Tuesday, August 28, 2012
शासनहीनता और कैग पर प्रहार
घोटाले, महंगाई और ढेरों अन्य समस्याओं से जूझते देश में इस समय जैसे शासनविहीनता की स्थिति नजर आ रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की चुप्पी, लाचारी और फैसले न लेने के जो हालात नजर आ रहे हैं, वो यह शक पैदा कर रहे हैं कि देश में शासन है भी या नहीं। इतनी लचर सरकार तो याद भी नहीं पड़ती। गठबंधन सरकार में जिस स्तर से फैसले हो भी रहे हैं, उनमें पारदर्शिता का अभाव है। ऐसे में विपक्षी भारतीय जनता पार्टी दिशाहीनता की इस स्थिति का लाभ उठाने की सोच रही है। उसे लग रहा है कि सरकार के खिलाफ भावनाएं उफान पर हैं। आम जन पीड़ित है और चुनाव में बदला लेने का मन बना रहा है। लेकिन यदि वह 2014 तक का इंतजार करने का मन बनाती है तो संभव है कि सरकार विरोधी हालात न रहें। कहाभी जाता है कि वोटर की याद्दाश्त बहुत छोटी होती है और वह मतदान के कुछ दिन पहले तक की बात भी कभी-कभी भूल जाया करता है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि राजनीतिक नैतिकता भाजपा को इसकी इजाजत देती है या नहीं? चुनावों पर देश भारी-भरकम राशि खर्च करता है, मध्यावधि चुनाव के रूप में उसे खर्च की आग में झोंक देना क्या सही कदम साबित होगा? सवाल यह भी है कि अगर भाजपा चुनाव की तरफ न बढ़े तो दूसरा रास्ता क्या है? कोयला घोटाले में संसद में बवंडर मचाने वाली भाजपा शॉर्ट कट की राजनीति कर रही है। कभी वो समाजसेवी अन्ना हजारे के पीछे खड़ी दिखती है तो कभी योगगुरू स्वामी रामदेव के। मंशा होती है कांग्रेस के विरुद्ध जनभावनाएं भड़काना और उसका लाभ उठाने की कोशिश। इस समय वह संसद में गतिरोध पैदा किए हुए है। इसके बजाए वह खुद सामने आकर आंदोलन क्यों नहीं अपनाती जबकि देश में सरकार विरोधी माहौल पैदा हो रहा है। समय की मांग है कि भाजपा अपना आंदोलनकारी रूप दिखाए और देश को बताए कि देश संचालन के लिए वह नया क्या करेगी, कि उसे सत्ता सौंप दी जाए। उसे अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को एकजुट भी करना चाहिये।
राजनीति गर्माने वाली भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट की ही धमक है कि मानसून सत्र में विधेयक लंबित हैं, पर संसद नहीं चल पा रही। इसी के साथ कैग को कठघरे में खड़े करने का उपक्रम भी जमकर जारी है। लेकिन सवाल यह है कि कैग पर प्रहार हो क्यों रहे हैं, जबकि सरकार बार-बार अपने रुख से पीछे हटती रही है। भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के हमलों के जवाब में कांग्रेस के तर्कों का आधार कैग पर आरोप ही हैं। हालांकि मामूली सी इस बात पर ही कांग्रेसी नीयत पर शक पैदा हो जाता है कि कैग की आलोचना उसे तब ही क्यों करनी होती है, उसे कमियां तब ही नजर क्यों आती हैं जबकि रिपोर्ट में सरकार के नीयत पर शक किया जा रहा हो। करीब डेढ़ साल पुरानी बात है, तब दूरसंचार के टू-जी लाइसेंसों के आवंटन पर हो-हल्ला मचा हुआ था। कांग्रेस ने यह कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश की, कि लाइसेंस आवंटन में कोई क्षति नहीं हुई है यानी जीरो लॉस की स्थिति में घोटाला कैसे कहा जा सकता है? मामला न्यायालय पहुंचा तो उसने चुप्पी साध ली। वहां कहा कि क्षति तो हुई लेकिन उतनी नहीं, जितनी कही जा रही है। कोयला घोटाले की ताजा रिपोर्ट पर दो दिन पहले केंद्रीय सत्ता के प्रवक्ताओं की तरह आए गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा था कि कोल ब्लॉकों के आवंटन में किसी तरह की धांधली तो तब मानी जा सकती है जबकि देश को किसी तरह की आर्थिक हानि हुई हो। अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि नुकसान को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। टू-जी लाइसेंस आवंटन की तरह यहां भी दो तरह की बातें की जा रही हैं। वहां भी बाद में सरकार ने कहा था कि घाटा हुआ है लेकिन ज्यादा नहीं और अब भी यही बात दोहरायी जा रही है। सरकार यह कहकर अपनी गर्दन बचाने की कोशिश कर रही है कि प्रक्रिया में खामियां थीं और ब्लॉक आवंटन में देरी न हो, इसलिये आवंटन का यह तरीका अपनाया गया। यह खामियां दूर करने में छह-सात साल लग गए। यहां भी उसके पक्ष में झोल नजर आ रहा है। कमियां थीं यानी राजकोष को चपत का आरोप सही है। उसने कोई ऐसा रास्ता क्यों नहीं चुना जिससे सरकार को क्षति नहीं लगती। बाद में प्रक्रिया में सुधार कर लिया जाता। तस्वीर का दूसरा पहलू, उस विपक्ष पर अंगुली उठा रहा है जो इस समय हो-हल्ला मचाकर आसमान सिर पर उठाए हुए है। छत्तीसगढ़ में भाजपा के साफ छवि के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और प्रमुख वामपंथी स्तंभ बुद्धदेव भट्टाचार्य, ओडिशा के नवीन पटनायक पर गड़बड़ी में भूमिका का आरोप है। उन्होंने बगैर प्रक्रिया कोल ब्लॉक आवंटन की हिमायत की? कांग्रेस के साथ जवाब विपक्ष को भी देना चाहिये।
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