Tuesday, June 19, 2012
रायसीना और राजनीति के गठजोड़ का डर
यह अब लगभग तय हो रहा है कि प्रणब मुखर्जी देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। बेशक, वह विद्वान हैं, विनम्र हैं और राजनीति के महापंडित हैं लेकिन एक सवाल सबसे ज्यादा उठ रहा है कि केंद्र सरकार के संकटमोचक प्रणब राष्ट्रपति भवन को राजनीति का केंद्र बनने से रोक पाएंगे या नहीं? कई मौके आने हैं, यूपीए सरकार तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसी बैसाखियों पर टिकी है जो कब संकट बन जाएं पता नहीं। आर्थिक संकट मुंहबायें खड़ा है, वित्तमंत्री हों या नहीं, प्रणब इससे निपटने का रास्ता बताते रहे हैं। फिर अगले लोकसभा चुनावों के बाद देश में त्रिशंकु लोकसभा की संभावना बताई जा रही है जिसमें सबसे अहम राष्ट्रपति का रोल होगा। अध्यापक और फिर पत्रकार भी रहे प्रणव मुखर्जी अपनी सारी विद्वता और विनम्रता के बावजूद इन दिनों लगातार झुकने का रिकार्ड बनाए जा रहे हैं, वह एक निष्पक्ष राष्ट्रपति भी बनकर दिखाएंगे, मन में संदेह खड़ा करता है। चुनौती बड़ी है, प्रणब को अपने निर्णयों को गैर राजनीतिक सिद्ध करना है जिसके लिए संविधान में राष्ट्रपति भवन की प्रतिष्ठा है।
केंद्र की राजनीति में प्रणब से बड़े पद पर बेशक, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह हों लेकिन उनकी जैसी छवि किसी की नहीं। उनका बड़ा कद है। सत्ता के बड़े फैसले उनकी भागीदारी के बिना नहीं होते। गठबंधन के दलों की तरफ से मुश्किलें आएं तो वही सम्हालते हैं। हर संकट का हल उनकी भूमिका शुरू होने के बाद होता है, इसलिये वह सरकार के संकटमोचक हैं। यूपीए की केंद्रीय सत्ता के असली संचालक वही हैं। केंद्र सरकार के फैसले लेने वाले मंत्री समूहों और उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूहों में उनकी प्रभावी हिस्सेदारी है। प्रधानमंत्री ने 12 उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूह गठित किए हैं, उन सभी के अध्यक्ष प्रणब ही हैं। यह समूह उन मुद्दों पर फैसले करते हैं जो दोबारा कैबिनेट के विचारार्थ नहीं आते और सीधे सदन में भेज दिए जाते हैं। इसके साथ ही अंतर मंत्रालय विवाद हल करने के लिए गठित 30 मंत्री समूहों में 13 की अध्यक्षता उनके हवाले है। कैबिनेट के अधीन 42 अन्य मंत्री समूहों में 25 का अध्यक्ष पद बंगाल का यह नेता संभाल रहा है। कैबिनेट का बोझ हल्का करने के मकसद से छोटे मुद्दों पर विचार के लिए गठित मंत्री समूहों में भी एक उनके सीधे निर्देशन में है। फ़िलहाल तो जैसा कि बताया जाता है कि प्रधानमंत्री होने के बावजूद अभी भी मनमोहन सिंह उन्हें 'सर' कहकर संबोधित करते हैं। जैसा वह रिज़र्व बैंक के गवर्नर के टाइम में उन्हें कहा करते थे। प्रणव इसके लिए उन्हें हमेशा टोकते रहते हैं कि नहीं अब आप 'सर' हैं। जो भी हो अब समय एक बार फिर करवट ले रहा है और प्रणव मुखर्जी मनमोहन सिंह के फिर से सर होने जा रहे हैं। प्रेसीडेंट सर। लेकिन बात इससे भी आगे की है। यूपीए ने कोई सक्षम प्रत्याशी न मिलने की सूरत में मजबूरी में प्रणब पर दांव लगाया है। उसे लगता था कि कमजोर प्रत्याशी खड़ा करने पर उसे तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की अगुवाई में दूसरे पक्ष से मात खानी पड़ सकती है। राष्ट्रपति का चुनाव हारने का मतलब गलत लगाया जाता। कहा जाता कि केंद्रीय सत्ता बहुमत विहीन है और अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पड़ता। प्रणब फिर संकटमोचक सिद्ध हुए लेकिन कांग्रेस उनकी विकल्पहीनता परेशान हो रही है। उसे लग रहा है कि भविष्य में कोई बड़ा संकट आया तो उसका हल वह कैसे ढूंढेगी। इसी विकल्पहीनता से राष्ट्रपति भवन के राजनीति का केंद्र बनने का डर उभरता है।
अभी कुछ दिन पहले की बात है। एनसीईआरटी की पुस्तक में डॉ. अंबेडकर के कार्टून को लेकर बवाल हुआ था। पहले कपिल सिब्बल ने माफ़ी मांगी और किताब से कार्टून हटाने का ऐलान कर दिया। पर प्रणब और आगे निकल गए और बोले, 'कार्टून क्या पूरी किताब ही हटा दी जाएगी। संभवतया यह कदम उन्होंने मुद्दा न बनने देने के लिए उठाया। इसके जरिए वह बेशक, बहुजन समाज पार्टी जैसे कथित दलित हितैषी दल से मुद्दा छीनने से तो वह कामयाब रहे लेकिन उनकी छवि को ठेस पहुंची। तृणमूल सुप्रीमो को मनाने के लिए उनका खुद आने आना भी राजनीतिक प्रेक्षकों के गले नहीं उतर पा रहा। अपने लिए समर्थन मांगना राष्ट्रपति पद के प्रणब सरीखे प्रत्याशी के कद के कतई अनुकूल नहीं। हालांकि उनके विरोधी भी मानते हैं कि प्रणब परिस्थिति के अनुकूल खुद को ढालना बखूबी जानते हैं। 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी तब प्रणव मुखर्जी वित्तमंत्री थे। इंदिरा के बाद कौन? की बात पर उन्होंने अपने नंबर दो की हैसियत बताकर दबी जुबान प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताई थी। अरूण नेहरु इतने खफ़ा हुए कि उन्हें पहले राजीव गांधी मंत्रिमंडल से बाहर करवाया और फिर पार्टी से भी बाहर करवा दिया। प्रणव मुखर्जी को दूसरी पार्टी बनानी पड़ी। राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस। बाद के दिनों में बोफ़ोर्स की आंधी से सत्ता से बाहर हुए राजीव गांधी से फिर से उनका समझौता हो गया और अपनी पार्टी का विलय कर वह फिर कांग्रेस में लौट आए। बाद मे नरसिंह राव ने उन्हें योजना आयोग का अध्यक्ष बनाया। फिर विदेश मंत्री भी बनाया। फिर जब मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमंत्री बने तब भी प्रणव मुखर्जी ने एक गलती कर दी। जब मनमोहन का नाम चर्चा में आया तो मंत्रिमंडल में शामिल होने के सवाल पर वह बोल गए कि मैंने तो उन्हें रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया था। प्रकारांतर से दबी जुबान फिर दावेदारी की बात आ गई। कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें अहमियत नहीं दी लेकिन पहले रक्षामंत्री और लोकसभा में सदन के नेता बने और बाद में विदेश मंत्री बने एवं अंतत: वित्त मंत्री। अपने व्यवहार से उन्होंने कभी सिद्ध नहीं होने दिया कि वह प्रधानमंत्री न बन पाने से नाराज या कुंठित हैं। उनका व्यवहार, विनम्रता, विद्वता सभी राजनीतिक पार्टियों में उनकी स्वीकार्यता बढ़ाती है। जिस तरह से यूपीए से बाहर के दल भी उनके समर्थन में आगे आ रहे हैं, प्रणब पर यह जिम्मेदारी है कि वह खुद को नई भूमिका में निष्पक्ष साबित करें।
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