Sunday, October 27, 2013

मुक्ति के लिए तड़पती शिक्षा

कल्पना कीजिए, आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो खुद को डॉक्टर लिखता है और प्रैक्टिस करता है पर यह नहीं पता कि उसने डॉक्टरी की यह पढ़ाई कर कब ली? आप पहल करते हैं, विश्वविद्यालय से उसकी डिग्री सत्यापित कराने का प्रयास करते हैं और डिग्री सत्यापित भी हो जाती है। अब सच्चाई के धरातल पर आएं, ऐसा हो सकता है कि विश्वविद्यालय फर्जी डिग्री भी सत्यापित कर दें। यह कारनामा कोई एक विवि नहीं कर रहा बल्कि देशभर में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां माफिया की सक्रियता से गलत कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। प्रवेश, छात्रवृत्ति से लेकर शिक्षण, परीक्षाएं और परीक्षाफल तक, सब गड़बड़ियों का शिकार बना है। ऐसे रैकेट सैकड़ों-हजारों में हैं जो नियमविरुद्ध मनमाफिक संस्थानों में प्रवेश दिला सकते हैं। छात्रवृत्ति का करोड़ों-अरबों रुपया डकार रहे हैं, पढ़ाने के लिए कोचिंग जैसे समानांतर तंत्र बना चुके हैं और परीक्षाफल में गड़बड़ियों की बदौलत फेल अभ्यर्थी को पास कराने का धंधा कर धनकुबेर बन चुके हैं। परिणामस्वरूप युवा पीढ़ी में हताशा बढ़ रही है, सरकारी शिक्षा तंत्र से इतर वो दूसरे विकल्प चुनने के लिए मजबूर है। शिक्षा देश का भविष्य बनाती है। कहा जाता है कि शिक्षा का स्तर जैसा होगा, देश भी वैसा ही बनेगा। अपने देश की बात करें तो वर्तमान भय, भूख और भ्रष्टाचार का शिकार है तो हम भविष्य रुपहला होने की उम्मीद लगा रहे हैं। हमें लगता है कि भावी पीढ़ी कुछ कर दिखाएगी और हम महाशक्ति बनने का सपना साकार कर पाएंगे लेकिन शिक्षा के जिस जरिए से हम यह स्वप्न बुन रहे हैं, वह दिनोंदिन खोखला हो रहा है। भ्रष्टाचार की दीमक शिक्षा के मंदिरों की चौखट चाट रही है। बड़ी अजीब सी स्थिति है, हम लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति की आलोचना का कोई मौका नहीं छोड़ते और उसका विकल्प भी नहीं तलाशते। शिक्षा क्षेत्र में ईमानदारी की जरूरत बताते हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं। शिक्षा का पूरा तंत्र जैसे जाम सा है, आरोपों के घेरे में बुरी तरह घिरा हुआ है। माफिया की दखलंदाजी इस हद तक बढ़ गई है कि फर्जी शैक्षिक कागजातों को भी सत्य सिद्ध कर दिया जाता है। केंद्रीय विश्वविद्यालय और आईआईटी-आईएमएम जैसे संस्थान अंगुलियों पर गिनने लायक ही हैं, राज्य विश्वविद्यालयों का तो पूरी तरह बेड़ा गर्क हो रहा है। यहां कर्मचारी-अफसर सब लूट मचाने में लगे हैं, ईमानदार अगर कोई आ जाए तो उसे काम ही नहीं करने दिया जाता। तथ्यों के आधार पर बात करें तो स्थितियों का अंदाज लगा पाना ज्यादा आसान होगा। उजागर होगा कि संख्या की दृष्टि से अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नम्बर पर आने वाली भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था गुणवत्ता के मामले में सबसे नीचे है और दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने वाले नौ विद्यार्थियों में सिर्फ एक ही कॉलेज का मुंह देख पाता है। उच्च शिक्षा के लिए पंजीकरण कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानि मात्र 11 फीसदी भारत में है जबकि हम जिस महाशक्ति अमेरिका से अपनी मेधा की तुलना करते हैं, वहां यह अनुपात 83 प्रतिशत है। इस अनुपात को 15 फीसदी तक ले जाने का लक्ष्य है और इसके लिए भारत को करीब सवा दो लाख करोड़ रुपया खर्च करना होगा, जबकि हमने पंचवर्षीय योजना के लिए सिर्फ 77 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। सरकारी निष्क्रियता की वजह से देसी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फीसदी शिक्षकों की कमी है। शिक्षा के पुरसाहाल और हमारी अनदेखी का ही नतीजा है कि डिग्रियों की हैसियत घट रही है। छात्रों को नौकरी नहीं मिल पा रही और माध्यमिक विद्यालयों में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। कई राज्य विश्वविद्यालयों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने नकारात्मक सूची में डाल दिया है और वो इन विश्वविद्यालयों से पासआउट छात्रों को नौकरी के लिए कॉल तक नहीं करते, इंटरव्यू और नौकरी मिलना तो दूर की बात है। नैसकॉम और मैकिन्से सरीखी प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के रिसर्च के अनुसार, इंजीनियरिंग डिग्री प्राप्त चार में से सिर्फ एक और मानविकी के 10 में से एक छात्र को ही नौकरी के योग्य माना जा रहा है। इस स्थिति से भारत के उस दावे की हवा निकल जाती है कि उसके पास विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी और वैज्ञानिक शक्ति का जखीरा है। राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (नैक) के सर्वे का निष्कर्ष है कि देश के 90 फीसदी कॉलेजों और 70 फीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमजोर है। यह स्थिति तो तब है जबकि भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी, ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में सफल नहीं हो पाते। आश्चर्यजनक रूप से हम निजी क्षेत्र को तो शिक्षा में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं लेकिन प्रतिस्पर्धा का माहौल नहीं बना पा रहे। इसी के नतीजतन, आजादी के पहले 50 साल में सिर्फ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला था लेकिन पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दे दी गई। ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्र के प्रवेश से शिक्षा का बुरा ही हुआ, कई विश्वविद्यालय तो ऐसे भी बने हैं जिन्होंने अल्प समय में ही दुनियाभर में नाम कमाया है। लेकिन अपवाद ज्यादा हैं, कमाई मात्र के लिए आने वाले ने शिक्षा का बेड़ा गर्क ही किया है। इन्हीं नकारात्मक स्थितियों का नतीजा है कि प्रतिभा पलायन के साथ ही विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रति मेधावी छात्र-छात्राओं का रुझान बढ़ा है। भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानि करीब 43 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं क्योंकि देशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर उन्हें पसंद नहीं आ रहा। (लेखक ‘पुष्प सवेरा’ से जुड़े हैं।)

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