... तो क्या महज 22 साल का हार्दिक पटेल इतना ताकतवर हो गया कि एक राज्य की कानून व्यवस्था को ध्वस्त कर दे, आरक्षण की बरसोंपुरानी उस फाइल को उलट-पुलट कर दे, वोट बैंक खिसक जाने के डर से कोई सियासी दल जिसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब यह पता चलता है कि यह लड़का उस बिरादरी का है, जिसमें ज्यादातर बच्चे मां के पेट में आते ही लखपति और करोड़पति बन जाया करते हैं। लाख टके का सवाल यह है कि हवा के खिलाफ दमदारी से खड़े इस युवक के पीछे कोई संगठित ताकत तो नहीं, कहीं किसी स्थापित परंपरा को ढेर करने की कोशिशें तो नहीं चल रहीं या फिर, आरक्षण के विरुद्ध बड़े आंदोलन की नींव तो नहीं पड़ रही?
हार्दिक वाकई जिस भी मकसद से मैदान में है, कुछ प्रतिशत कामयाब-सा प्रतीत होता है। इस युवक के पीछे लाखों की भीड़ होने के निहितार्थ क्या हैं। राजनीति घुमावदार है, यह वो दरिया है जिसकी सतह पर जब शांति लगती है तभी भीतर कोई धारा अंगड़ाई ले रही होती है। यह हार्दिक पटेल के एपीसोड से सिद्ध हो रहा है। हार्दिक कहते हैं कि पटेलों को आरक्षण दीजिए, और अगर ये संभव नहीं तो आरक्षण व्यवस्था ही समाप्त करिए। मांग की बात न करते हुए यदि नियमों पर जाएं तो पटेल आरक्षण की मांग पहली कसौटी पर ढेर होती नजर आती है। सामाजिक स्थिति का आकलन किए जाते वक्त पटेलों को आर्थिक आधार पर पिछड़ा सिद्ध कर पाना मुश्किल होगा, यह बात हार्दिक भी जानते हैं और उनके पीछे खड़े तमाम लोग भी। हालांकि हार्दिक तर्क रखते हैं कि पटेलों की तस्वीर उतनी अच्छी नहीं जितनी नजर आती है। बकौल पटेल, ख़ुशहाल समझा जाने वाला पटेल समुदाय इन दिनों कई तरह की आर्थिक कठिनाइयों का शिकार है। पटेल समुदाय में किसान हैं, हीरे के व्यापारी हैं और उद्योग से जुड़े लोग हैं। हीरों के व्यापार में मंदी है। किसान मुश्किल में हैं। आत्महत्या के दर्जनों मामले सामने आए हैं और राज्य सरकार पर इल्ज़ाम है कि वो केवल बड़े उद्योगपतियों की मदद करती है। इसके अलावा पटेल समुदाय की युवा पीढ़ी में बेरोज़गारी बढ़ी है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सामने जाते ही यह मांग फुस्स हुई तो हार्दिक का दूसरा कार्ड सामने आ जाएगा जिसमें वह आरक्षण खत्म करने की मांग करते नजर आते हैं। यह स्थितियां देश की राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों पर जबर्दस्त प्रहार करेंगी, यह तय है। लेकिन जैसे ही आरक्षण समाप्ति की मांग करती भीड़ सामने आएगी स्थितियां काबू से बाहर हो जाएंगी। आंदोलन के मास्टरमाइंड जानते हैं कि जब तक आरक्षण के मुद्दे की संवेदनशीलता को खत्म नहीं किया गया, इसकी समाप्ति की मांग का समर्थन कर पाना तक राजनीतिक और सामाजिक समूहों के लिए संभव नहीं हो सकता। हार्दिक जाट और गुर्जर जैसे अन्य समूहों से भी मिले हैं जो आरक्षण के लिए आसमान सिर पर उठाए हुए हैं, इसका सीधा-सा मतलब यह है कि वह अपने आंदोलन का आधार बढ़ाने के लिए जुगत भिड़ा रहे हैं। अगर मान भी लिया जाए कि यह दोनों बिरादरियां आरक्षण की मांग पर टस से मस नहीं होतीं तो भी यह तब तक भीड़ बढ़ाती रहेंगी जब तक कि पिछड़ा वर्ग आयोग या किसी और संवैधानिक या न्यायिक मंच पर पटेल आरक्षण की मांग नकार न दी जाए। देश का ढीला-ढाला तंत्र इस मांग पर फैसला करने में ही कई साल बिता देगा। यह अवधि आरक्षण के विरुद्ध अन्य जातियों और समूहों को लामबंद करने में उपयोगी साबित हो जाएगी। हार्दिक हों या गैर आरक्षित जाति का कोई और नेता, सब जानते हैं कि युवाओं में आरक्षण से बड़ा कोई दूसरा मुद्दा नहीं। सवर्ण जातियों का हर युवा सरकारी नौकरी चाहता है और आरक्षण उसका यह सपना पूरा नहीं होने देता। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पीएम कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध आंदोलन को याद कीजिए, तब तमाम शिक्षा परिसर जल उठे थे। युवाओं ने आत्मदाह तक किया था, राष्ट्रीय सम्पत्ति तहस-नहस कर दी गई थी। हालांकि वह आंदोलन किसी राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में पैदा और विस्तारित हुआ था। सीधा-सा फलसफा है, हार्दिक या कोई अन्य नेतृत्व तैयार होता है तो भावी आंदोलन (जैसा कि मास्टरमाइंस सोच रहे हैं) ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है।
प्रश्न उठता है कि हार्दिक पटेल के पीछे है कौन। जब वह छह लाख की भीड़ के साथ सामने आए तो इस सवाल का जवाब ढूंढने में लोगों ने हर संभावना तलाश डाली। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी फोटो सामने आई, फिर शिवसेना के साथ रिश्तों की चर्चाएं शुरू हुईं। केजरीवाल के पीछे होने की बात तो आसानी से किसी के गले नहीं उतरी क्योंकि वह तो अपने सर्वाधिक प्रभाव के राज्य दिल्ली में ही खुद को सफल सिद्ध नहीं कर पा रहे और शिवसेना का गुजरात में इतना प्रभाव है नहीं। कांग्रेस जिस तरह से टुकड़ों में बंटी है, तो यह भी नहीं माना जा सकता था कि वह हार्दिक की रीढ़ हो सकती है। गुजरात में भाजपा के एकछत्र राज्य में यह भी संभव नहीं था कि यह सभी दल मिलकर इतनी भीड़ का एक नेतृत्वकर्ता पैदा कर लें। तो फिर... राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या खुद भाजपा? भाजपा का पटेलों में खासा जनाधार है। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल जैसे उसके पास खासे रसूखदार पटेल नेता हैं तो फिर क्यों अपने वोट बैंक को छेड़ने लगी? हार्दिक पटेल का ये तर्क कि पटेलों को आरक्षण दो या अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण वापस लो. उनकी यह मांग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आरक्षण से संबंधित विचारों से मेल खाती है।
मोदी और संघ परिवार जाति के बजाय आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का मानदंड बनाने के पक्षधर हैं। आम धारणा ये भी है कि राज्य सरकार ने 25 अगस्त की रैली का पर्दे के पीछे से पूरा साथ दिया। इसकी इजाज़त दी गई जबकि ये ज़ाहिर हो गया था कि हिंसा भड़क सकती है। रैली के लिए सरकारी मैदान का किराया नहीं लिया गया। इसमें अहमदाबाद के बाहर से आने वाले लोगों को नहीं रोका गया बल्कि संकेत ये मिले कि राज्य सरकार रैली को रोकने की बजाय रैली कराने में मदद कर रही है। लेकिन फिर अचानक शाम आठ बजे हिंसा उस समय भड़क उठी जब पुलिस ने हार्दिक पटेल को हिरासत में ले लिया। हिंसा शुरू होने के एक घंटे बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बाद वह इधर-उधर मनमाफिक घूमने लगे, यहां तक कि योजनाबद्ध तरीके से दिल्ली भी पहुंच गए। सवाल यह भी है कि बिना किसी संगठन के इतनी बड़ी रैली का आयोजन कैसे कर लिया गया। इसी बिंदु पर आंदोलन को संघ की शह सामने आती है। बहरहाल, आंदोलन ने जैसे संकेत दिए हैं तो आरक्षण व्यवस्था के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। यह भी तय मानिए कि यह आंदोलन आने वाले समय में तमाम मोड़ लेगा, और कामयाब हुआ तो जाति आधारित राजनीति करने वाले तमाम दलों के लिए मुश्किल हो सकती है।