दो नवम्बर 1990... आज से ठीक 26 साल पहले। देश में उग्र हिंदुत्व के पुनर्जन्म का दिन। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम तुष्टिकरण के सबसे बड़े अलम्बरदार मुलायम सिंह यादव का उदभव। मैं छात्र था उन दिनों लेकिन जागरूक, प्रतिदिन अखबार पढ़ने वाला। आज मेरा पसंदीदा अखबार था...। हिंदुत्व तब न कोई विचारधारा थी और न हिंदुओं के बीच लोकप्रिय कोई शब्द। अयोध्या चर्चा में थी। भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए माहौल गर्मा रहा था। विश्व हिंदू परिषद और आज की भाजपा के तत्कालीन नेतागण चिंघाड़ते, अक्सर नारे छपा करते- राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।
हिंदुओं का धुव्रीकरण होने लगता। कांग्रेस की छात्र इकाई राष्ट्रीय छात्र संगठन का जिला अध्यक्ष होने के बावजूद मेरे भीतर भी उबाल आता। मैं ही क्या, हर युवा की यही कहानी थी। चर्चाओं में मंदिर होता, रामलला होते। श्रद्धा से सिर झुक जाता और आक्रोश से भुजाएं फड़कने लगतीं। बचपन से जवान होने की साक्षी मुस्लिम बहुल गलियां बुरी लगने लगतीं, मुस्लिम भी फूटी आंख नहीं सुहाते। सियासत के दांव थे तो वो सफल हो रहे थे और अगर... मंदिर बनाने का आंदोलन था तो जनसमर्थन से वांछित नतीजे देने लगा था। भाजपा के पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा रोककर लालू प्रसाद यादव हीरो बन चुके थे और इधर मुलायम सिंह यादव को जैसे मौके का इंतजार था। वो चेतावनियां देते रहते। उन्होंने एक जनसभा में कहा कि जिन श्रद्धालुओं ने 14 कोसी परिक्रमा करने की योजना बनाई है, वे इससे दूर ही रहें। माहौल गर्म था। आमने-सामने वाला। हिंदू-मुस्लिम को भाई-भाई बताने वाले तब छिप-से गए थे। तब टीवी चैनल इतना तेज नहीं हुआ करते थे। बाकी अखबार एक तरफ और दूसरी ओर, आज। तीन नवम्बर 1990 की रिपोर्ट थी... बीजेपी सांसद उमा भारती, वीएचपी नेता अशोक सिंहल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वामी वामदेव वामदेव ने हनुमानगढ़ी में करीब 15000 कारसेवकों का नेतृत्व किया। पुलिस ने विवादित ढांचे की ओर जाने वाली गलियों में बैरिकेडिंग कर दी, हथियारबंद पुलिसकर्मी चौराहे की दुकानों की छतों पर तैनात हो गए। कारसेवकों ने चाल चली। एक बूढ़े आदमी और महिला को रुकावट वाले रास्ते से आगे जाने की इजाजत दे दी गई। तब उम्रदराज कारसेवक उम्र में अपने से छोटे पुलिसकर्मियों के पांव छूने के लिए आगे झुकने लगे। सकुचाए पुलिसकर्मी अपने पैर हटाते गए, कारसेवक अपने पैर आगे बढ़ाते चले गए पर यह ड्रामा बहुत देर तक नहीं चल सका। और यह तारीख हिंदुत्व के इतिहास का अहम पड़ाव बन गई। कुल मिलाकर 15 कारसेवक मारे गए थे।मुलायम को ‘मुल्ला मुलायम’ कहा गया। वे यूपी में मुस्लिम वोटरों के रहनुमा बनकर उभरे। फायरिंग के तुरंत बाद ही मुलायम ने समाजवादी पार्टी बनाई थी लेकिन छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। आखिरकार चार नवम्बर को मृत कारसेवकों को अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनकी चिताओं की राख को देशभर में गांवों और शहरों में ले जाया गया, जिससे उन्माद फैले। इसके करीब दो साल बाद ही बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। सत्ता और सियासत ने इस बीच कई करवटें ली हैं। उत्तर प्रदेश चूंकि इस समय विधानसभा चुनाव के मुहाने पर है और राम मंदिर का मुद्दा फिर दबे-छिपे उठाया जा रहा है। इन पूरे 26 वर्षों में चरम तक पहुंच गए मुलायम सिंह आज मजबूर हाल हैं और उनकी समाजवादी पार्टी संकट में। बेटे और भाई के बीच उत्तराधिकार की जंग में मुलायम निरीह प्रतीत हो रहे हैं और तस्वीर का दूसरा पहलू यानी भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदें जोर मार रही हैं। भाजपा यदि सत्ता तक पहुंची तो यह इसी आंदोलन का एक नतीजा होगा, और मुलायम सिंह की सियासत ढेर हुई तो भी...