करते, तब तक बीमा उद्योग के विकास के लिए हमें पर्याप्त पूंजी नहीं मिल पाएगी।'
सरकार के नए फैसले के प्रभावों का आकलन किया जाए तो तमाम विशेषज्ञों ने इसकी वकालत की है। उनका कहना है कि पेंशन क्षेत्र में इससे बड़े पैमाने पर पैसा आएगा, जिसे ढांचागत क्षेत्र में निवेश किया जा सकता है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र में निवेश के लिए करीब 52 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। एसोचैम कहती है कि एफडीआई की इजाजत से ग्लोबल पेंशन फंड्स कंपनियों को भारतीय बाजार में कारोबार करने का मौका मिल सकेगा जिनके पास अथाह पैसा है और उन्हें भारत के विशाल बाजार में कमाई की स्वर्णिम संभावनाएं नजर आ रही हैं। विरोधी कहते हैं कि विदेशी निवेशकों के पास देने के लिए कोई भी नया बीमा उत्पाद नहीं है। ये भारतीय जीवन बीमा निगम से उलट सामाजिक दायित्वों से बचते हुए व्यापार की मलाई खाना चाहती हैं। आलोचक यह भी तर्क देते हैं कि पेंशन का मसला सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा है। भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक सुरक्षा का मसला बेहद संवेदनशील है, पेंशन में विदेशी निवेश से ज्यादा फायदा होता नहीं दिख रहा क्योंकि सरकार अपने लोगों की सुरक्षा और कल्याण के बारे में जितना अधिक सोच और कर सकती है, उतना विदेशी कंपनियां नहीं सोचेंगी क्योंकि वे कारोबार के लिहाज से निवेश करेंगी।
दूसरी तरफ, सरकारी बीमा कंपनियां सामाजिक और आर्थिक विकास में बड़े पैमाने पर निवेश कर रही हैं और इनके इंश्योरेंस कवर का दायरा ऐसे क्षेत्रों तक फैल रहा है, जो अब तक अछूते थे। इसमें तेजी लाए जाने की जरूरत है। ढांचागत विकास का क्षेत्र सरकारी बीमा कंपनियों में 'सरप्लस जनरेशन' के जरिये निवेश पर निर्भर है। बीमा क्षेत्र में और विदेशी निवेश की इजाजत देकर सरकार विकास के लिए निवेश की इस प्रक्रिया को पंगु बना रही है जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ेगा। बीमा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा बढ़ाने के मुद्दे पर यह नहीं भूला जाना चाहिए कि विदेश निवेशकों की दिलचस्पी माइनॉरिटी शेयर होल्डिंग में नहीं बल्कि अपने हित साधने में ज्यादा होगी। ये निवेशक विकास कार्यों के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने में भी रुचि नहीं दिखाएंगे। उनकी दिलचस्पी भारत के घरेलू सेविंग्स पर नियंत्रण करने और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होगी। बीमा और पेंशन को सबसे सर्वाधिक अहम मानकर विरोध करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा का कहना है कि एफडीआई से भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलभूत ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। अमेरिका हो या यूरोप या फिर कोई और देश, प्राइवेट बीमा कंपनियां पूरी तरह नाकाम रहीं और बर्बाद हो गई हैं।
Tuesday, September 25, 2012
नीतीश की सियासत का दूसरा चेहरा
इसे राजनीति का अजूबा खेल ही कहेंगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक ओर तो राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग कर रहे हैं और दूसरी तरफ उनकी सरकार किसानों के लिए खुशियां लाने में सक्षम एक कदम उठाने से बच रही है। कई बार हो-हल्ले के बाद भी उसकी नींद नहीं खुल रही। विशेष राज्य की मांग पर केंद्र की राजनीति गरमाने को तैयार बैठे नीतीश कुमार को इसी मुद्दे पर अन्य दलों के साथ ही उनकी सहयोगी भाजपा के भी कुछ नेता आड़े हाथों ले रहे हैं। जिलों में यह मुद्दा खूब उठ रहा है।
नीतीश सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में घोषणा की कि गन्ने से इथेनॉल बनाने के लिए कंपनियों को बिहार आमंत्रित किया जाएगा। गन्ना बिहार की एक मुख्य फसल है और लाखों लोगों के जीवनयापन का साधन भी। शुरूआत में कई बड़ी कंपनियों ने इसमें रुचि भी दिखाई। तब कहा गया था कि इससे बिहार की किस्मत बदल जाएगी। इस बात में दम भी था, क्योंकि ऐसा होने से बिहार चीनी और इथेनॉल के उत्पादन में अग्रणी राज्य बन जाता, लेकिन सरकार की इस पूरी कवायद में केंद्र सरकार की एक नीति ने पेंच फंसा दिया। उसके मुताबिक गन्ने से इथेनॉल नहीं बनाया जा सकता। नतीजतन, बड़ी कंपनियों ने अपने हाथ खींच लिए। जाहिर है, यह बिहार और वहां के लोगों के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन बिहार के किसी भी राजनीतिक दल ने केंद्र सरकार से यह नियम बदलने की मांग नहीं की और न आंदोलन किया। बिहार के विकास की बात करने वाले नीतीश कुमार या उनकी पार्टी की ओर से भी ज्यादा कुछ नहीं कहा गया। अब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन की बात कर रहे हैं। हालांकि बिहार बंटवारे को दस साल से ज्यादा हो गए और बंटवारे के व़क्त से ही विशेष पैकेज और विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग राजनीतिक दल करते रहे हैं। गौर करने की बात यह है कि जब राज्य का बंटवारा हुआ था, तब केंद्र में एनडीए और बिहार में राजद का शासन था, लेकिन तब एनडीए ने बिहार को न तो विशेष पैकेज दिया और न ही विशेष राज्य का दर्जा। जब एनडीए की सरकार गई, तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार और बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार सत्ता में आई। अब नीतीश कुमार विशेष पैकेज और विशेष दर्जे की मांग कर रहे हैं और बाकायदा इसके लिए हस्ताक्षर अभियान और आंदोलन तक छेड़ दिया गया है। सवा करोड़ बिहारियों के हस्ताक्षर प्रधानमंत्री तक पहुंचाने की कवायद की गई। जनता दल के नेता बीते 13 जुलाई को दिल्ली के जंतर-मंतर पर पहुंचे। विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर पार्टी का हस्ताक्षर अभियान महीनों से चल रहा था। जंतर-मंतर पर जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने केंद्र सरकार पर बिहार के खिलाफ साजिश करने की बात कही, भेदभाव करने का आरोप लगाया। शरद यादव ने केंद्र सरकार से चेतावनी के लहजे में कहा कि अगर बिहार पिछड़ा रहेगा तो पूरा देश पिछड़ जाएगा। बहरहाल, इस हस्ताक्षर अभियान और विशेष राज्य के दर्जे की मांग के पीछे की कहानी क्या है? आखिर नीतीश कुमार को विशेष पैकेज की याद अपने दूसरे कार्यकाल में इतनी शिद्दत के साथ क्यों आ रही है? दरअसल, नीतीश कुमार अपने पहले कार्यकाल में सड़क और कानून व्यवस्था दुरस्त करने के नाम पर दूसरी बार सत्ता पा गए। विकास के नाम पर बिहार में सिर्फ सड़कें बनीं। जाहिर तौर पर उनमें से ज्यादातर सड़कें केंद्रीय योजनाओं के अंतर्गत बनी थीं। बिजली आज भी पटना को छोड़कर बिहार के बाकी जिलों के लिए दूर की कौड़ी बनी हुई है। जिस निवेश की बात नीतीश कुमार कर रहे हैं, वह असल में सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। जहां कहीं भी छोटे-मोटे उद्योग लगाए जा रहे हैं, वहां भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर जन विरोध का सामना करना पड़ रहा है। मुजफ्फरपुर और फारबिसगंज में यही हुआ। फारबिसगंज में तो एक कारखाने का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस फायरिंग तक की गई। दरअसल बाढ़, बिजली, विकास, अपराध और भ्रष्टाचार से हारी हुई नीतीश सरकार अब अगले चुनावों (लोकसभा और विधानसभा) की तैयारी में जुट गई है और इसके लिए विशेष पैकेज, विशेष राज्य के दर्जे से अच्छा मुद्दा और क्या हो सकता था। असल में यह एक भावनात्मक मुद्दा है, जिसके सहारे जनता को बरगलाया जा सकता है। खुद कुछ न कर पाने की स्थिति में सीधे-सीधे केंद्र सरकार पर आरोप लगाया जा सकता है। यह कहकर कि केंद्र सरकार ने विशेष पैकेज के तहत पैसा नहीं दिया। अब इसे क्या कहा जाएगा, एक ओर तो बिहार सरकार केंद्र से पैसा पाने के लिए विशेष पैकेज मांग रही है, वहीं दूसरी ओर अपने विधायकों का वेतन-भत्ता कई गुना बढ़ा चुकी है। सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार बिहार के कृषि आधारित उद्योगों के विकास पर ध्यान देने के बजाय जनता का ध्यान विशेष पैकेज और विशेष राज्य की ओर क्यों खींचना चाहते हैं?
Thursday, September 20, 2012
ममता बनर्जी के ये तेवर...
टेलीफोन टैपिंग का आरोप लगाकर तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने सिद्ध कर दिया है कि वह केंद्रीय सत्ता पर काबिज संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अगुवा कांग्रेस पर प्रहार का कोई मौका नहीं छोड़ रहीं। सरकार के अब तक के कार्यकाल में कई बार समस्या का सबब बनीं पश्चिम बंगाल की यह तेजतर्रार मुख्यमंत्री जैसे पूरी शिद्दत से यह बताने में जुटी हैं कि केंद्र सरकार से उनका सम्बन्ध विच्छेद हो चुका है और हर बार की तरह वह सौदेबाजी के मूड में नहीं हैं। वह पूरे दम से जुटी रहीं जब तक उम्मीद थी कि केंद्र से अपने राज्य के लिए भारी-भरकम पैकेज ले पाएंगी। तमाम उम्मीदें पूरी न होने पर उन्होंने नाराजगी की राह अपना ली थी। सरकार में रहते हुए भी उसे नीचा दिखाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देने की रणनीति के तहत कुछ माह पूर्व जब प्रधानमंत्री कोलकाता गए तो विमानतल पहुंच कर उनका स्वागत करने का सामान्य शिष्टाचार भी उन्होंने नहीं निभाया। मकसद जुझारू नेता की अपनी छवि को और मजबूत करने का था। हालांकि तस्वीर का दूसरा रुख भी है जिसमें ममता के सामने धर्मसंकट नजर आ रहा है। कांग्रेस ने काफी-कुछ सोच-समझकर दांव खेला है लेकिन तृणमूल हो या अन्य प्रादेशिक दल, उनके विकल्प सीमित हैं। ममता ने पहले भी भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया था और उनका यह प्रयोग असफल हो गया था। आज वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं तो क्या फिर भाजपा के साथ गठबंधन का खतरा उठा सकती हैं? यह भी ध्यान रखना होगा कि अपनी पार्टी के भीतर उनकी जो मनमानी चल रही है, वह लम्बे समय तक कायम नहीं रह सकती। दिनेश त्रिवेदी को उन्होंने जिस तरह से अपमानित किया, क्या वे उसे भूल गए होंगे? उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा एफडीआई के विरोध में नहीं हैं। पश्चिम बंगाल की जो आर्थिक दुरावस्था है, क्या उद्योग जगत से पूरी तरह नाता तोड़कर तृणमूल सरकार सचमुच स्थिति को सुधार सकती है? कुल मिलाकर ममता बनर्जी पांच साल मुख्यमंत्री तो बनी रह सकती हैं, वे पार्टी के भीतर असंतुष्टों को दबा सकती हैं, लेकिन क्या वे एक सफल और परिवर्तनशील नेतृत्व दे पाएंगी? यह सवाल उन्हें भी परेशान कर रहे हैं। समर्थन वापसी की घोषणा के बाद कांग्रेस ने जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों से प्रधानमंत्री की मुलाकात की घोषणा की, उससे यह संदेह पुख्ता हुआ कि ममता के केंद्रीय मंत्री उनसे अलग भी जा सकते हैं। मध्यावधि चुनाव के लिए मन मजबूत कर रही कांग्रेस की योजना ममता से नाखुश इन्हीं केंद्रीय मंत्रियों का चुनाव में प्रयोग करने की भी है, लेकिन तभी जबकि यह फिलहाल ममता के विरुद्ध बगावत का मन न बना पाएं। इस समय ये समर्थन के लिए राजी होते हैं, तो सरकार के लिए सोने में सुहागा।
Tuesday, September 18, 2012
विदेशी निवेश पर खिंचे पाले
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ताबड़तोड़ फैसलों से आर्थिक सुधारों की गाड़ी ने तो रफ्तार पकड़ ली है लेकिन आम आदमी जहां का तहां खड़ा रह गया है। राजनीतिक मोर्चे पर यूपीए सरकार की मुश्किलें और बढ़ती नजर आ रही हैं। कोयला घोटाले पर हंगामे से त्रस्त कांग्रेस का विदेशी निवेश का यह कार्ड डीजल मूल्य वृद्धि और रसोई गैस राशनिंग जैसे जनविरोधी फैसलों के विरोध पर भारी पड़ रहा है। सवाल यह है कि जब पूरा देश इनके खिलाफ खड़ा है, वहीं अन्य दलों के साथ ही कांग्रेस की कुछ अपनी राज्य सरकारें भी विरोध में सुर बुलंद कर रही हैं।
कोयला घोटाले का भूत यूपीए सरकार को जमकर डरा रहा था। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की अग्रणीभूमिका में पूरा विपक्ष सरकार को आड़े हाथों ले रहा था। घोटाले दर घोटालों से घिरी इस सरकार ने ऐसे में डीजल मूल्यवृद्धि और गैस राशनिंग का निर्णय लिया। डीजल का मूल्य बढ़ना सीधे महंगाई बढ़ाने का सबब बनता है और गैस राशनिंग से आम जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। उधर विपक्षी दलों के लिए यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनने जा रहा है। लगने लगा था कि सरकार बड़े संकट में फंसने की ओर है, तभी विदेशी निवेश का निर्णय ले लिया गया। सरकार की मंशा विरोधों की भीड़ में विदेशी निवेश को शांतिपूर्ण ढंग से लागू कराने की थी। लेकिन अब सियासी बवंडर शुरू हो चुका है। विपक्षी दलों के साथ ही यूपीए की घटक तृणमूल कांग्रेस और सहयोगी समाजवादी पार्टी ताल ठोंक रही है। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो समर्थन वापसी की धमकी देते हुए सरकार को फैसले वापस लेने के लिए 72 घंटे का अल्टीमेटम दिया है। समाजवादी पार्टी भी नाराज है। क्या महंगाई और एफडीआई के चक्कर में मनमोहन सरकार ही चली जाएगी? क्या दो दिन में दो तूफानी फैसलों के भंवर में खुद यूपीए सरकार फंसने वाली है? क्या इन्हीं फैसलों के कारण पड़ेगी यूपीए में आखिरी दरार? ममता और मुलायम के तेवर सख्त हैं लेकिन मनमोहन आश्वस्त! महंगाई और एफडीआई को लेकर एक बार फिर केंद्र सरकार से ममता बनर्जी हैं बेहद खफा। मुलायम ने हर बार सत्ता का साथ दिया है तो बंगाल की अग्निकन्या राजनैतिक सौदेबाजी तक सीमाबद्ध रही है। इसलिए ममता या मुलायम सरकार गिरा देंगे. ऐसे आसार नहीं है। तृणमूल कांग्रेस ने केंद्र सरकार को 72 घंटे का अल्टीमेटम दिया है वहीं उसे समर्थन दे रही बहुजन समाज पार्टी समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने भी कड़ा विरोध किया है। भारतीय जनता पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) ने फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरने का ऐलान करते हुए विरोध कर रहे संप्रग के सहयोगी दलों को सरकार से बाहर आने की चुनौती दे डाली है। यह सरकार के लिए संकट की बात है।
मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की अनुमति के नफे भी हैं और नुकसान भी। नफा यह है कि इससे देश में भारी मात्रा में विदेशी निवेश आएगा। अगले तीन साल में लगभग एक करोड़ रोजगार के अवसर निकलेंगे, किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों के चंगुल से मुक्ति मिलेगी और वह अपनी फसल को सीधे मल्टी ब्रांड रिटेल कंपनियों को अच्छे दामों पर बेच सकेंगे, इस फसल को उन्हें कहीं बेचने नहीं जाना पड़ेगा बल्कि कंपनियां सीधे खेत से उनके उत्पाद को उठा लेंगी. भंडारण की समस्या नहीं रहेगी क्योंकि यह कंपनियां अपने वेयरहाउस बनाएंगी। इससे फसल को सड़ने से बचाया जा सकेगा। अगर नुकसान की बात की जाए तो इसके कई नुकसान भी हैं। मल्टी ब्रांड रिटेल से 30 करोड़ लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इनमें पांच करोड़ जनरल स्टोर या छोटी-मोटी परचून की दुकान चलाने वाले खुदरा कारोबारियों के अलावा आढ़तिये, पल्लेदार, ठेला मजदूर व अन्य लोग शामिल हैं। देश में बहुराष्ट्रीय स्टोर खुलने के बाद इन स्टोरों पर ग्राहकों को रिझाने के लिए अनेक योजनाएं चलाई जाएंगी जिससे छोटी-मोटी दुकान चलाने वालों का धंधा तो चौपट होगा ही साथ ही इससे जुड़े करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे। चूंकि मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी निवेश की अनुमति दी गई है इसलिए इन स्टोरों पर नियंत्रण भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही होगा। अत: इनकी सहयोगी भारतीय कंपनियां चाहकर भी अपने देश के नागरिकों के हितों की रक्षा नहीं कर पाएंगी। उधर विमानन क्षेत्र में 49 फीसद एफडीआई की अनुमति मिलने का भी देश के विमानन उद्योग पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार से असर होगा। विमानन क्षेत्र में एफडीआई में भारतीय एयरलाइंस की बहुलांश हिस्सेदारी होने से अधिकतर नियंत्रण भारतीय कंपनियों का ही होगा लेकिन विदेशी कंपनी भी कई मामलों में अपना नियंत्रण रखेगी। इससे कर्मचारियों के हित प्रभावित हो सकते हैं। विदेशी कंपनियां अपने कर्मचारियों के लिए एक निश्चित् प्रतिशत तय कर सकती हैं। इससे पायलट, केबिन क्रू स्टाफ और ग्राउंड हैंडलिंग स्टाफ में भारतीय कर्मचारियों की संख्या कम होगी। इसके अलावा विमानन क्षेत्र में एफडीआई का फायदा भी होगा। देश के छोटे शहरों में उड़ान शुरू करने के रास्ते खुलेंगे। सभी राज्यों की राजधानियों का आपस में विमान संपर्क हो जाएगा और यात्रियों का कम समय में गंतव्य पर पहुंचने में आसानी होगी। कुल मिलाकर सरकार के लिए संकट की घड़ी है। वैसे मनमोहन सिंह जिस तरह अडिग हैं, उससे लगता है कि कांग्रेस भी चुनाव के लिए कमर कस रही है। इन फैसलों को जरूरी बताकर वह मैदान में होगी।
रणनीति भी है ये
रिटेल कारोबार के क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी पर कांग्रेस की एक रणनीति राज्यों के गले फंसने लगी है। वह उन राज्यों में इसे कारगर ढंग से लागू करने को तैयार है जहां उसकी सरकारें हैं। मकसद साफ है, फैसले से राज्यों में विदेशी निवेश बढ़ा और रोजगार के अवसरों में कमी की अटकलें निराधार सिद्ध हुईं तो वह हमलावर हो जाएगी। इसके बाद उसे चुनावों में अपने फैसले को न्यायसंगत ठहराने के तर्क मिल जाएंगे। देश के गैर-कांग्रेस शासित राज्यों के ज्यादातर मुख्यमंत्रियों ने इस पर अपना रुख साफ करते हुए, इसे अपने-अपने राज्यों में लागू न करने का फैसला सुना दिया है। त्रिपुरा और मिजोरम भी फैसले के खिलाफ हैं। दक्षिण भारत के बड़े राज्य भी विदेशी किराना के फैसले के विरोध में खड़े हैं। केरल ने भी लागू करने से साफ इंकार किया है। इसका मतलब हुआ कि भाजपा-एनडीए शासित बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गोवा, गुजरात और झारखंड के साथ साथ उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओड़िशा जैसे राज्य रिटेल में विदेशी निवेश के फैसले से फिलहाल दूर रहेंगे। ऐसे में कांग्रेस की उम्मीदें अपने राज्यों में टिकी हैं। हरियाणा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, असम, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, महाराष्ट्र, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और नागालैंड जैसे राज्य रिटेल में एफडीआई के पक्ष में हैं। इन राज्यों के साथ ही दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में सबसे ज्यादा विदेशी किराना स्टोर खुलने की उम्मीद है। यदि इन राज्यों में विदेशी निवेश आने लगा और सरकार का फैसला सही साबित हुआ तो अन्य राज्य कटघरे में आ जाएंगे और कांग्रेस को इसका विशेष फायदा होगा, तब अन्य राज्यों पर इसे अपनाने का दबाव आएगा। किसी नीतिगत फैसले पर गेंद को विपक्षी पाले में फेंकने और तमाशा देखने की लम्बी परम्परा रही है। जब केंद्र की नीतियों पर राज्यों का विरोध हो, तो इससे बचने का अच्छा तरीका होता है कि फैसले को मानने न मानने का अधिकार राज्यों पर छोड़ दें। इससे आप कुछ देर के लिए सुरक्षित जगह पा लेते हैं। मौजूदा फैसलों पर भी केंद्र सरकार ने राज्यों से यही कहा है कि यदि राज्य सरकारें यह सोचती हैं कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आने और देश में बड़े-बड़े विदेशी किराना स्टोर खुलने से देश के करोड़ों छोटे व्यापारी प्रभावित होंगे, तो वे इसे अपने राज्यों में अनुमति न दें और फिर एक बड़ी विदेशी पूंजी से वंचित रहें। अन्य दलों की तरह कांग्रेस को भी आम चुनाव दिखाई देने लगे हैं। इसीलिये उसने पहले डीजल मूल्य वृद्धि और रसोई गैस सिलेण्डर की राशनिंग का निर्णय किया, ताकि कोयला घोटाले से ध्यान हटे और फिर विदेशी निवेश को स्वीकृति देकर मूल्यवृद्धि से भी ध्यान हटाने का कारगर प्रयास किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सख्त तेवर भी इन्हीं तैयारियों का एक रूप हैं।
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