Saturday, November 29, 2014

'सार्क' पर ललचाता चीन

दक्षिण एशियाई देशों का साझा मंच सार्क अपने 18वें शिखर सम्मेलन में अगर किसी बड़े परिणामों तक नहीं पहुंच पाया तो इसकी वजह क्या हैं? भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ की बात यदि छोड़ भी दें तो संगठन के नेताओं के बीच वो सौहार्द दिखा ही नहीं जिसके लिए यह जाना-माना जाता था। दरअसल, एक छिपी शक्ति कुछ नेताओं को अपनी अंगुलियों पर नचा रही थी। उसकी मंशा  थी कि सम्मान गुट निरपेक्ष देशों के नेता के रूप में जैसा सम्मेलन भारत ने सार्क में पाया है, उसमें कमी आ सके। यह छिपी शक्ति थी चीन। एशिया की यह महाशक्ति सार्क और अन्य एशियाई देशों में उपस्थिति बढ़ाने के साथ ही दखलंदाजी की यथासंभव कोशिश में जुटी है।
सार्क यानी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन में अमेरिकी प्रेक्षक के रूप में बराक ओबामा प्रशासन की दक्षिण एवं मध्य एशिया के लिए मुख्य वार्ता निशा देसाई बिस्वाल की तरह चीनी पर्यवेक्षक की भी मौजूदगी थी।  यूरोपीय संघ, जापान और म्यांमार भी संगठन के पर्यवेक्षक हैं। असल में, चीन सार्क की सदस्यता चाहता है इसीलिये उसने सदस्य देशों को बुनियादी ढांचे और विकास के लिए अरबों डॉलर की पेशकश कर ललचाया है। चीन दक्षिण एशिया की परिधि में नहीं आता, फिर भी पाकिस्तान और नेपाल ने उसकी सदस्यता की पैरवी की है। नेपाल के वित्त, विदेश और सूचना प्रसारण मंत्री समेत कुछ पूर्व मंत्रियों ने चीन की खुलेआम पैरवी की है। ऐसी स्थितियों में भारत को सतर्क होने की जरूरत है। पिछले अधिवेशन में पाकिस्तान ने इस आशय का प्रस्ताव भी रखा था। चीन का सार्क में भी आर्थिक और रणनीतिक प्रभाव का विस्तार भारत के हितों को चुनौती देता है। भारत सार्क में चीन के दखल से चिंतित नहीं है, लेकिन वह सार्क मंच का सबसे ताकतवर भागीदार है। चीन को सदस्य बनाया जाता है, तो भारत के पड़ोसी देशों को चीन के रूप में एक आर्थिक विकल्प मिल जाएगा। जाहिर है, इससे भारत का वर्चस्व घटेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसीलिये सार्क देशों को टॉप प्रायर्टी पर ले रखा है, वह निजी तौर पर प्रयास कर रहे हैं कि पाकिस्तान को छोड़कर अन्य देशों के साथ गहरे रिश्ते बनाए जाएं। इसी क्रम में नेपाल को 150 करोड़ रुपए का ट्रॉमा सेंटर, ध्रुव हेलीकॉप्टर, 900 मेगावाट पनबिजली परियोजना, एक अरब डालर का आसान ऋण, बस सेवा और 500-1000 के नोटों का नेपाल में भी चलन आदि ऐसे कुछ तोहफे दिए गए हैं कि नेपाल चीन की तरफ न जाए। परंतु चीन ने पाकिस्तान और श्रीलंका में जिस तरह परिवहन और आर्थिक बुनियादी ढांचा बनाया है, उससे चीन के असरदार विस्तार को नकारा नहीं जा सकता। इसके अलावा, उसने सिल्क रोड प्रोजेक्ट से सार्क देशों को आधारभूत ढांचे के लिए 40 अरब डॉलर देने का वादा किया है। नेपाल को उसके उत्तरी, सीमाई जिलों के चौतरफा विकास के लिए 1.6 अरब डालर देने की पेशकश की है। ये जिले चीन के तिब्बत वाले भाग से सटे हुए हैं।
पाकिस्तान की कोशिश कश्मीर मुद्दे पर एक सशक्त समर्थक ढूंढने की है जो वह आजादी के बाद से निरंतर करता रहा है। चीन खुलकर उसके पक्ष में नहीं बोलता लेकिन सहयोग में किसी तरह की कसर भी बाकी नहीं रखा करता। पाकिस्तान को लगता है कि यदि चीन सार्क का सदस्य बन गया तो यहां भी शक्ति संतुलन की स्थिति आएगी और वह भारत के विरुद्ध चीन के पाले में जाकर खड़ा हो जाएगा। हालांकि सार्क द्विपक्षीय मामलों पर विचार का मंच नहीं है, लेकिन दो बड़े देशों का तनाव और टकराव अंतत: संगठन के विमर्श को ही प्रभावित करता है। शायद इसीलिए पाकिस्तान चीन के दखल की पैरवी कर रहा है। भारत का तर्क है कि सार्क का गठन दक्षिण एशिया के देशों के बीच सहयोग को बढ़ाने के मद्देनजर किया गया था। कश्मीर मुद्दा ही उसके लिए जीवनदायिनी है किंतु वहां चल रहे विधानसभा चुनावों ने पाकिस्तान की उम्मीदों को झटका दिया है। अब तक हुए जबर्दस्त मतदान को भाजपा के पक्ष में भी माना जा रहा है। पाकिस्तान जानता है कि अगर कश्मीर में भाजपा का प्रभाव बढ़ा तो उसके लिए तमाम मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। अलगाववादी तत्वों की गतिविधियां बाधित होंगी। कश्मीर घाटी में बहुसंख्यक मुसलमान हैं जो भाजपा का परंपरागत वोट बैंक नहीं माने जाते। इस हकीकत के बावजूद लोकसभा चुनावों में विधानसभा की कुल 87 में से 25 सीटों पर भाजपा विजयी रही, जबकि नौ अन्य सीटों पर उसे दूसरा स्थान हासिल हुआ। भाजपा ने तब तकरीबन 33 फीसदी वोट पाए थे। माना जा रहा है कि कश्मीर ने हाल ही में भयंकर बाढ़ और उसके बाद की बर्बादी झेली है,साथ ही इस जटिल घड़ी में प्रधानमंत्री की शिरकत और मदद को देखा भी है। लिहाजा, चुनाव में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता भी मिल सकती है। पाकिस्तान की मुश्किल यह है कि वह कश्मीर घाटी में जनमत संग्रह की हिमायत करता है और प्रचंड मतदान इस बात का सबूत है कि जनमत भारत के साथ है। जनता हर स्तर पर पाकिस्तान की दखलंदाजी को नकार रही है। कश्मीर को पाकिस्तान की पैरोकारी, हमदर्दी और जनमत संग्रह की मांग कतई मंजूर नहीं। नतीजतन, पाकिस्तान के लिए यह निराशा और हताशा का संदर्भ हो सकता है कि जिस कश्मीर की आड़ में पाकिस्तान अपनी कूटनीति खेलना चाहता है, उसे उसकी भूमिका की दरकार नहीं है। आज का कश्मीर भारतीय होने में सुरक्षित और अपनत्व का एहसास करता है। वह धरती की जन्नत का नूर लौटते और पर्यटन की बयार बहते देखना चाहता है। कमोबेश, पाकिस्तान की उस संदर्भ में कोई जरूरत नहीं है।

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