पांच जून 1989 की सुबह। अखबार खून से रंगे थे। चीन के थ्येनआनमन चौक पर एक दिन पहले लोकतंत्र की लड़ाई में सैकड़ों छात्र चीनी टैंकों का शिकार हो गये थे और पूरी दुनिया में हाहाकार मचा था। तब मेरी उम्र कोई 16 साल की होगी। स्कूल में टीचर्स के बीच बातचीत का मुद्दा यही था। घर के बुजुर्ग कहा करते थे कि जब अति हो जाती है तो क्रांति होती है। तब बदलाव की बयार बहती है। तब से आज तक मैं, इसी इंतज़ार में हूं कि हमारे यहां अति हो रही है। अब क्रांति हो, तब क्रांति हो।
15 जून 1937 को जन्मे किसन बाबूराव हजारे यानि अन्ना हज़ारे को मैं किसी क्रांति का फिलहाल अग्रदूत नहीं मानता। हां, अन्ना ने देश को जगाने का काम किया है। और हम जागे इसलिये नहीं कि किसी सबल लोकपाल से हमारे यहां के प्रधानमंत्री या मंत्री भ्रष्ट नहीं होंगे। न ही इसकी गारंटी है कि यह लोकपाल ही भ्रष्ट नहीं हो जाएगा। हम जैसे तमाम देशों में इतिहास गवाह है कि सिक्कों की खनक ने बड़े-बड़ों की अकड़ ढीली की है। यहां तक कि हम यह तक मानने लगे कि जब तक भगवान को भेंट नहीं चढ़ाएंगे, हमारी मनोकामना पूरी नहीं होगी। कुछ साल पहले की बात है, सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ तो हम बल्लियों उछल पड़े थे। क्या हो रहा है अब, सूचना अधिकार कानून को भी धता बताने से तंत्र बाज नहीं आ रहा। सरकारी स्तर से कुछ हुआ नहीं इसलिये गांधी टोपी और खादी पहनने वाले अन्ना को महाराष्ट्र छोड़कर दिल्ली में झंडा उठाना पड़ा। अन्ना के इस अंधाधुंध अनुसरण की वजह हैं। अन्ना चाहें भ्रष्टाचार पर निर्णायक प्रहार न कर पाएं या सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में डूबे नेता इसकी कोई काट ढूंढ लें, फिर भी हम उम्मीद लगाए बैठे हैं। संसद के जनलोकपाल विधेयक को ध्वनिमत से पारित करने से इस उम्मीद को दम मिला है। दरअसल, भ्रष्टाचार ने हमारे देश की जड़ों में ऐसा मट्ठा डाला है जिसने हमें नौ-नौ आंसू रुलाया है। कहां नहीं हैं भ्रष्टाचार? आम दिनचर्या की छोड़िए, सरकारी विभागों को भी छोड़ दीजिए, अब तो प्राइवेट कंपनियों में भी यह बीमारी पहुंच चुकी है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के हर हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार चरम पर है| ये हालात एक दिन या कुछ बरसों में पैदा नहीं हो गए, बल्कि लंबे समय तक हमारी लापरवाही भी इसके लिए ज़िम्मेदार साबित हुई है। गलत एवं पथभ्रष्ट लोगों को सम्मान देने की नीति का पनपना और ऐसे लोगों के विरुद्ध आवाज न उठाने की हमारी आदत भी खूब दोषी है। हम लड़ने की आदत भूल बैठे। इसके जरिए हमने भी शॉर्ट-कट रास्ता चुनना शुरू कर दिया। बजाए यह देखने के, कि रिश्वत दिए बिना कैसे काम कराएं, हम सोचने लगे कि कैसे रिश्वत कम कराएं और सही आदमी तक पहुंचा दें।
हद होने लगी तो मजबूरी में हम चेते। अन्ना के शांति और प्रशांत भूषण जैसे दागी साथियों को भी हम दरकिनार कर समर्थन कर रहे हैं क्योंकि लक्ष्य हमारी पसंद का है। हम दोनों भूषणों के इलाहाबाद में स्टाम्प चोरी और नोएडा में करोड़ों के भूमि आवंटन को इसीलिये भूल जाते हैं। इसके बजाए महत्व देते हैं अन्ना को, वजह वही है अन्ना हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं। अन्ना के समर्थन में लोग झंडा उठा रहे हैं, कारों के पीछे लिखवा रहे हैं 'मैं हू अन्ना', यह वही लोग हैं जो थक चुके हैं व्यवस्था से। मीडिया के कैमरों की फ्लैश तक चलने वाले समर्थक आंदोलनों का भी असर है, इससे आवाज बुलंद हो रही है। दिल्ली के रामलीला मैदान में बेशक अन्ना के साथ तमाम लोग बैठे हैं लेकिन देश के हर हिस्से में उनका झण्डा फहर रहा है। शहरों की छोड़िए, गांवों में किसी बड़े पेड़ के नीचे बैनर लगाकर बैठे लोगों को अन्ना का समर्थन करते मैंने देखा है, वह भी उन गांवों में जहां लोग बिजली न आने पर कुछ नहीं बोलते। पानी साफ मिले तो ठीक वरना दूर से भरकर ले आते हैं। गांवों में कोई कब्जा कर ले तो कुछ दिन अफसरों के चक्कर लगाते हैं, फिर थककर हार मानकर बैठ जाते हैं। यह लोग '... तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं' जैसे पुराने नारे के शुरू में अन्ना का नाम जोड़ते हैं तो इसके मायने हैं। मैं उन लोगों में नहीं जो कह रहे हैं कि देश पूरी तरह जाग गया है। इन जागे हुए लोगों को मैंने कई बार देखा है, पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध, फिर अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्ज़िद विवाद के वक्त। यह जगे, तोड़ा-फोड़ा और सो गए। जैसे मकसद था कि कुछ हंगामा बरपाने का। अन्ना के साथ उठ खड़ी हुई भीड़ के मायने हैं कि इस बार एक ऐसे मुद्दे पर जागृति आयी है जो न जाति से जुड़ा और न धर्म से। इसी दिल्ली में बाबा रामदेव भी बैठे थे। उनकी अगवानी करने केंद्रीय मंत्री पहुंचे थे, लगा था कि जैसे कुछ बड़ा कर गुजरने वाला है यह बाबा। लेकिन हुआ क्या, सरकार ने धोबी पाट दिया और बाबा चारों खाने चित्त। लेडीज़ सूट में गायब होने के बाद जब देहरादून में मिला तो बोलती बंद। अन्ना की मुहिम की शुरुआत उत्साहित कर रही है। लोकतंत्र में लोक पहली बार तंत्र से भारी पड़ता नजर आ रहा है। इसका श्रेय अन्ना के साथ ही, कांग्रेस की उस सरकार को भी है जो आम आदमी की आवाज़ को दबाने में तुली है। सरकार अगर चुपचाप अन्ना की बात मान लेती तो यह हवा पैदा न होती, जनाक्रोश पैदा न होता। अति हो रही है, काश अब क्रांति भी हो जाए।
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