Tuesday, May 8, 2012
संकट में संकटमोचक
राष्ट्रपति पद के लिए सियासत अजब मोड़ पर है और मुश्किल में हैं केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी। विपक्ष ही नहीं, सत्ता पक्ष का एक बड़ा धड़ा भी उन्हें राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बता रहा है। वह संकेतों में कह रहे हैं कि वह दौड़ में नहीं पर कोई मानने को तैयार नहीं। इसकी कई वजह हैं। दादा केंद्रीय सत्ता के असली सारथी हैं। संकटमोचक की भूमिका निभाते हैं। किसी की सुनी बिना निर्णय करते हैं जो कभी-कभी शरद पवार जैसे 'हैवीवेट्स' को भी नागवार गुजरते हैं। और तो और... अगली बार कांग्रेस सत्ता में आई तो उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं भी पैदा हो सकती हैं।
लोकसभा में वित्त विधेयक 2012 पर चर्चा के दौरान जब सदस्य वित्त मंत्री को राष्ट्रपति बनने की संभावना पर बधाई दे रहे थे तो उन्होंने फिर कहा, मैं निश्चिंत तौर पर कहीं नहीं जा रहा हूं जैसा उल्लेख किया जा रहा है। कल भी जब भाजपा नेता यशवंत सिन्हा बधाई दे रहे थे तो उन्हें कहना पड़ा कि आप मुझे बाहर करने पर तुले हैं। दरअसल, प्रणब दा के पीड़ितों की संख्या अच्छी-खासी है। उनका संसदीय करियर करीब पांच दशक पुराना है, जो 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में शुरू हुआ। सबसे पहले वह 1973 में केंद्र सरकार में औद्योगिक विकास विभाग के उप मंत्री बने। तब से आज तक, उन्होंने खुद को राजनीति के मजबूत स्तंभ के रूप में स्थापित किया है। देश के प्रधानमंत्री बेशक, डॉ. मनमोहन सिंह हों, लेकिन सत्ता का असली संचालक उन्हें ही माना जाता है। केंद्र सरकार के फैसले लेने वाले मंत्री समूहों और उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूहों में उनकी प्रभावी हिस्सेदारी है। प्रधानमंत्री ने 12 उच्चाधिकार प्राप्त मंत्री समूह गठित किए हैं, उन सभी के अध्यक्ष प्रणब ही हैं। यह समूह उन मुद्दों पर फैसले करते हैं जो दोबारा कैबिनेट के विचारार्थ नहीं आते और सीधे सदन में भेज दिए जाते हैं। इसके साथ ही अंतर मंत्रालय विवाद हल करने के लिए गठित 30 मंत्री समूहों में 13 की अध्यक्षता वित्त मंत्री के हवाले है। कैबिनेट के अधीन 42 अन्य मंत्री समूहों में 25 का अध्यक्ष पद बंगाल का यह ब्राह्मण नेता संभाल रहा है। कैबिनेट का बोझ हल्का करने के मकसद से छोटे मुद्दों पर विचार के लिए गठित मंत्री समूहों में भी एक उनके सीधे निर्देशन में है, आठ के मनमोहन और एक के रक्षामंत्री एके एंटनी अध्यक्ष हैं। खास बात यह है कि वित्तमंत्री की अध्यक्षता वाले समूहों की बैठकें ही तय तिथियों पर संपन्न हो जाती हैं जबकि शरद पवार, गुलाम नबी आजाद जैसे मंत्री इनके लिए समय ही नहीं निकाल पाते। प्रणब को न चाहने वाले लोगों की संख्या अच्छी खासी है। वह खाद्य मंत्रालय की अहम कमेटी की अध्यक्षता करते हैं जो शरद पवार जैसे लोगों के गले नहीं उतरती। इस तरह के आग्रह प्रधानमंत्री और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन अध्यक्ष सोनिया गांधी तक तक खूब पहुंचे हैं जिनमें मंत्रियों ने दादा की जगह खुद को अपने मंत्रालय से संबंधित कमेटियों का अध्यक्ष बनाने के लिए कहा। वजहें और भी हैं। अगले चुनाव में यदि कांग्रेस को केंद्रीय सत्ता मिलती है और राहुल गांधी के नाम पर खुलकर फैसला नहीं हो पाता तो प्रणब ही प्रधानमंत्री पद के मुख्य दावेदार हो सकते हैं इसीलिये अन्य दावेदार सक्रिय हैं और उन्हें राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित कराने पर तुले हैं। अन्य दलों के नेताओं को लगता है कि चुनाव बाद जोड़-तोड़ की स्थिति में प्रणब उनका काम बिगाड़ सकते हैं। प्रणब राष्ट्रपति बनने के इच्छुक नहीं, यह बात उनके हाल ही में एशियाई विकास बैंक के निदेशक मंडल का अध्यक्ष चयनित किए जाने से भी सिद्ध हो रही है। राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि कांग्रेसी परंपरा के मुताबिक यदि 10 जनपथ से फरमान नहीं आता तो प्रणब इसके लिए तैयार नहीं होंगे।
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