Saturday, June 9, 2012
स्पेन से यूरोजोन पर नया संकट
यूरोपीय संघ में आर्थिक विकास की गाड़ी फिर से ठहर गई है। यह लगभग साफ हो गया है कि 2012 में यूरो मुद्रा वाले देशों के साझे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर केवल आधा प्रतिशत रहेगी। यूनान और पुर्तगाल में मंदी के चलते तो वह इतनी भी नहीं होगी। कभी ग्रीस और आयरलैंड को वित्तीय मदद करने वाली यूरो जोन की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था स्पेन के बैंकों के स्वयं आर्थिक संकट के चक्र में फंसने ने यह डर और बढ़ाया है।
दस वर्ष पूर्व यूरोपीय संघ ने यूरो को जब साझी मुद्रा बनाया था, तब सपना देखा गया था कि आज साझी मुद्रा है, कल साझी विदेश नीति होगी और परसों शायद एक साझी सेना भी। यूरोप के सभी देश एक दिन यूरोपीय संघ के सदस्य होंगे। यूरोपीय देशों का यह संघ एक दिन अमेरिका की ही तरह संयुक्त राज्य यूरोप कहलायेगा। अमेरिका की ही तरह अपने आप को एक-देश समझेगा। पर यह सब अब दूर की कौड़ी लगता है। यूरो मुद्रा-संकट से इस एकताभावी सपने की नीवें हिलने लगी हैं। जिन राष्ट्रवादी भावनाओं से ऊपर उठने के लिए अखिल यूरोपीय संघराज्य की कल्पना की जा रही थी, वे आज अखिल यूरोपीय अस्मिता से ऊपर उठ रही दिखती हैं। अर्थ और वित्त का हमेशा चोली-दामन का साथ होता है। ऐसे में केवल दो ही भावी परिदृश्य संभव हैं। एक तो यह कि यूरोजोन के सबसे दुर्बल सदस्य यूनान को यदि यूरो को त्यागना और अपनी पुरानी मुद्रा द्राख्मे की शरण में जाना पड़ा, तो यूरोजोन ताश के पत्तों की तरह ढह सकता है। इसे यदि रोकना है, तो बाकी बचे देशों को अपनी सारी राजनैतिक और आर्थिक शक्ति लगा कर फ्रांस, पुर्तगाल और उन अन्य देशों के बैंकों को डूबने से बचाना होगा, जिनका पैसा यूनानी त्रणपत्रों में धन लगाने के कारण डूब जाएगा। साथ ही, यह भी देखना होगा का स्पेन और इटली भी इस भंवर में फंस कर कहीं डूबने न लगें। यह सब तभी हो सकता है, जब यूरोजोन वाले देशों के राजनेता लोटे से पानी पिलाने के बदले सीधे बाल्टी उड़ेलें। उन्हें स्पेन तथा पुर्तगाल जैसे दूसरे डगमग देशों को ऋण लौटाने से राहत देने वाला कोई बड़ा और साहसिक कार्यक्रम बनाना होगा। यूरोपीय केंद्रीय मुद्राबैंक को भी खुल कर सामने आना होगा। उसे स्पेन और इटली ही नहीं, शायद फ्रांस के भी सरकारी बांडों को भारी मात्रा में खरीदना होगा। इस में खतरा यह छिपा है कि तब यूरोपीय केंद्रीय बैंक को यूरो वाले नोटों की खूब छपाई करनी पड़ेगी, जिससे वह अब तक बचता रहा है।
दूसरा परिदृश्य यह हो सकता है कि यूरोजोन के डगमग देशों को वित्त बाजार के भरोसे छोड़ दिया जाए। यानी, वे अनाप-शनाप ब्याज पर खुले बाजार से पैसा जुटाने की कोशिश करें। इस का परिणाम यही होगा कि जिसका कल या परसों दीवाला निकलता, उसका शायद आज ही दीवाला निकल जाएगा। फ्रांस जैसे देशों की साख भी इतनी गिर सकती है कि उन्हें बाजार में आसानी से पैसा न मिले। सरकारों ही नहीं, बैंकों को भी दूसरे बैंकों से उधार मिलना दूभर हो जाएगा। अंतत: सारा यूरोपीय मुद्रा संघ इस भंवर में फंस कर उसी तरह डूब सकता है, जिस तरह 2008 में अमेरिका का नामी-गरामी लीमैन बैंक डूब गया। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष लंबे समय से इसी बात की चेतावनी देता रहा है। उसका मानना है कि यूरो मुद्रा-संकट ही इस समय विश्व अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ा खतरा है। अधिकांश वित्त-विशेषज्ञ यही मानते हैं कि यूनान को किसी तरह बचाना उसे डूब जाने देने से बेहतर विकल्प है। यदि उसे डूब जाने दिया गया, तो उन देशों की सरकारों और व्यावसायिक बैंकों का वह पैसा भी डूब जाएगा, जो यूनान के उद्धार के लिए वे अब तक दे चुके हैं। व्यावसायिक बैंकों का पैसा डूबने से बहुत से बैंक स्वयं भी दीवालिया हो जाएंगे। जिन बैंकों का दीवाला पिटेगा, उनके खाताधारी ग्रहकों की सारी बचत भी डूब जाएगी। इससे व्यापक जन-असंतोष, बेरोजगारी और आर्थिक मंदी पैदा होगी इसलिए, फिलहाल सारी कोशिश यही है कि यूनान के प्रति सारी नाराजगी और रोष के बावजूद उसे किसी तरह बचा लिया जाए। वह बच गया, तो यूरोप की साझी मुद्रा यूरो का भी उद्धार हो जाएगा।
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