Thursday, June 14, 2012
आर्थिक कुप्रबंधन के हालात
देश के दो दिग्गज उद्यमियों अजीम प्रेमजी और एनआर नारायणमूर्ति ने केंद्र सरकार को आर्थिक कुप्रबंधन के लिए कोसा है और यहां तक कहा है कि नेता के बगैर देश चल रहा है। यह बहुत बड़ी बात है, हमारे देश में इसे आम खबरों की तरह ले लिया गया किंतु यही बात यदि अमेरिका जैसे विकसित देशों के शीर्ष उद्यमियों ने कही होती तो तहलका मच जाता। देश में वाकई इसी तरह के हालात हैं। आर्थिक मोर्चे से प्रतिदिन बुरी खबरें आ रही हैं। मई में मुद्रास्फीति बढ़कर 7.55 प्रतिशत पहुंच गई है। पिछले साल के अंत में जब खाद्य मुद्रास्फीति एक फीसदी की कमी आई तो तमाम अर्थविदों और नीति निर्धारकों ने उम्मीदें जतानी शुरू कर दी थी कि अब इस पर अंकुश लगने लगा है। तब महंगाई दर भी घटकर 7.48 फीसदी पर आ गई थी, जो 11 माह में सबसे न्यूनतम थी। इसके चलते ही दिसंबर में भारतीय रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की अद्र्ध तिमाही समीक्षा में ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया बल्कि बैंकिंग क्षेत्र को करीब एक लाख करोड़ रुपये की तरलता मुहैया कराने का इंतजाम कर दिया। असर दिखा भी, अर्थव्यवस्था सुधरने लगी किंतु हालात अब ज्यादा खराब हैं। पेट्रोल मूल्यों में बड़ी वृद्धि ने बेड़ा गर्क किया है, यदि यह इतनी जरूरी थी तो इतनी देर क्यों की गई कि अर्थव्यवस्था बदहाल होती चली गई। पिछले साल भी इसी तरह की नासमझी हुई थी। प्याज की कीमत थामने के लिए प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट सचिव और कृषि मंत्री से लेकर राज्यों की सरकारें तक एकसाथ जुटी थीं। जिस कीमत बढऩे का कारण अक्तूबर की बारिश थी उसका निदान दिसंबर में कीमतों में 200 फीसदी बढ़ोतरी के बाद सोचा गया। वह भी किस्तों में। अब सब्जियों की कीमतें आसमान पर हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या महंगाई पर नाकामी का ठीकरा कृषि और खासतौर से खाद्य उत्पादों के कम उत्पादन पर फोड़ा जा सकता है। सच्चाई यह नहीं है। अगर हम पिछले करीब डेढ़ दशक के कृषि उत्पादन को देखें तो उसमें आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है। साथ ही केवल उत्पादन ही नहीं, किसानों की आय बढ़ाने में अहम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में भी बढ़ोतरी हुई है। केवल खाद्यान्न उत्पाद को देखें तो 1995 से 2000 के बीच इनका औसतन सालाना उत्पादन 19.71 करोड़ टन रहा जबकि से 2000-2005 के बीच औसतन सालाना उत्पादन 19.92 करोड़ टन रहा। लेकिन 2005 से 2010 के दौरान यह बढ़कर 22.19 करोड़ टन पर पहुंच गया। वहीं इस दौरान तिलहन उत्पादन 226.6 लाख टन से बढ़कर 269.0 लाख टन पर पहुंच गए। यह बात जरूर है कि इस दौरान दालों के उत्पादन में कोई खास बदलाव नहीं आया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कीमतों के प्रबंधन में सरकार का कामकाज बेहद लचर है। महंगाई दर घटती भी है तो उससे कीमत कम नहीं होती केवल बढऩे का स्तर घटता है। जो आम आदमी की तकलीफ को बहुत कम नहीं करता। इस कुप्रबंधन के चलते ही 10 फीसदी उत्पादन घटने पर दामों में 200 फीसदी तक बढ़ोतरी वाले प्याज जैसे उदाहरण सामने आते हैं और पेट्रोल के दामों में वृद्धि के फैसले में देरी हालात खराब कर देती है। प्रेमजी और नारायणमूर्ति जैसे आईटी महारथियों की चिंताएं शोध कंपनी सीएलएसए एशिया-पेसिफिक मार्केट्स की रिपोर्ट ने बढ़ाई हैं जिसमें सरकारी स्तर पर लापरवाही से संकट की आशंका जताई गई है। भारत जैसे आईटी विशेषज्ञ देश के लिए वाकई यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
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