बेशक, यह राजनीति के अपराधीकरण का उदाहरण नहीं पर शर्मनाक बहुत है। कहते हैं कि अपराधी का कोई धर्म या जाति नहीं होती लेकिन पंजाब में पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना के लिए जिस तरह का दबाव डालना शुरू किया गया है, वह सिद्ध कर रहा है कि राजनीति हद तक गिरकर किसी मुद्दे को वोट के तराजू में तौलने से पीछे नहीं हिचकती। दबाव धर्म के झंडाबरदारों ने डाला है और पर्दे के पीछे वही कांग्रेस है, जिसे कभी यह कहकर कठघरे में खड़ा किया जाता था कि पंजाब में आतंकवाद का पोषण उसी ने किया है। सत्तासीन अकाली दल भी कड़ा कदम उठाने के बजाए नफा-नुकसान सोचकर चुप है और उसी रास्ते पर चल रहा है जिस पर उसे चलाए जाने की कोशिशें हो रही हैं।
राजोआना को फांसी की सजा से बचाने के लिए श्री अकाल तख्त साहिब ने राज्य की अकाली दल गठबंधन सरकार के लिए हुक्मनामा जारी किया है। 31 मार्च 1995 को आतंकवादियों के मानव बम हमले में बेअंत सिंह सहित 17 लोगों की सिविल सचिवालय के बाहर हत्या कर दी गई थी। चंडीगढ़ के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय ने गत मार्च को राजोआना को पटियाला की केन्द्रीय जेल को 31 मार्च को फांसी देने के निर्देश दिए थे। सिख संगठनों की मांग पर धार्मिक संस्था ने कहा है कि सरकार के मुखिया प्रकाश सिंह बादल और शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के अध्यक्ष अवतार सिंह मक्कड़ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलकर सजा को उम्रकैद में बदलवाने के लिए अपील करें। श्री अकाल तख्त साहिब ने राजोआना को 'जिंदा शहीद' और उसके सहयोगी दिलावर सिंह को 'कौमी शहीद' के खिताब से नवाजा है। हुक्म से राज्य में सियासी अफरा-तफरी का माहौल है। बेचैनी के नतीजतन शिरोमणि अकाली दल की कोर कमेटी की बैठक बुलाई गई। सवाल उठता है कि यह सब हो क्यों रहा है? विधानसभा चुनावों में बहुमत से सत्ता में आए गठबंधन को लगता है कि मुद्दा उसे आगामी लोकसभा चुनावों में नुकसान पहुंचा सकता है। विस चुनावों में मात से सन्न विपक्षी कांग्रेस पार्टी को यह फायदे का सौदा लग रहा है। कोई धार्मिक संगठन की नीयत पर अंगुली नहीं उठा रहा। धार्मिक संस्था होने के नाते उस पर यह जिम्मेदारी है कि वह अपने अनुयायी को बचाए। कोई भी धर्म मौत की सजा की हिमायत नहीं करता बल्कि दोषी को सुधरने का मौका देने का पक्षधर होता है। समस्या तब आई जब संस्था के समक्ष मांग उठाने वाले संगठनों की पहचान की गई। इनमें से कुछ संगठन विशुद्ध रूप से कांग्रेस के समर्थक हैं। इस हत्याकांड में राजोआना के अलावा जगतार सिंह हवारा को भी अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी लेकिन बाद में अदालत ने हवारा की याचिका पर सजा को उम्र कैद में बदल दिया था। राजोआना ने अपनी सजा कम करने का अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया था यानि उन्हें अपने अपराध पर अफसोस नहीं और वह सजा कम नहीं कराना चाहते। फिर तो यह हिमायत नहीं होनी चाहिये थी।
यह पहली बार नहीं हो रहा बल्कि एक परंपरा की नींव पड़ने लगी है। संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी को लेकर इस तरह की आवाजें जम्मू-कश्मीर से उठी थीं। राज्य विधानसभा में जमकर हंगामा हुआ। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह दिया था कि अफजल की फांसी से घाटी के हालात और बिगड़ेंगे। उमर अब्दुल्ला इस तरह के बयान देकर उग्र तेवरों के लिए प्रसिद्ध महबूबा मुफ्ती की बराबरी करने में जुटे थे। अफजल के मसले पर उमर अब्दुल्ला ही नहीं, कांग्रेस के नेताओं के भी खयालात कुछ अलग नहीं थे। अफजल को जब फांसी की सजा सुनाई गई, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद उस वक्त जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे और उनका कहना था कि अगर अफजल को फांसी दी गई तो इसकी प्रतिक्रिया घाटी में हो सकती है। एक अन्य मामले में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की सजा माफ करने का प्रस्ताव तमिलनाडु विधानसभा में पास हुआ था। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह दिल्ली के बटला हाऊस मुठभेड़ पर सवाल उठा चुके हैं। दरअसल, सजा में देरी से सारी समस्याएं पैदा हो रही हैं। सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में जल्दबाजी नहीं दिखाती और किसी भी घटना पर कुछ ठोस कदम उठाने के बजाए कोरी बयानबाजी में जुट जाती है। देश की राजधानी में अत्यधिक सुरक्षा से लैस संसद के बाहर हमला होता है लेकिन दोषी अफजल गुरू को अदालत के आदेश के बावजूद आज तक फांसी तक नहीं पहुंच पाता। सरकार को लगता है कि अफजल को फांसी से देश का मुस्लिम नाराज होगा तो ये उसकी सबसे बड़ी भूल है। ये मुस्लिम आबादी की निष्ठा पर सवाल भी खड़े करने वाली है। मुस्लिम समाज समेत देश का हर तबका आज यह मानता है कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता है और अगर कोई दोषी है तो उसे सजा जरूर मिलनी चाहिए। राजोआना के मामले में भी आम आदमी यही सोचता है। कोई भी शांतिप्रिय नागरिक चाहें वह किसी भी धर्म या जाति का हो, अपराधी को बचाने की हिमायत नहीं करता। यह सब समझते हैं पर सरकार शायद नहीं समझती।
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