Monday, June 25, 2012
मुर्सी के सामने चुनौतियों का ढेर
मिस्र के चुनावों में मतदाताओं ने इतिहास रचा है। दो साल पहले तक जिस मिस्र में यह कतई असंभव लग रहा था कि प्रतिबंधित मुस्लिम ब्रदरहुड से जुड़ा नेता राष्ट्रपति के शीर्ष पद तक भी पहुंच सकता है। राष्ट्रपति पद के लिए हुए दूसरे चरण के चुनाव में मोहम्मद मुर्सी को लेकर लोगों की राय बंटी हुई थी, असमंजस का दौर चरम पर था। वह जीते और अब राष्ट्रपति हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें बधाई दी है। इजरायल को उम्मीद है कि 30 साल पहले हुए शांति समझौते पर मिस्र कायम रहेगा। हालांकि मुर्सी की राह मुश्किल भी है। उन्हें सिद्ध करना है कि सत्ता की असली चाबी उन्हीं के पास है, न कि कट्टरपंथियों के पास।
मुर्सी का राष्ट्रपति बन जाना इतना आसान नहीं था। दूसरे चरण में वह खुद भी भ्रमित थे और उन्हें टेलीविजन पर एकता की बात दोहरानी पड़ी। मुर्सी के पक्ष में जो बातें जाती हैं उनमें से एक ये है कि उनकी जीत की वैधता पर सवाल उठाना आसान नहीं होगा। ये दावा करना मुश्किल होगा कि चुनावी मशीनरी मुस्लिम ब्रदरहुड के पक्ष में थी लेकिन जीत के बाद उन्हें ये देखना और दिखाना होगा कि असल में उनके पास कितनी ताकत है। पिछले 10 दिनों में सत्ताधारी सैन्य परिषद ने नीतिगत स्तर पर अपना दबदबा फिर से बनाया है। विदेश और रक्षा नीति पर सैन्य परिषद का नियंत्रण है। संसद को उसने भंग कर दिया है और ऐसे में परिषद कानून के मसौदे रख सकती है। संविधान लिखे जाने को लेकर भी परिषद के पास वीटो का अधिकार होगा। उधर मिस्र के लोग देश में सामान्य हालात बहाल होते और सम्पन्नता चाहते हैं, ये मुर्सी के लिए अच्छी बात है। नए राष्ट्रपति के पास प्रधानमंत्री नियुक्त करने और सरकार बनाने के साथ ही घरेलू नीति तय करने का अधिकार है। जीत के बाद अपने भाषण में मुर्सी ने खासतौर पर पुलिसकर्मियों और सुरक्षाकर्मियों को आश्वासन दिया था क्योंकि वे अपनी स्थिति को लेकर काफी घबराए हुए हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद मुर्सी के पास काफी अधिकार और शक्तियाँ होंगी, हालांकि मिस्र में आमतौर पर किसी एक व्यक्ति का ही शासन रहा है इसीलिये यहां के लोग पूरी स्थिति को शक की निगाह से देख रहे हैं।
दशकों से लोगों को यही आगाह किया जाता रहा है कि मुस्लिम ब्रदरहुड मिस्र पर कब्जा कर उसे इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाहता है। इख्वान अल- मुस्लमीन के नाम से भी विख्यात मुस्लिम ब्रदरहुड मिस्र का सबसे पुराना और सबसे बडा़ इस्लामी संगठन है। स्थापना के बाद से ही इस संगठन ने पूरे संसार में इस्लामी आंदोलनों को काफी प्रभावित किया और मध्य पूर्व के कई देशों में अपने सदस्य बना लिये। शुरूआती दौर में इस आंदोलन का मकसद इस्लाम के नैतिक मूल्यों और अच्छे कामों का प्रचार प्रसार करना था, लेकिन जल्द ही मुस्लिम ब्रदरहुड राजनीति में शामिल हो गया। उसने विशेष रूप से मिस्र को ब्रिटेन के औपनिवेशिक निंयत्रण से मुक्ति के अलावा बढ़ते पश्चिमी प्रभाव से निजात दिलाने के लिए काम किया। संगठन ने कई दशक तक सत्ता पर काबिज रहे राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को बेदखल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जनांदोलनों की वजह से फरवरी 2011 में होस्नी मुबारक को सत्ता से हटना पड़ा था. ब्रदरहुड का कहना है कि वो लोकतांत्रिक सिद्धांतो का समर्थन करता है और उसका एक मु्ख्य मकसद है कि देश का शासन इस्लामी कानून यानि शरिया के आधार पर चलाया जाए। मुर्सी के सामने उनके संगठन का यह नजरिया भी एक चुनौती है। संगठन का रवैया भी विवादित रहा है। क्रांति के बाद उसने कहा था कि वो राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार नहीं खड़ा करेगा और न ही संसद की ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ेगा लेकिन बाद में दोनों वादे तोड़ दिए। ऐसे में सबकी नजर इस बात पर रहेगी कि मिस्र का प्रधानमंत्री कौन होगा। वे पहले ही कह चुके हैं कि वे ब्रदरहुड के बाहर से किसी को प्रधानमंत्री नियुक्त करेंगे। वे चाहें तो वो उप राष्ट्रपति और कैबिनट मंत्रियों की नियुक्ति को लेकर भी ऐसा आश्वासन दे सकते हैं। इस समय मिस्र बिल्कुल बटा हुआ है और एक साल से राजनीतिक गतिरोध था, वहीं दूसरी ओर लोग हालात को सामान्य होते देखना चाहते हैं। इन्हीं चुनौतियों के बीच मुर्सी को देश की चुनौतियां का सामना करना होगा।
Tuesday, June 19, 2012
रायसीना और राजनीति के गठजोड़ का डर
यह अब लगभग तय हो रहा है कि प्रणब मुखर्जी देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। बेशक, वह विद्वान हैं, विनम्र हैं और राजनीति के महापंडित हैं लेकिन एक सवाल सबसे ज्यादा उठ रहा है कि केंद्र सरकार के संकटमोचक प्रणब राष्ट्रपति भवन को राजनीति का केंद्र बनने से रोक पाएंगे या नहीं? कई मौके आने हैं, यूपीए सरकार तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसी बैसाखियों पर टिकी है जो कब संकट बन जाएं पता नहीं। आर्थिक संकट मुंहबायें खड़ा है, वित्तमंत्री हों या नहीं, प्रणब इससे निपटने का रास्ता बताते रहे हैं। फिर अगले लोकसभा चुनावों के बाद देश में त्रिशंकु लोकसभा की संभावना बताई जा रही है जिसमें सबसे अहम राष्ट्रपति का रोल होगा। अध्यापक और फिर पत्रकार भी रहे प्रणव मुखर्जी अपनी सारी विद्वता और विनम्रता के बावजूद इन दिनों लगातार झुकने का रिकार्ड बनाए जा रहे हैं, वह एक निष्पक्ष राष्ट्रपति भी बनकर दिखाएंगे, मन में संदेह खड़ा करता है। चुनौती बड़ी है, प्रणब को अपने निर्णयों को गैर राजनीतिक सिद्ध करना है जिसके लिए संविधान में राष्ट्रपति भवन की प्रतिष्ठा है।
केंद्र की राजनीति में प्रणब से बड़े पद पर बेशक, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह हों लेकिन उनकी जैसी छवि किसी की नहीं। उनका बड़ा कद है। सत्ता के बड़े फैसले उनकी भागीदारी के बिना नहीं होते। गठबंधन के दलों की तरफ से मुश्किलें आएं तो वही सम्हालते हैं। हर संकट का हल उनकी भूमिका शुरू होने के बाद होता है, इसलिये वह सरकार के संकटमोचक हैं। यूपीए की केंद्रीय सत्ता के असली संचालक वही हैं। केंद्र सरकार के फैसले लेने वाले मंत्री समूहों और उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूहों में उनकी प्रभावी हिस्सेदारी है। प्रधानमंत्री ने 12 उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूह गठित किए हैं, उन सभी के अध्यक्ष प्रणब ही हैं। यह समूह उन मुद्दों पर फैसले करते हैं जो दोबारा कैबिनेट के विचारार्थ नहीं आते और सीधे सदन में भेज दिए जाते हैं। इसके साथ ही अंतर मंत्रालय विवाद हल करने के लिए गठित 30 मंत्री समूहों में 13 की अध्यक्षता उनके हवाले है। कैबिनेट के अधीन 42 अन्य मंत्री समूहों में 25 का अध्यक्ष पद बंगाल का यह नेता संभाल रहा है। कैबिनेट का बोझ हल्का करने के मकसद से छोटे मुद्दों पर विचार के लिए गठित मंत्री समूहों में भी एक उनके सीधे निर्देशन में है। फ़िलहाल तो जैसा कि बताया जाता है कि प्रधानमंत्री होने के बावजूद अभी भी मनमोहन सिंह उन्हें 'सर' कहकर संबोधित करते हैं। जैसा वह रिज़र्व बैंक के गवर्नर के टाइम में उन्हें कहा करते थे। प्रणव इसके लिए उन्हें हमेशा टोकते रहते हैं कि नहीं अब आप 'सर' हैं। जो भी हो अब समय एक बार फिर करवट ले रहा है और प्रणव मुखर्जी मनमोहन सिंह के फिर से सर होने जा रहे हैं। प्रेसीडेंट सर। लेकिन बात इससे भी आगे की है। यूपीए ने कोई सक्षम प्रत्याशी न मिलने की सूरत में मजबूरी में प्रणब पर दांव लगाया है। उसे लगता था कि कमजोर प्रत्याशी खड़ा करने पर उसे तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की अगुवाई में दूसरे पक्ष से मात खानी पड़ सकती है। राष्ट्रपति का चुनाव हारने का मतलब गलत लगाया जाता। कहा जाता कि केंद्रीय सत्ता बहुमत विहीन है और अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पड़ता। प्रणब फिर संकटमोचक सिद्ध हुए लेकिन कांग्रेस उनकी विकल्पहीनता परेशान हो रही है। उसे लग रहा है कि भविष्य में कोई बड़ा संकट आया तो उसका हल वह कैसे ढूंढेगी। इसी विकल्पहीनता से राष्ट्रपति भवन के राजनीति का केंद्र बनने का डर उभरता है।
अभी कुछ दिन पहले की बात है। एनसीईआरटी की पुस्तक में डॉ. अंबेडकर के कार्टून को लेकर बवाल हुआ था। पहले कपिल सिब्बल ने माफ़ी मांगी और किताब से कार्टून हटाने का ऐलान कर दिया। पर प्रणब और आगे निकल गए और बोले, 'कार्टून क्या पूरी किताब ही हटा दी जाएगी। संभवतया यह कदम उन्होंने मुद्दा न बनने देने के लिए उठाया। इसके जरिए वह बेशक, बहुजन समाज पार्टी जैसे कथित दलित हितैषी दल से मुद्दा छीनने से तो वह कामयाब रहे लेकिन उनकी छवि को ठेस पहुंची। तृणमूल सुप्रीमो को मनाने के लिए उनका खुद आने आना भी राजनीतिक प्रेक्षकों के गले नहीं उतर पा रहा। अपने लिए समर्थन मांगना राष्ट्रपति पद के प्रणब सरीखे प्रत्याशी के कद के कतई अनुकूल नहीं। हालांकि उनके विरोधी भी मानते हैं कि प्रणब परिस्थिति के अनुकूल खुद को ढालना बखूबी जानते हैं। 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी तब प्रणव मुखर्जी वित्तमंत्री थे। इंदिरा के बाद कौन? की बात पर उन्होंने अपने नंबर दो की हैसियत बताकर दबी जुबान प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताई थी। अरूण नेहरु इतने खफ़ा हुए कि उन्हें पहले राजीव गांधी मंत्रिमंडल से बाहर करवाया और फिर पार्टी से भी बाहर करवा दिया। प्रणव मुखर्जी को दूसरी पार्टी बनानी पड़ी। राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस। बाद के दिनों में बोफ़ोर्स की आंधी से सत्ता से बाहर हुए राजीव गांधी से फिर से उनका समझौता हो गया और अपनी पार्टी का विलय कर वह फिर कांग्रेस में लौट आए। बाद मे नरसिंह राव ने उन्हें योजना आयोग का अध्यक्ष बनाया। फिर विदेश मंत्री भी बनाया। फिर जब मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बने तब भी प्रणव मुखर्जी ने एक गलती कर दी। जब मनमोहन का नाम चर्चा में आया तो मंत्रिमंडल में शामिल होने के सवाल पर वह बोल गए कि मैंने तो उन्हें रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया था। प्रकारांतर से दबी जुबान फिर दावेदारी की बात आ गई। कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें अहमियत नहीं दी लेकिन पहले रक्षामंत्री और लोकसभा में सदन के नेता बने और बाद में विदेश मंत्री बने एवं अंतत: वित्त मंत्री। अपने व्यवहार से उन्होंने कभी सिद्ध नहीं होने दिया कि वह प्रधानमंत्री न बन पाने से नाराज या कुंठित हैं। उनका व्यवहार, विनम्रता, विद्वता सभी राजनीतिक पार्टियों में उनकी स्वीकार्यता बढ़ाती है। जिस तरह से यूपीए से बाहर के दल भी उनके समर्थन में आगे आ रहे हैं, प्रणब पर यह जिम्मेदारी है कि वह खुद को नई भूमिका में निष्पक्ष साबित करें।
Monday, June 18, 2012
'लॉस काबोस' से यूरोजोन की उम्मीदें
मैक्सिको के लॉस काबोस में जी-20 की शिखर बैठक में भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जो कहा, उम्मीदें उससे ज्यादा की थीं। दिग्गज अर्थशास्त्री और बैठक के भागीदार नेताओं में सबसे बुजुर्ग 79 वर्षीय मनमोहन का भाषण मात्र अपने स्वभाव के अनुरूप गहराते आर्थिक संकट पर चिंता और उम्मीद जताने तक ही सिमटकर रह गया। ऐसे समय में जबकि यूरोजोन संकट की वजह से दुनिया एक बार फिर भीषण मंदी की चपेट में आने की आशंका से भयभीत है, सीमित दायरे का यह भाषण निराशा पैदा कर रहा है। भारत भी भारत को फिलहाल कम आर्थिक वृद्धि दर की समस्या से दो-चार है और आर्थिक वृद्धि दर पिछले लगभग एक दशक के सबसे निचले स्तर पर रह गई है। दरअसल विश्व समुदाय में वर्ष 2008 की तरह ही हालात फिर से पैदा होते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में विश्व आर्थिक मंदी के संकट से घिरता दिखाई दे रहा है।
समूह की यह सबसे अहम बैठक है। नवम्बर 2011 के कान सम्मेलन के बाद इतनी जल्दी बैठक आयोजित करने का मकसद ही आर्थिक समस्या का हल ढूंढना है। दरअसल, वैश्विक अर्थव्यवस्था को इस समय जिन चुनौतियों से खतरा है, वे वही हैं जिनका सामना फ्रांस के कान में आयोजित अपनी पिछली शिखर बैठक में थीं बल्कि अब अधिक खतरनाक रूप में सामने हैं। कान शिखर बैठक का एजेंडा यूरो क्षेत्र में एक के बाद एक सामने आ रहे संकट की भेंट चढ़ गया था। खासतौर पर ग्रीस का मसला उस वक्त हावी था। शिखर बैठक समस्या पर समग्र विचार करने में नाकाम रही। इसके परिणामस्वरूप समस्या पुर्तगाल, आयरलैंड और ग्रीस से कहीं अधिक आगे निकलकर यूरो क्षेत्र की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले मुल्कों स्पेन, इटली और यहां तक कि फ्रांस की ओर बढऩे लगी। कान में आयोजित बैठक के बाद से ही उनके सॉवरिन बॉन्ड नियंत्रण से बाहर होने लगे। उस वक्त यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) ने लंबी अवधि की पुनर्वित्तीय योजनाओं (एलटीआरओ) के जरिये यूरोपीय क्षेत्र को बचाया लेकिन अब उस उपाय के बाद सॉवरिन बॉन्ड बाजार में हालात एक बार फिर खराब होने लगे हैं। स्पेन ने 6 फीसदी के खतरनाक अवरोध को तोड़ दिया है और इटली को भी बेहतर प्रतिफल की तलाश है। आश्चर्यजनक रूप से फ्रांस में सत्ता परिवर्तन होने के बाद वहां प्रतिफल लाभ की स्थिति में जा रहा है। लॉस काबोस में नेताओं को यूरो क्षेत्र की कहीं अधिक चिंताजनक स्थितियों से दो चार होना पड़ रहा है क्योंकि विभिन्न मुल्कों की सरकारें चुपचाप ग्रीस को संगठन से बाहर करने की कवायद में लगी हैं। आशंका है कि एक बार फिर लॉस काबोस में आयोजित जी 20 शिखर बैठक भी यूरो क्षेत्र की चर्चाओं पर ही केंद्रित रह जाएगी। कान में नेताओं के सामने एक और बड़ी चुनौती फिजूलखर्ची रोकने (बाजार जनित वित्तीय समायोजन) और विकास (उत्पादन के अंतर को पाटने के लिए वित्तीय विस्तार) में से किसी एक का चयन था। इस उधेड़बुन से निकलने के लिए लंबी और छोटी अवधि की दो योजनाएं सुझाई गईं। संदेश दिया गया कि जिनके पास वित्तीय सहूलियत है वे इसमें तेजी लाएं और जिनके पास नहीं है वे वित्तीय समायोजन पर ध्यान दें। इस तरह बाजार को यह संदेश गया कि अर्थव्यवस्थाओं को तब तक तेजी लाने की कोशिश करनी चाहिए जब तक बाजार उन्हें अनुशासित न बना दे या फिर वे ऐसे मोड़ पर न पहुंच जाएं जहां उत्पादन में अंतर के बावजूद उन्हें समायोजन की जरूरत पड़े। हालांकि सॉवरिन बॉन्ड्स की वजह से कई विकसित अर्थव्यवस्थाओं में यह भ्रम पैदा हुआ है कि उन्हें वित्तीय तेजी की जरूरत है और फिलहाल उन्हें समायोजन की जरूरत नहीं है। लॉस काबोस में नेताओं के सामने और गंभीर चुनौती होगी मतदाताओं ने मसलों को बाजार के साथ जोड़ दिया है और जहां कहीं भी चुनाव हुए हैं वहां फिजूलखर्ची के विरोध में मतदान कर सत्ता में काबिज सरकार को बाहर का रास्ता दिखाया है। उनसे एक संयोजित कार्य रणनीति तैयार करने की उम्मीद की जाएगी ताकि सुस्त पड़ते विकास में नई जान फूंकी जा सके।
कान में नेताओं के सामने तीसरी बड़ी चुनौती लंगड़ाता वैश्विक सुधार और बेरोजगारी खासतौर पर युवा बेरोजगारी का ऊंचा स्तर है। कान की कार्य योजना को विकास और रोजगार का नाम दिया गया था क्योंकि बेरोजगारी एक गर्म राजनीतिक मुद्दा बन गया था और विकास, वैश्विक असंतुलन और विनिमय दरों को लेकर फिक्रमंदी भी बनी हुई थी। अगर बेरोजगारी के आंकड़े में उन हतोत्साहित कामगारों को जोडऩे की छूट दी जाए जिन्होंने अपने काम की खोज छोड़ दी है तो परिभाषा के अनुसार वे अब बेरोजगार नहीं कहलाएंगे। मगर कान के बाद से ज्यादातर विकसित देशों में रोजगार की स्थिति और खराब हुई है। लॉस काबोस एजेंडे में एक बार फिर विकास और रोजगार सबसे ऊपर रहेगा। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरो क्षेत्र और चीन, ब्राजील व भारत जैसे प्रमुख उभरते देशों के लघु अवधि के आर्थिक आंकड़े एक बार फिर से मंदी की ओर इशारा कर रहे हैं। कान में वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए चौथा खतरा तेल बाजार में उतार-चढ़ाव को लेकर था जो वैश्विक बाजार में कमजोर मांग और विश्वास की वजह से निराशाजनक स्थिति में था और इस तरह उभरते बाजारों में सुधार के पटरी से उतरने का खतरा बना हुआ था। इस बार न केवल कान की तरह ही खतरा बना हुआ है बल्कि स्थिति पिछली बार से गंभीर है और आपूर्ति में कमी का नया खतरा भी मंडराने लगा है। तो फिर कान से लेकर अब तक क्या बदलाव आया है? पहला, कान सम्मेलन के बाद से स्पेन, इटली और फ्रांस के सॉवरिन बॉन्ड के यील्ड बढ़े थे, पर इस दफा सम्मेलन के पहले भी ये बढ़ रहे हैं। दूसरा, यह विश्वास अब गहरा गया है कि वैश्विक असंतुलन के लिए जिम्मेदार सबसे बड़े देश चीन का चालू खाता सरप्लस अब हमेशा के लिए कम हो गया है। वैश्विक असंतुलन का सबसे बड़ा स्रोत अब तेल निर्यातक देशों (खासतौर पर ओपेक, नॉर्वे और रूस) की ओर खिसक गया है। इस नए असंतुलन से निपटने के लिए जी-20 को एक नई रणनीति बनानी होगी। तीसरे, अब चूंकि मतदाता फिजूलखर्ची के खिलाफ मतदान कर रहे हैं, ऐसे में जी-20 की प्रतिबद्धताओं की साख को बाजार बारीकी से परखेगा।
लॉस काबोस सम्मेलन को तीन संवेदनशील मसलों पर विचार करना होगा। पहला, जर्मनी यूरो क्षेत्र मामले में जी-20 के हस्तक्षेप को बहुत सहजता से स्वीकार नहीं करेगा, इस वजह से जी-20 को वैश्विक आर्थिक सहयोग का प्रमुख फोरम मानने में उसे आपत्ति होगी। दूसरा, हरित विकास पर मेक्सिको काफी ध्यान दे रहा है और उसके अमेरिकी पड़ोसी ब्राजील को इस पर आपत्ति है क्योंकि जी-20 के तत्काल बाद रियो 20 सम्मेलन होने जा रहा है, जिसका महत्व इस वजह से कम हो सकता है। तीसरा, चीन भी जी-20 से नाराज है क्योंकि उसे उसके पुनर्संतुलन प्रयासों के लिए पर्याप्त वाहवाही नहीं मिली है। जी-20 का मध्यम अवधि का एजेंडा सफलतापूर्वक धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है तो वहीं लॉस काबोस सम्मेलन कितना सफल रहता है इसका पता इस बात से चलेगा कि वह इन चार बड़े खतरों पर क्या कदम उठाती है। नेतृत्व संकट होने की वजह से जी-20 के सातवें सम्मेलन से किसी बड़े निष्कर्ष की उम्मीद नहीं है। लॉस काबोस से तो इतनी कम उम्मीदें हैं कि यहां से जो भी निकलेगा वह ज्यादा ही होगा, कम की तो गुंजाइश ही नहीं बनती है।
Sunday, June 17, 2012
पाकिस्तान में नई ताकत का उदय
भ्रष्टाचार पर लचर रुख के लिए पाकिस्तान की आलोचना करने वालों के लिए यह कदम बड़ा झटका सिद्ध हो सकता है जिसमें मुल्क की शक्तिशाली शख्सियतों में एक सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी के पुत्र असरलान इफ्तिखार और एक व्यापारी पर कार्रवाई के आदेश दिए गए हैं। मामले को अंजाम तक पहुंचाने के लिए जब मीडिया और सियासी पार्टियां हार मान चुकी थीं, तब सोशल मीडिया ने काम कर दिखाया और शीर्ष अदालत को भ्रष्टाचार के मामले में आदेश देने पड़े। मुल्क में सोशल मीडिया नई ताकत बनकर उभरा है।
अरसलान पर आरोप है कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुकदमों में राहत दिलाने के लिए करीब 34 करोड़ रुपए वसूल किए। आरोप लगाने वाले ने एक चैनल को इंटरव्यू दिया था। लेकिन वह असरहीन साबित हुआ। बाद में उसके वीडियो फेसबुक पर लीक हो गए, यू-ट्यूब पर अपलोड कर दिए गए। मामले ने हालांकि मीडिया को भी खूब परेशान किया क्योंकि एक वीडियो ऐसा भी था जिसमें इंटरव्यू लेने वाले पत्रकारों को बाहर से निर्देश मिलते दिखाया गया था। कहा जा रहा था कि आरोप लगाने वाले व्यापारी को बिल्कुल तंग न किया जाए और उनसे केवल वही प्रश्न पूछे जाएं जो वो चाहते हैं। इंटरव्यू काफी विवादास्पद रहा और उसका गुप्त वीडियो सामने आने के बाद पाकिस्तान में पत्रकारिता पर भी गंभीर सवाल उठने लगे। देश में सोशल मीडिया पिछले चार साल में काफी ताक़तवर हुआ है और इसे बहुत ही अच्छे तरीक़े से इस्तेमाल किया गया है। पाकिस्तान जैसे देश में जहां तमाम तरह की समस्याएं हैं और पड़ोसी मुल्क भारत की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभाव है, सोशल मीडिया आम नागरिकों के पास एक ऐसा हथियार बनकर उभरा है जो जिसके जरिए वह अपने समाज को बेहतर करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके जरिए ऐसी चीज़ों को सामने लाया जा रहा है जो मुख्य मीडिया कभी भी नहीं सामने ला पाया। हालांकि इसे माध्यम की तरह इस्तेमाल करने वाले लोग गलत तरीकों से भी काम कर रहे हैं। वह फर्जी प्रोफाइलें बनाते हैं और अपनी आवाज को पहचान छिपाकर सार्वजनिक कर रहे हैं। आईटी विशेषज्ञों के मुताबिक, अरसलान के मामले में भी तमाम फेक प्रोफाइलें इस्तेमाल की गईं। मामला इतना प्रचारित किया गया कि गूंज विदेशों तक पहुंचने लगी और न्यायालय को भी दखल देना पड़ गया। इसी के पक्ष में एक बात यह भी है कि शीर्ष न्यायालय के आदेश में मीडिया में आई खबरों पर भी कुछ लाइनें लिखी गई हैं। तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है जो काफी भयावह है। इसमें प्रतिबंधित चरमपंथी संगठन सोशल मीडिया का अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। सोशल मीडिया का अध्ययन करने वाली अंतर्राष्ट्रीय कंपनी ‘सोशलबेकर्स’ के मुताबिक़ पिछले छह महीनों के दौरान पाकिस्तान में फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की संख्या में 10 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है। पाकिस्ताम में फेसबुक इस्लेमाल करने वालों की संख्या लगभग 65 लाख है जिसमें 50 प्रतिशत फेसबुस इस्तेमाल करने वाले ऐसे हैं जिनकी उम्र 18 से 24 सालों के बीच में है और 26 प्रतिशत यूज़र्स 25 से 34 साल के हैं। सोशल मीडिया को इस्तेमाल करने वालों की संख्या प्रतिदिन बढ़ोत्तरी की बड़ी वजह यह है कि अब फेसबुक और ट्विटर पर उर्दू स्क्रिप्ट लिख सकते हैं। यह ऐसा मंच है जहाँ आम नागरिकों को पूरा अधिकार है कि वह अपनी बात सब तक पहुंचा सकते हैं।
दरअसल, सोशल मीडिया पूरी दुनिया में ताकतवर हुआ है। इसकी ताकत का अंदाजा सही मायने में तब हुआ, जब बहरीन, मिस्र, लीबिया, सीरिया और ट्यूनीशिया जैसे मुल्कों की हुकूमतें इसकी आंधी में या तो जमींदोज हो गईं या फिर उनके वजूद के लिए संकट खड़ा हो गया। ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट आंदोलन ने शक्तिशाली अमेरिका को हिला दिया, तो वहीं हिन्दुस्तान में अन्ना आंदोलन ने मुल्क के हर हिस्से के हजारों लोगों को आंदोलित कर दिया और सरकार को कुछ कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। सबसे दिलचस्प बात यह है कि अब आम नागरिक भी खबरें ब्रेक करने लगा है, और वह भी बिल्कुल उसी वक्त, जब कोई घटना अंजाम लेती है। खास बात यह है कि अब पारंपरिक मीडिया भी विभिन्न विवादों, मुद्दों और बहसों पर नागरिकों की नब्ज टटोलने के लिए लगातार ऑनलाइन नेटवर्क की मदद ले रहा है। कुदरती आपदा जैसी घटनाओं की रिपोर्टिग के लिए तो मुख्यधारा का मीडिया अब प्राय: सामान्य नागरिकों की आंखों देखी रिपोर्टिग पर निर्भर करता है। हालांकि सोशल मीडिया के इस्तेमाल के जरिये पैदा किए जाने वाले विवादों के साथ किस तरह का ट्रीटमेंट किया जाए, इसके लिए मुख्यधारा का मीडिया वैकल्पिक रास्ता तलाशने में जुट गया है। विकीलीक्स के खुलासे की तरह एक बार जब कोई संवेदनशील सूचना इंटरनेट पर सार्वजनिक हो जाती है, तो मुख्यधारा के मीडिया को भी उसे उठाना पड़ता है, क्योंकि वह लंबे वक्त तक उसे नजरअंदाज नहीं कर सकता। वीडियो लीक होने वाली घटना साबित करती है कि पाकिस्तान में भी मीडिया इसी समस्या से रूबरू हो रहा है। जिन आंदोलनों का उल्लेख मैंने किया है, उन सभी में बड़ी तादाद में नौजवान तबका शामिल हुआ है। उत्साही युवाओं में सोशल मीडिया का इस्तेमाल लगातार बढ़ता जा रहा है। विभिन्न मसलों, जैसे शिक्षा के गिरते स्तर, रोजगार की कमी, स्थानीय प्रशासन की काहिली, सरकारी नीतियों से असहमति और न्याय-व्यवस्था की गंभीर खामियों पर अपनी चिंताएं जाहिर करने के लिए वे सोशल मीडिया वेबसाइटों पर टिप्पणियां कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति ने दुनिया भर के अनगिनत नागरिक समूहों को प्रेरित किया है, जो अपने-अपने क्षेत्र में सामाजिक और राजनीतिक एजेंडा तय करने की बात करते हैं। पाकिस्तान जैसे देश में जहां जनता की आवाज इतनी आसानी से उठ नहीं पाती, सोशल मीडिया सकारात्मक संदेश दे रहा है।
Friday, June 15, 2012
'रायसीना' के रास्ते पर प्रणब
राष्ट्रपति पद के चुनाव में प्रणब मुखर्जी सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के प्रत्याशी होंगे। समृद्ध राजनीतिक अनुभवों, सामाजिक दायित्वों का अथक निर्वाह करने वाले प्रणब की भावी भूमिका को लेकर उम्मीदें बंध रही हैं। हालांकि डर यह भी है कि वह 'पीपुल्स प्रेसीडेंट' सिद्ध होने के बजाए अपनी पार्टीगत निष्ठाओं में न फंस जाएं। जिस लक्ष्य को लेकर उन्हें कांग्रेस मैदान में उतार रही है, अगली लोकसभा के त्रिशंकु होने की स्थिति में क्या वह काम आएंगे यानि सोनिया गांधी क्या मुखर्जी पर पूरा भरोसा कर सकती हैं? हालांकि नए बने समीकरणों में उनका राष्ट्रपति भवन यानि रायसीना हिल्स पहुंचना तय है।
स्वतंत्रता सेनानी परिवार में जन्मे प्रणब 1984 में दुनिया के पांच शीर्ष वित्तमंत्रियों की सूची में स्थान दिया गया। केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री के तौर पर मुखर्जी ने विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपनी सोच को लेकर अडिग रहने वाले प्रणब मुखर्जी को एक बार राजीव गांधी से अनबन के चलते 1984-89 तक कांग्रेस से बाहर का रास्ता भी देखना पड़ा। उनके हिमायती इसी बात से उनके कठपुतली होने की धारणा को बेबुनियाद बताते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी प्रणब दा की साख बेमिसाल है। वित्त मंत्रालय के अलावा भी सरकार को प्रणब दा के अनुभवों से लाभ मिलता रहता है। वह प्रधानमंत्री नहीं लेकिन सबसे ज्यादा अंतरमंत्रालय समूहों की अध्यक्षता करते हैं। उन्हें सरकार का असली ड्राइवर तक कहा जाता है। प्रणब से और भी उम्मीदें हैं। कहा जा रहा है कि वह अगर राष्ट्रपति पद को नए तरीके से परिभाषित करने में कामयाब रहे तो सशक्त लोकपाल जैसी लोकतंत्र के पहरेदारों की जरूरत समाप्त हो जाएगी। प्रणब दा की थोड़ी सी सक्रियता देश को विकास के नए पथ पर ले जा सकती है। सरकार और विपक्ष को दो पहिए बनाकर देश के विकास रथ को दौड़ने में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं, प्रणब के लिए यह असंभव भी नहीं क्योंकि विपक्ष से सदैव उनके अच्छे संबंध रहते आए हैं। इससे संसद के बाहर बन रहे दबाव समूहों का प्रभाव भी कम होगा, लोगों के अंदर लोकतंत्रात्मक ढ़ांचे को लेकर भरोसा भी पैदा होगा। वक्त की भी मांग है कि राष्ट्रपति की सशक्त भूमिका को फिर से परिभाषित किया जाये, जो लोकतंत्रात्मक ढ़ांचे में बिना टकराव पैदा किये देश के लिए नई आशा का संचार करे। समर्थक कहते हैं कि उनकी कूटनीति के चलते ही आतंकवाद की पनाहगाह बना पाकिस्तान आज उस अमेरिका के निशाने पर है, जो कभी जिगरी दोस्त होने का दम भरता था। असल में प्रणब मुखर्जी का नाम सामने लाकर कांग्रेस ने उन तमाम राजनीतिक सहयोगियों का भी भरोसा जीत लिया है, जो कांग्रेस पर भरोसा करने से कतराते हैं जिनमें शरद पवार सबसे ऊपर हैं। कांग्रेस की रणनीति दरअसल 2014 के लोकसभा चुनावों को लेकर है। कांग्रेस ही नहीं, हर पार्टी की चाहत होती है कि राष्ट्रपति भवन में एकदम भरोसे वाला आदमी ही पहुंचे क्योंकि गठबंधन सरकारों के दौर में राष्ट्रपति की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन की एकसमान सीटें होती हैं तो राष्ट्रपति की भूमिका अहम हो जाएगी तब राष्ट्रपति किसी को भी सरकार बनाने के लिए बुला सकते हैं। यह बात दूसरी है कि सरकार बनाने वाले को सदन के अंदर अपना बहुमत साबित करना होगा लेकिन पहला मौका तो उसे मिल ही सकता है जिस तरह से डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा ने 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था। इसी पहलू के चलते प्रणब मुखर्जी को लेकर आशंकाएं हैं कि क्या वह ऐसी किसी स्थिति के आने पर कांग्रेस की मदद करेंगे? उनको नजदीक से जानने वाले तर्क रखते हैं कि अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम सालों में वह ज्ञानी जैल सिंह तो नहीं ही बनेंगे। इसी से जुड़ा एक सवाल और भी उठ रहा है कि इस तरह के हालात पैदा होने पर क्या वह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने में मदद करेंगे? एक दौर ऐसा भी था, जब देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के नामों को एक साल पहले तक तय कर लिया जाता था। इंदिरा गांधी ने 1981 में आर वेंकटरमन को बता दिया था कि 1982 में हम आपको उपराष्ट्रपति बना रहे हैं लेकिन वह जमाना एक पार्टी के बहुमत वाला था। अब ऐसा नहीं हो सकता। वैसे कांग्रेस पार्टी के काम करने की एक शैली यह भी रही है कि वह आखिरी समय में फैसले करती है। प्रणब का नाम भी देर से घोषित हुआ हालांकि अटकलें पहले से लग रही थीं। जिस तरह से उनका नाम सामने आया, वह हालात भी कांग्रेस के अनुकूल नहीं। उसकी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस बगावत पर उतारू है। हालांकि कांग्रेस के लिए यह राहत की बात है कि ममता का समर्थन कर रही समाजवादी पार्टी ने प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर दिया है। बहुजन समाज पार्टी भी साथ है। दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने प्रणब के चयन से असहमति जताते हुए संकेत दिए हैं कि वह कोई अलग रणनीति बनाएगा। उसके नजदीकी माने जाने वाले दो दल अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के साथ हैं। दिलचस्प बात ये है कि उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने अब तक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर उनके नाम की घोषणा नहीं की है। गठबंधन अंदरखाने पूर्व राष्ट्रपति कलाम के नाम पर रजामंदी जताता रहा है। संगमा का नाम सामने आने ने उसे उलझा दिया है हालांकि ममता के प्रत्याशी का समर्थन उसे पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में फायदे का सौदा प्रतीत हो रहा है।
Thursday, June 14, 2012
आर्थिक कुप्रबंधन के हालात
देश के दो दिग्गज उद्यमियों अजीम प्रेमजी और एनआर नारायणमूर्ति ने केंद्र सरकार को आर्थिक कुप्रबंधन के लिए कोसा है और यहां तक कहा है कि नेता के बगैर देश चल रहा है। यह बहुत बड़ी बात है, हमारे देश में इसे आम खबरों की तरह ले लिया गया किंतु यही बात यदि अमेरिका जैसे विकसित देशों के शीर्ष उद्यमियों ने कही होती तो तहलका मच जाता। देश में वाकई इसी तरह के हालात हैं। आर्थिक मोर्चे से प्रतिदिन बुरी खबरें आ रही हैं। मई में मुद्रास्फीति बढ़कर 7.55 प्रतिशत पहुंच गई है। पिछले साल के अंत में जब खाद्य मुद्रास्फीति एक फीसदी की कमी आई तो तमाम अर्थविदों और नीति निर्धारकों ने उम्मीदें जतानी शुरू कर दी थी कि अब इस पर अंकुश लगने लगा है। तब महंगाई दर भी घटकर 7.48 फीसदी पर आ गई थी, जो 11 माह में सबसे न्यूनतम थी। इसके चलते ही दिसंबर में भारतीय रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की अद्र्ध तिमाही समीक्षा में ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया बल्कि बैंकिंग क्षेत्र को करीब एक लाख करोड़ रुपये की तरलता मुहैया कराने का इंतजाम कर दिया। असर दिखा भी, अर्थव्यवस्था सुधरने लगी किंतु हालात अब ज्यादा खराब हैं। पेट्रोल मूल्यों में बड़ी वृद्धि ने बेड़ा गर्क किया है, यदि यह इतनी जरूरी थी तो इतनी देर क्यों की गई कि अर्थव्यवस्था बदहाल होती चली गई। पिछले साल भी इसी तरह की नासमझी हुई थी। प्याज की कीमत थामने के लिए प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट सचिव और कृषि मंत्री से लेकर राज्यों की सरकारें तक एकसाथ जुटी थीं। जिस कीमत बढऩे का कारण अक्तूबर की बारिश थी उसका निदान दिसंबर में कीमतों में 200 फीसदी बढ़ोतरी के बाद सोचा गया। वह भी किस्तों में। अब सब्जियों की कीमतें आसमान पर हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या महंगाई पर नाकामी का ठीकरा कृषि और खासतौर से खाद्य उत्पादों के कम उत्पादन पर फोड़ा जा सकता है। सच्चाई यह नहीं है। अगर हम पिछले करीब डेढ़ दशक के कृषि उत्पादन को देखें तो उसमें आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है। साथ ही केवल उत्पादन ही नहीं, किसानों की आय बढ़ाने में अहम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में भी बढ़ोतरी हुई है। केवल खाद्यान्न उत्पाद को देखें तो 1995 से 2000 के बीच इनका औसतन सालाना उत्पादन 19.71 करोड़ टन रहा जबकि से 2000-2005 के बीच औसतन सालाना उत्पादन 19.92 करोड़ टन रहा। लेकिन 2005 से 2010 के दौरान यह बढ़कर 22.19 करोड़ टन पर पहुंच गया। वहीं इस दौरान तिलहन उत्पादन 226.6 लाख टन से बढ़कर 269.0 लाख टन पर पहुंच गए। यह बात जरूर है कि इस दौरान दालों के उत्पादन में कोई खास बदलाव नहीं आया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कीमतों के प्रबंधन में सरकार का कामकाज बेहद लचर है। महंगाई दर घटती भी है तो उससे कीमत कम नहीं होती केवल बढऩे का स्तर घटता है। जो आम आदमी की तकलीफ को बहुत कम नहीं करता। इस कुप्रबंधन के चलते ही 10 फीसदी उत्पादन घटने पर दामों में 200 फीसदी तक बढ़ोतरी वाले प्याज जैसे उदाहरण सामने आते हैं और पेट्रोल के दामों में वृद्धि के फैसले में देरी हालात खराब कर देती है। प्रेमजी और नारायणमूर्ति जैसे आईटी महारथियों की चिंताएं शोध कंपनी सीएलएसए एशिया-पेसिफिक मार्केट्स की रिपोर्ट ने बढ़ाई हैं जिसमें सरकारी स्तर पर लापरवाही से संकट की आशंका जताई गई है। भारत जैसे आईटी विशेषज्ञ देश के लिए वाकई यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
Tuesday, June 12, 2012
तेल आयात को अमेरिकी संजीवनी
ईरान से भारत के तेल आयात पर अमेरिकी आपत्ति हट गई है। यह भारत की विदेश नीति की कामयाबी कम, महाशक्ति अमेरिका की मजबूरियों का परिणाम ज्यादा है। पाकिस्तान से मिल रही लगातार निराशा ने उसे ईरान नीति में थोड़ा लचीलापन लाने को मजबूर किया है। भारत के इस पड़ोसी देश पर उसके लगातार समझाने का असर भी नहीं पड़ रहा और आतंकवाद के मुद्दे पर सुपर पॉवर को मात खानी पड़ रही है। उधर, तेल की बढ़ती कीमतों से जूझ रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह कदम संजीवनी की तरह है और ऐसे देशों में भारत भी शुमार है।
अमेरिका ने घोषणा की है, कि वह ईरान से तेल आयात कम करने के कारण भारत पर अब आर्थिक प्रतिबंध नहीं लगाएगा। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के अनुसार भारत, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, ताइवान और तुर्की को यह छूट देने का फैसला किया गया है। भारत ने उसके दबाव में इस वित्त वर्ष में ईरान से आयात होने वाले तेल में 11 फीसदी की कटौती करने की घोषणा की थी। ईरान से भारत के तेल आयात में व्यापक कमी का पता लगाने के लिए अमेरिका ने कई स्रोतों से आंकड़े इकट्ठे किए। इनमें भारत सरकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र से प्राप्त आंकड़े भी शामिल हैं। मार्च में अमेरिका ने ईरान से तेल आयात घटाने के कारण 10 यूरोपीय देशों के अलावा जापान को भी ऐसी छूट दी थी। इस कदम की वजह हैं। नवंबर में अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर ड्रोन हमले में अपने 22 सैनिकों के मारे जाने के बाद से पाकिस्तान ने नाटो सेना के लिए यह रूट बंद कर रखा है। अमेरिका इससे व्यथित है और उसने नाटो सेना के लिए आपूर्ति रूट पर पाकिस्तान के साथ कोई सहमति बनाने की कोशिशों पर फिलहाल रोक लगा दी है। इसके साथ ही बातचीत कर रही टीम को कुछ समय के लिए वापस बुलाने का फैसला किया गया है। परिणामस्वरूप, नाटो ने सैन्य साजो सामान को अफगानिस्तान से वापस ले जाने के लिए पाकिस्तान के साथ समझौता न हो पाने के बाद तीन मध्य एशियाई देशों के साथ समझौता किया। दूसरी वजह, पाक का आतंकवाद पर प्रभावी कार्रवाई न करना भी है। इसी क्रम में अमेरिकी सीनेट की एक अहम समिति ने पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता राशि में तीन करोड़ तीस लाख डॉलर की कटौती कर दी है। इसके अलावा लंबे समय से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के बीच कोई औपचारिक बातचीत भी नहीं हुई है, हालांकि दोनों नेताओं के बीच नाटो सम्मेलन से पूर्व संक्षिप्त मुलाकात जरूर हुई थी लेकिन ओबामा ने इसे महत्व नहीं दिया था।
पाकिस्तान के मोर्चे पर शिकस्त पाने से पहले तक अमेरिका चाहता था कि भारत ईरान से दूर ही रहे। इसके लिए दबाव बनाने की मंशा से अमेरिकी विदेश मंत्री तीन दिवसीय भारत दौरे पर आई थीं। अमेरिका चाहता था कि भारत ईरान से कच्चे तेल का आयात और कम करे, यह आश्वासन पाना उनकी यात्रा का मुख्य मकसद था। अमेरिकी विरोध के बावजूद भारत ने ईरान से तेल खरीदना जारी रखा। भारतीय रुख से ईरान ने राहत महसूस की। उसने कहा कि कुछ बड़ी शक्तियों ने भारत पर दबाव बनाने के प्रयास किए कि वह ईरान से तेल आयात करना बंद कर दे किन्तु इस विषय में उन्हें मूंह की खानी पड़ी और वह असफल हो गए हैं। भारत में ईरानी राजदूत नबी ज़ादे के अनुसार, पिछले चार वर्षों में ईरान और भारत के बीच व्यापार में अत्यधित वृद्धि हुई है और यह नौ अरब डॉलर से बढ़कर 16 अरब डॉलर तक पहुंच गया है तथा हर स्तर पर दोनों देशों के संबंधों में विस्तार हो रहा है। भारत अपनी जरूरत का 80 फीसद कच्चा तेल आयात करता है। इसका बारह फीसद वह अकेले ईरान से खरीदता है। ईरान भारत के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ोसी और अहम व्यापारिक साझेदार है। वह हमारी ऊर्जा आपूर्तियों का बड़ा स्रोत भी है। भारत ने सार्वजनिक तौर पर तो कोई घोषणा नहीं की है लेकिन अमेरिकी आग्रह पर भारत ने ईरान से तेल आयात में 15-20 फीसद की कटौती की। हमने वर्ष 2009-10 में ईरान से 2.12 करोड़ टन कच्चा तेल खरीदा था। वर्ष 2010-11 में यह 1.85 करोड़ टन रह गया। पिछले वित्तीय वर्ष में कुल आयात घटकर 1.6 करोड़ टन रहा। ईरान से कच्चे तेल के आयात में और कटौती के बाद यह करीब 1.4 करोड़ टन रह गया है। भारत ने ईरान से आयात कम करके सऊदी अरब से तेल आयात बढ़ा दिया है।
Monday, June 11, 2012
मंदी के दलदल में फंसती अर्थव्यवस्था
केंद्रीय वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने देश को एक बड़े खतरे के प्रति आगाह किया है। बकौल बसु, पूरी दुनिया आर्थिक संकट के जिस दौर से जूझ रही है साल 2014 तक उसका व्यापक असर भारत में भी दिखने लगेगा। संकट की शुरूआत हो चुकी है, महंगाई का चरम चल रहा है। मुद्रास्फीति केंद्र को परेशान कर रही है। भारतीय करेंसी रुपये बदहाल है और उसमें कई दिन की लगातार गिरावट बमुश्किल थमी है। भारतीय रिजर्व बैंक के हथियार डालने के बाद पता चलता है कि हम किस तरह कमजोर अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। माना जा रहा है कि तात्कालिक उपायों के बाद अब कड़े उपायों की जरूरत है। अगर 18-24 महीनों में रुपये की हालत नहीं सुधरती तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
देश की खस्ता आर्थिक हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विकास दर नौ से घटकर 5.3 फीसदी पर पहुंच गई है। सरकार के खर्च का एक बड़ा हिस्सा कर्ज का ब्याज देने (2.8 खरब रुपये), रक्षा पर खर्च (1.8 खरब) और सब्सिडी (2.2 खरब रुपये) के तौर पर होता है। ऐेसी हालत में बढ़ते सरकारी घाटे के मद्देनजर देश की विकास की रफ्तार सुस्त पड़नी तय है। देश महंगाई की बुरी मार झेल रहा है। पेट्रोल के दामों में बड़ी बढ़ोत्तरी ने कोढ़ में खाज का काम किया है। मुश्किलें गहराईं रुपये की बदहाली से हालांकि करेंसी में उतार-चढ़ाव होता रहता है। सभी पूर्वी देशों में यह गिरावट देखी जा रही है लेकिन वहां यह सिर्फ पांच प्रतिशत है जबकि रुपया 18 प्रतिशत तक नीचे आ गया है। पिछले साल रुपया 18 प्रतिशत तक नीचे आ गया और दिसंबर 2011 में यह अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गया। इस बार तो और बुरी गत हुई। रुपये की बुरी स्थिति से आयात महंगा हुआ और महंगाई की नई वजह बन गया। महंगे आयात से कंपनियों की लागत बढ़ी और वो इसका बोझ आम आदमी पर डालने को तैयार हैं। कमजोर होता रुपया भारत का तेल आयात बिल बढ़ा रहा है। इसके अलावा भारत का वर्तमान खाता घाटा भी बढ़ता जा रहा है। यूरो क्षेत्र में वित्तीय संकट बरकरार रहने से डॉलर में वैश्विक स्तर पर तेजी दर्ज की गई है। इसी के नतीजतन डॉलर को सुरक्षित माना जाने लगा है और परिणाम भुगत रही हैं अन्य देशों की मुद्राएं। अमेरिकी कृषि विभाग का कहना है कि भारत में डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने के कारण मुख्य रूप से छोटे व्यापारी प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि वे आमतौर पर डॉलर की हेजिंग नहीं करते और एक्सचेंज रेट का नुकसान खुद उठाते हैं। भारत में ज्यादातर कमोडिटीज का आयात छोटे कारोबारी ही ज्यादा करते हैं। विभाग का अनुमान है कि अगर रुपया और कमजोर होता है तो इन वस्तुओं का आयात और प्रभावित होगा। विशेषज्ञों के अनुसार, रुपये के अवमूल्यन की वजह से मझोले और छोटे कारोबारी सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। बड़े आयातक विनिमय दर के उथल-पुथल के विरुद्ध हेजिंग करते हैं लेकिन छोटे कारोबारी जोखिम का बोझ खुद ही उठाते हैं।
देश की खराब आर्थिक हालत मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के गले की फांस बन गई है। यही वजह है कि यूपीए सरकार चिंतित है और मौजूदा खस्ता हालत से बाहर निकलने का रास्ता तलाशने की कोशिश कर रही है। सरकार के नीति-नियंता भी मानते हैं कि देश मुश्किल आर्थिक दौर से गुजर रहा है और इससे निबटन के लिए तात्कालिक उपायों पर मनन चल रहा है। राजनीतिक प्रेक्षक मानने लगे हैं कि आर्थिक बदहाली का असर देश की सियासत पर पड़ने के आसार बन रहे हैं। अपने पक्ष के समर्थन में उनका तर्क है कि सन 1975 में शुरू हुए आपातकाल के दौरान जब महंगाई और भ्रष्टाचार चरम पर था, सत्ता में परिवर्तन में हुआ था। 1987-89 में भी ऐसी ही स्थिति थी और तब भी सत्ता में परिवर्तन हुआ। विपक्ष कह रहा है कि अर्थशास्त्री होने के बावजूद मनमोहन सिंह अर्थव्यवस्था को विकास की पटरी पर नहीं ला सके। अनिर्णय और नीतियां बनाने और उनका पालन न होने के चलते भारत के विकास की कहानी खत्म हो गई। कारोबारियों की अगुवाई के चलते भारत ने जबर्दस्त आर्थिक तरक्की की थी। देश के विकास की दर नौ फीसदी तक पहुंचाने में भारतीय उद्योगपतियों की कामयाबी का अहम योगदान था। मौजूदा हालात से निबटने के लिए उद्योग जगत से जो सुझाव आए हैं, उनमें कहा गया है कि डीजल और अन्य उत्पादों के दाम से सरकारी नियंत्रण खत्म होना चाहिये। विदेशी निवेश नीति में बदलाव तत्काल प्रभाव से लागू किए जाने चाहिए। मल्टी ब्रांड रिटेलिंग और नागरिक उड्डयन जैसे क्षेत्रों में यह बदलाव लागू किए जाने की महती आवश्यकता बन गई है ताकि विदेश से मजबूत अर्थव्यवस्था का समर्थन किया जाना आरंभ हो जाए। इसके साथ ही भूमि अधिग्रहण बिल को मौजूदा स्वरूप में ही पास किया जाना चाहिये। उद्योग जगत ब्याज और सीआरआर दर में कटौती एवं जीएसटी लागू करने का भी हिमायती है। काले धन की स्वदेश वापसी भी वक्त की जरूरत लग रही है। लगातार खराब होती देश की माली हालत सिर्फ यही संकेत देती है कि आने वाला समय देश के लिए कैसा होगा। यूपीए ने देश की आर्थिक तरक्की का गला घोंट दिया है। बसु के आंकलन से विपक्ष समेत सरकार के सभी आलोचकों की बात को बल मिल रहा है।
Sunday, June 10, 2012
मर्म पर चोट करता 'सत्यमेव जयते'
'सत्यमेव जयते' भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है कि सत्य की ही जीत होती है। आदर्श वाक्य एक बार फिर देश में नई इबारत लिख रहा है। सामाजिक सरोकारों से जुड़े सिने स्टार आमिर खान के शो 'सत्यमेव जयते' के प्रति लोगों का आकर्षण देखकर लगता है कि लोग अब अपने से बाहर आना चाहते हैं और गलत बातों को सहन नहीं करना चाहते। शो के जरिए टेलीविजन कार्यक्रमों के प्रति दीवानगी का वह दौर लौट रहा है जो रामायणह्ण और महाभारत जैसे धार्मिक सीरियलों ने पैदा किया था। शुरूआती आंकलनों के मुताबिक, शो अपने उद्देश्यों में कामयाब सिद्ध हो रहा है।
रामायण और महाभारत धारावाहिक के ब्रॉडकास्टिंग के समय सड़कों पर एक तरह से जनता कर्फ्यू लग जाता था। लगभग सारे लोग टीवी के सामने बैठ जाते थे। ऐसा लगने लगा था कि अब भविष्य में शायद ऐसी दीवानगी नहीं देखी जा सकेगी, पर भले ही थोड़ी मात्रा में मगर इन दिनों ऐसा ही कुछ हर रविवार को सुबह ह्यसत्यमेव जयतेह्ण के दौरान हो रहा है। आमिर ने शो के छठे एपिसोड में विकलांगता और उससे जुड़ी सोच को अपना मुद्दा बनाया। इससे पहले वह कन्या भ्रूण हत्या, आॅनर किलिंग, दहेज प्रथा जैसे गंभीर मुद्दों को उठा चुके हैं। शो के 13 एपिसोड पेश किए जाने हैं। 'सत्यमेव जयते' के पहले एपीसोड को नौ करोड़ लोगों ने देखा। इसे सबसे अधिक 4.1 टेलीविजन रेटिंग (टीआरपी) दी गई। टेलीविजन आॅडिएंस मेजरमेंट (टैम) के अनुसार, पांचवें एपीसोड को करीब तीन करोड़ 10 लाख दर्शकों तक पहुंचा यानि उसे करीब दस करोड़ दर्शकों ने देखा। पहले एपीसोड पर यह संख्या 2.67 करोड़ थी। 'सत्यमेव जयते' को 4.1 टीआरपी मिली, जो वर्ष 2011 में 'कौन बनेगा करोड़पति 5' के 3.5 टीआरपी से अधिक है। आमिर खान ने कुछ लोगों को ही सही मगर अन्याय के खिलाफ लड़ने की हिम्मत दी है। इसका एक उदाहरण यह है कि उनके दहेज विरोधी कार्यक्रम को देखकर भोपाल की रानी ने अपने दहेज के लालची ससुराल वालों को सजा दिलवाने के लिए आवाज उठानी शुरू कर दी। आमिर खान का कार्यक्रम देखने के कारण ही इंदौर की एक किशोरी की जिंदगी नरक होने से बची। दरअसल यहां की एक किशोरी को बदमाश महिलाओं का एक गिरोह चेन्नई ले गया। वहां उसे बेचने की तैयारी चल रही थी। उसकी बड़ी बहन सत्यमेव जयते कार्यक्रम देख चुकी थी। उसे छोटी बहन के साथ कुछ अनहोनी का अंदेशा हुआ। उसने किसी तरह पुलिस से मदद मांगी। पुलिस की सहायता से बदमाश महिला गिरोह को ट्रेस किया तो आरोपी डर के मारे उस किशोरी को इंदौर ही छोड़कर भाग गए। इन घटनाओं की खबरें बड़े-बड़े अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं।
शो का असर भी हो रहा है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने माना है कि उनके राज्य में ज्यादती के विरुद्ध कार्रवाई की प्रक्रिया धीमी है। शो में कन्या भ्रूण हत्या के मामलों को उजागर किए जाने के बाद महाराष्ट्र सरकार ने ऐसे मामलों को रोकने के लिए बेहद कड़ा कदम उठाने का मन बनाया है। भ्रूण हत्या के मामलों की सुनवाई के लिए महाराष्ट्र सरकार बहुत जल्द फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन करने वाली है ताकि ऐसे मामलों में शामिल लोगों को जल्द से जल्द कड़ी सजा दी जा सके। मीडिया का एक हिस्सा इस कार्यक्रम को बदलाव का शंखनाद कह रहा है तो फिल्म अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आजमी इसे क्रांति की शुरूआत बता रही हैं। आमिर ने तमाम फिल्मों में एक्टिंग की पर वे अंदर ही अंदर कुछ अलग करने को मचल रहे थे। यही कारण था कि उन्होंने आमिर खान प्रोडक्शंस कंपनी की स्थापना की। अब आमिर ऐसी फिल्में बनाना चाहते थे जो सीधे-सीधे सामाजिक मुद्दों से वास्ता रखती हों। उनके इस प्रयास ने अचानक उन्हें उन चुनिंदा भारतीय फिल्मकारों की श्रेणी में ला खड़ा किया, जो अपनी फिल्मों में ज्वलंत सामाजिक मुद्दे उठाते थे और समाज के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते थे। अब तक आमिर काफी बदल चुके थे तथा समाज को संदेश देने की नई भूमिका में आ गए थे। ऐसी ही संदेश देने वाली फिल्में थीं ह्यतारे जमीं परह्ण, ह्यलगानह्ण, ह्यरंग दे बसंतीह्ण, ह्यथ्री इडियट्सह्ण एवं ह्यमंगल पांडेह्ण। शो की सफलता का कारण आमिर खान के साथ ही विषय सामग्री को भी माना जा रहा है। सत्यमेव जयते का प्रभाव उसकी विषय सामग्री से आंका जा रहा है। इसका प्रमुख उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना तो है ही, साथ ही एक सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की कोशिश भी हो रही है। सामाजिक तौर पर सामान्य रूप से यही माना जा रहा है कि इस शो से समाज में सकारात्मक बदलाव आएगा। समाज में इस शो से यह धारणा बन रही है कि यह कार्यक्रम सिर्फ बुराइयों पर चोट ही नहीं करता बल्कि हर किसी को उसके प्रति जागरूक और जिम्मेदार बनाता है। पहले भी ऐसे शो टीवी पर आ चुके हैं जिनमें सामाजिक बुराइयों को दिखाया गया है, पर उनकी तुलना सत्यमेव जयते से नहीं की जा सकती। ऐसा बहुत कम हुआ है कि इस तरह के कार्यक्रम को देखकर लोग रोने लगे हों। कई दर्शक कहते हैं कि हमें आमिर खान पर गर्व है।
Saturday, June 9, 2012
स्पेन से यूरोजोन पर नया संकट
यूरोपीय संघ में आर्थिक विकास की गाड़ी फिर से ठहर गई है। यह लगभग साफ हो गया है कि 2012 में यूरो मुद्रा वाले देशों के साझे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर केवल आधा प्रतिशत रहेगी। यूनान और पुर्तगाल में मंदी के चलते तो वह इतनी भी नहीं होगी। कभी ग्रीस और आयरलैंड को वित्तीय मदद करने वाली यूरो जोन की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था स्पेन के बैंकों के स्वयं आर्थिक संकट के चक्र में फंसने ने यह डर और बढ़ाया है।
दस वर्ष पूर्व यूरोपीय संघ ने यूरो को जब साझी मुद्रा बनाया था, तब सपना देखा गया था कि आज साझी मुद्रा है, कल साझी विदेश नीति होगी और परसों शायद एक साझी सेना भी। यूरोप के सभी देश एक दिन यूरोपीय संघ के सदस्य होंगे। यूरोपीय देशों का यह संघ एक दिन अमेरिका की ही तरह संयुक्त राज्य यूरोप कहलायेगा। अमेरिका की ही तरह अपने आप को एक-देश समझेगा। पर यह सब अब दूर की कौड़ी लगता है। यूरो मुद्रा-संकट से इस एकताभावी सपने की नीवें हिलने लगी हैं। जिन राष्ट्रवादी भावनाओं से ऊपर उठने के लिए अखिल यूरोपीय संघराज्य की कल्पना की जा रही थी, वे आज अखिल यूरोपीय अस्मिता से ऊपर उठ रही दिखती हैं। अर्थ और वित्त का हमेशा चोली-दामन का साथ होता है। ऐसे में केवल दो ही भावी परिदृश्य संभव हैं। एक तो यह कि यूरोजोन के सबसे दुर्बल सदस्य यूनान को यदि यूरो को त्यागना और अपनी पुरानी मुद्रा द्राख्मे की शरण में जाना पड़ा, तो यूरोजोन ताश के पत्तों की तरह ढह सकता है। इसे यदि रोकना है, तो बाकी बचे देशों को अपनी सारी राजनैतिक और आर्थिक शक्ति लगा कर फ्रांस, पुर्तगाल और उन अन्य देशों के बैंकों को डूबने से बचाना होगा, जिनका पैसा यूनानी त्रणपत्रों में धन लगाने के कारण डूब जाएगा। साथ ही, यह भी देखना होगा का स्पेन और इटली भी इस भंवर में फंस कर कहीं डूबने न लगें। यह सब तभी हो सकता है, जब यूरोजोन वाले देशों के राजनेता लोटे से पानी पिलाने के बदले सीधे बाल्टी उड़ेलें। उन्हें स्पेन तथा पुर्तगाल जैसे दूसरे डगमग देशों को ऋण लौटाने से राहत देने वाला कोई बड़ा और साहसिक कार्यक्रम बनाना होगा। यूरोपीय केंद्रीय मुद्राबैंक को भी खुल कर सामने आना होगा। उसे स्पेन और इटली ही नहीं, शायद फ्रांस के भी सरकारी बांडों को भारी मात्रा में खरीदना होगा। इस में खतरा यह छिपा है कि तब यूरोपीय केंद्रीय बैंक को यूरो वाले नोटों की खूब छपाई करनी पड़ेगी, जिससे वह अब तक बचता रहा है।
दूसरा परिदृश्य यह हो सकता है कि यूरोजोन के डगमग देशों को वित्त बाजार के भरोसे छोड़ दिया जाए। यानी, वे अनाप-शनाप ब्याज पर खुले बाजार से पैसा जुटाने की कोशिश करें। इस का परिणाम यही होगा कि जिसका कल या परसों दीवाला निकलता, उसका शायद आज ही दीवाला निकल जाएगा। फ्रांस जैसे देशों की साख भी इतनी गिर सकती है कि उन्हें बाजार में आसानी से पैसा न मिले। सरकारों ही नहीं, बैंकों को भी दूसरे बैंकों से उधार मिलना दूभर हो जाएगा। अंतत: सारा यूरोपीय मुद्रा संघ इस भंवर में फंस कर उसी तरह डूब सकता है, जिस तरह 2008 में अमेरिका का नामी-गरामी लीमैन बैंक डूब गया। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष लंबे समय से इसी बात की चेतावनी देता रहा है। उसका मानना है कि यूरो मुद्रा-संकट ही इस समय विश्व अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ा खतरा है। अधिकांश वित्त-विशेषज्ञ यही मानते हैं कि यूनान को किसी तरह बचाना उसे डूब जाने देने से बेहतर विकल्प है। यदि उसे डूब जाने दिया गया, तो उन देशों की सरकारों और व्यावसायिक बैंकों का वह पैसा भी डूब जाएगा, जो यूनान के उद्धार के लिए वे अब तक दे चुके हैं। व्यावसायिक बैंकों का पैसा डूबने से बहुत से बैंक स्वयं भी दीवालिया हो जाएंगे। जिन बैंकों का दीवाला पिटेगा, उनके खाताधारी ग्रहकों की सारी बचत भी डूब जाएगी। इससे व्यापक जन-असंतोष, बेरोजगारी और आर्थिक मंदी पैदा होगी इसलिए, फिलहाल सारी कोशिश यही है कि यूनान के प्रति सारी नाराजगी और रोष के बावजूद उसे किसी तरह बचा लिया जाए। वह बच गया, तो यूरोप की साझी मुद्रा यूरो का भी उद्धार हो जाएगा।
Thursday, June 7, 2012
डिंपल को वॉकओवर का मतलब...
समाजवादी पार्टी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि फीरोजाबाद से लोकसभा का चुनाव हारने वालीं मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधु डिंपल यादव कन्नौज में इतनी आसानी से जीत सकती हैं। डिंपल समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी हैं और वहां न प्रमुख विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी का प्रत्याशी मैदान में है और न ही खुद को केंद्र की सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार मानने वाली भारतीय जनता पार्टी ही वहां चुनौती दे रही है। अपने-अपने स्वार्थों में सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने जैसे सियासत का नंगा खेल दिखाया है। ठगा सा महसूस कर रही जनता यदि सपा से नाराजगी का इजहार करना चाहे तो कैसे करे। लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत तो यह कतई नहीं है।
कन्नौज लोकसभा सीट पर सपा ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को प्रत्याशी घोषित किया है। इसके बाद कांग्रेस ने एलान करने में देरी नहीं लगाई कि वह डिंपल के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारेगी। राजनीतिक हल्कों में इसे राष्ट्रपति पद पर सौदेबाजी के तौर भी देखा जा रहा है। लोगों का आंकलन है कि कांग्रेस जिस किसी को भी राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाएगी, सपा उसे समर्थन देगी। वजह और भी हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के लिए यहां हार से मुश्किलें हो सकती थीं। हाल ही में पेट्रोल पर बड़ी मूल्यवृद्धि से खफा जनता उसके विरुद्ध मतदान का विकल्प प्रयोग कर सकती थी। बुरी तरह हार से यह संकेत देने में अन्य दल देर नहीं लगाते कि कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों में हार के रास्ते जा रही है और यह उसकी हार की कहानी का आगाज है। लोकसभा चुनाव बाद की सियासत में यदि मुलायम सिंह यादव की पार्टी का पलड़ा भारी होता है तो इस समर्थन से सौदेबाजी का रास्ता खुलने में आसानी रहेगी। विधानसभा चुनावों में सपा की जबर्दस्त जीत से उसे यह तो लगता ही है कि वह खुद तो राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनने से रही, सपा की मदद से उसे केंद्र की सत्ता दोबारा मिल सकेगी। एक और वजह है। चुनाव पूर्व यदि सपा से गठबंधन की स्थिति आती है तो उसमें भी आसानी होगी। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, कांग्रेस पार्टी का यहां कोई विशेष जनाधार नहीं है। योगगुरू बाबा रामदेव और समाजसेवी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की छवि को बहुत धक्का पहुंचाया है। आजादी के बाद से कांग्रेस सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रही है। इसलिये देश में आजादी के पश्चात् भ्रष्टाचार के फलने-फूलने की जिम्मेदारी भी उस पर आती है। कांग्रेस के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुद्दा उससे सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है। सबसे बड़ा वोट बैंक सिद्ध होते रहे मुसलमान भी उसके पक्ष में नहीं रहे। उसने गरीब मुसलमानों को आरक्षण का चारा फेंका, बटला हाउस मुठभेड़ में गलत रवैया अपनाया, मुस्लिम वोट फिर भी उसके पास नहीं आए। दूसरी तरफ सपा को यह वोट मिलते हैं, कांग्रेस को लगता है कि सपा को उप चुनाव में समर्थन मुसलमानों में अच्छा संकेत देगा। पार्टी का कहना है कि लोकसभा के 2009 के चुनाव में भी कन्नौज सीट से अखिलेश यादव के खिलाफ कांग्रेस का कोई प्रत्याशी नहीं था।
सबसे ज्यादा आश्चर्य बसपा के रुख से हो रहा है। विधानसभा चुनावों में 177 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही यह पार्टी भी डिंपल के विरुद्ध चुनावी मैदान में नहीं है। बसपा का कहना है कि सपा के विकास के दावे की पोल खोलने के लिए पार्टी लोकसभा और विधानसभा उपचुनाव में प्रत्याशी नहीं उतार रही है। बसपा दरअसल, डरी हुई है। उसका डर भी कांग्रेस जैसा है और वह भी नहीं चाहती कि लोकसभा चुनावों से पहले हार से जनता में गलत संदेश जाए। उसकी इच्छा राजनीति के उस पाठ पर टिकी है जिसमें कहा गया है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर हुआ करती है और वह बहुत जल्दी भूल जाया करती है। इसी तरह विस चुनावों की हार भी जनता भूल जाएगी। बसपा इसीलिये निकाय चुनाव अपने चुनाव चिह्न पर नहीं लड़ रही। इसके अलावा कन्नौज बसपा की जमीन भी नहीं और यहां उसका हारना शत-प्रतिशत तय था। बसपा भी आरोपों में घिरी है। सर्वविदित है कि उसने प्रदेश के विकास से भी अधिक पार्कों के विकास और वहां हाथी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर और अपनी सुप्रीमो मायावती की मूर्तियां लगवाने में अधिक रुचि दिखाई और जनता की गाढ़ी कमाई के चालीस हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिए।.यह धन यदि उद्योगों के विकास पर खर्च होता तो प्रदेश बहुत से युवाओं को रोजगार मिल सकता था। अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में उसने प्रदेश विभाजन का प्रस्ताव लाकर राजनीतिक स्टंट किया किंतु जनता ने नकार दिया। कन्नौज में सपा का जबर्दस्त जनाधार है और राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यहां के सांसद रहे हैं। उन्हीं के त्यागपत्र के बाद यहां उपचुनाव हो रहा है। उसके रुख से जनता कुछ भी सोचे, पर यहां वह अपनी फजीहत बचा पाने में कामयाब रही है। भारतीय जनता पार्टी ने अलग नाटक रचा। अंतिम समय में उसने जगदेव सिंह यादव को प्रत्याशी घोषित किया लेकिन पूरी प्रक्रिया में इतनी देर लगवा दी कि वह परचा भर ही नहीं पाए। वह भी यहां से चुनाव हारना नहीं चाहती थी। इसके साथ ही निकाय चुनावों में पूरी तरह व्यस्त है। अन्य प्रमुख दलों के चुनाव चिह्न के बगैर मैदान में न उतरने को प्लस प्वाइंट मानकर चल रही इस पार्टी को लगता है कि निकाय चुनाव में जबर्दस्त जीत से वह लोकसभा चुनावों से पहले अच्छा संकेत देने में कामयाब रहेगी।
Friday, June 1, 2012
ब्रह्मेश्वर मुखिया की मौत के बाद बिहार
बिहार से आई रणवीर सेना प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या की खबर बड़ी है, अचानक आई है लेकिन अप्रत्याशित नहीं है और जबर्दस्त प्रभाव की क्षमता रखने वाली है। करीब 70 साल के ब्रह्मेश्वर का संगठन बेशक अब पहले जैसा प्रभाव नहीं रखता लेकिन सियासत के समीकरण प्रभावित हुए बिना नहीं रहने वाले, यह तय है। हत्या से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह से पैंतरा बदलते हुए उन्हें समाजसेवी बताया है, उससे राज्य की राजनीति में उतार-चढ़ाव बढ़ेंगे और नए मोड़ आएंगे। आशंका यह तक जताई जा रही है कि राज्य में जातीय हिंसा के साथ ही छिटपुट संघर्षों का दौर शुरू हो सकता है जिसके शिकार दलित भी बनेंगे जिनकी माओवादी हिमायत करते हैं और बदले में दूसरी जातियों को निशाना बनाया जाएगा।
ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ बरमेसर मुखिया बिहार की जातिगत लड़ाइयों के इतिहास में एक जाना-माना नाम है। भोजपुर ज़िले के खोपिरा गांव के रहने वाले मुखिया ऊंची जाति के ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें बड़े पैमाने पर निजी सेना का गठन करने वाले के रूप में जाना जाता है। बिहार में नक्सली संगठनों और बडे़ किसानों के बीच खूनी लड़ाई के दौर में एक वक्त वो आया जब बड़े किसानों ने मुखिया के नेतृत्व में अपनी एक सेना बनाई थी। सितंबर 1994 में ब्रह्मेश्वर मुखिया के नेतृत्व में जो सगंठन बना उसे रणवीर सेना का नाम दिया गया। उस समय इस संगठन को भूमिहार किसानों की निजी सेना कहा जाता था। इस सेना की अक्सर नक्सली संगठनों से खूनी भिड़ंत हुआ करती थी। खूनखराबा बाद में इतना बढ़ा कि राज्य सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया। नब्बे के दशक में रणवीर सेना और नक्सली संगठनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ कई बड़ी कार्रवाइयां कीं। दरअसल, यह हिंसक संघर्ष हुआ करते थे जिन्हें दोनों संगठन कार्रवाई का नाम दिया करते थे। इनमें सबसे बड़ा लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार एक दिसंबर 1997 को हुआ जिसमें 58 दलित मारे गए। इस घटना में भी मुखिया को मुख्य अभियुक्त माना गया। बाड़ा में नक्सली संगठनों ने ऊंची जाति के 37 लोगों को मारा था जिसके जवाब में बाथे नरसंहार को अंजाम दिया गया। इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की जातिगत समस्या को उजागर किया। पहली बार दुनिया के सामने आया कि जाति के आधार पर कम से कम दो भागों में बंटा बिहार विस्फोट के मुहाने पर है। आएदिन के हत्याकांडों के पीछे का सच उजागर हो गया। हत्याएं इतने बड़े पैमाने पर हुईं कि नरसंहार का शब्द आम हो गया। नीतीश से पूर्व लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्रित्व काल तक रणवीर सेना का खूब आतंक रहा। कोई दिन मुश्किल से छूटता था कि हत्याओं की खबरें न आएं। हालात कभी-कभी इतने खराब हो जाते कि अद्धैसैन्य बलों की तैनाती करनी पड़ती। मुखिया बथानी टोला नरसंहार में भी अभियुक्त थे जिसमें उन्हें 29 अगस्त 2002 को पटना के एक्जीविसन रोड से गिरफ्तार किया गया। उन पर पांच लाख का इनाम घोषित किया गया था। वह नौ साल जेल में रहे। बथानी टोला मामले में सुनवाई के दौरान पुलिस ने कहा कि मुखिया फरार हैं जबकि मुखिया उस समय जेल में थे। मामले में मुखिया को फरार घोषित किए जाने के कारण सज़ा नहीं हुई और वो आठ जुलाई 2011 को रिहा हुए। उनकी रिहाई कई लोगों को पच नहीं रही थी और भाकपा माले ने इस फैसले का खुला विरोध किया था।
बथानी टोला मामले में वो अभी भी फरार घोषित हैं और मामला अदालत में है। 277 लोगों की हत्या से संबंधित 22 अलग अलग आपराधिक मामलों (नरसंहार) में इन्हें अभियुक्त माना जाता था। जेल से छूटने के बाद उन्होंने पांच मई 2012 को अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन के नाम से संस्था बनाई और कहते थे कि वो किसानों के हित की लड़ाई लड़ते रहेंगे। जब मुखिया आरा में जेल में बंद थे तो इन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि किसानों पर अत्याचारों की लगातार अनदेखी हो रही है। मैंने किसानों को बचाने के लिए संगठन बनाया था लेकिन सरकार ने उन्हें निजी सेना चलाने वाला और उग्रवादी घोषित करके प्रताड़ित किया है। उनके अनुसार किसानों को नक्सली संगठनों के हथियारों का सामना करना पड़ रहा था। इतनी हत्याओं और चर्चित मामलों में जुड़े ब्रह्मेश्वर का जाना इतनी आसानी से उनके समर्थकों को हजम हो जाएगा, यह लगता नहीं है। वह भी तब, जबकि यह समर्थक राजनीतिक दलों में भी बेहद महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं। राज्य में नीतीश कुमार की सरकार के विरुद्ध विपक्षी दलों को एक बड़ा हथियार मिल गया है क्योंकि इस हत्याकांड से वह यह पाने में पहली बार कामयाब हुए हैं कि राज्य में कानून व्यवस्था बदहाल हो गई है। दूसरा और सबसे बड़ा कारण, ब्रह्मेश्वर का सवर्णों में लोकप्रिय होना भी है। इतने बुजुर्ग होने के बाद भी वह लगातार सक्रिय थे। हवा का रुख पहचानते हुए वह दलितों के पक्ष में भी यह कहकर कामं करने लगे थे कि हर पीड़ित की लड़ाई को उनका पूरा समर्थन है। हत्या से राज्य की जातीय राजनीति गरमाने की आशंका है जिसका असर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल युनाइटेड गठबंधन पर भी पड़ सकता है। पूरे मध्य बिहार में ब्रह्मेश्वर सिंह अगड़ी जातियों के भूमिगत नेता माने जाते थे। भाजपा को बिहार में अगड़ी जातियों का समर्थन मिलता रहा है और इस हत्याकांड से भाजपा को अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करना पड़ सकता है। भाजपा की मदद से मध्य बिहार में व्यापक समर्थन पाने वाले नीतीश की सरकार अगर जल्दी कोई ठोस कार्रवाई नहीं करती है तो उससे बड़ा जनाधार खिसक सकता है।
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