Sunday, May 25, 2014
पर्यावरण का संकट
घोर गर्मियों के मई माह में कभी बरसात और कभी ठण्डी हवाओं के दौर बेशक हमारे सुकून की वजह हैं लेकिन यह तात्कालिक हैं और पर्यावरण के मोर्चे पर हमारी दुनिया की आधी-अधूरी तैयारियों की ओर इशारा कर रही हैं। पर्यावरण पर आई एक रिपोर्ट के अनुसार, हिमाचल क्षेत्र में घोर अंतुलन की स्थिति है और हम गहरे अंधेरे की ओर तेज कदम बढ़ा रहे हैं। दुनियाभर में 1950 से लेकर अब तक 95 फीसदी ग्लोबल वर्ॉमिंग के लिए इंसान ही दोषी है। रिपोर्ट में खबरदार किया गया है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया के तापमान में और वृद्धि होगी।
ये रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ की समिति ने तैयार की है। लब्बोलुआब यह है कि हिमालय के दिलकश पहाड़ अब बढ़ते हुए प्रदूषण की कीमत चुका रहे हैं। प्रदूषण से वातावरण में गर्मी बढ़ी है और अब इसका असर साफ तौर पर नजर आने लगा है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से दुनियाभर में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और ऐसा खतरा हिमालय के क्षेत्र में मौजूद ग्लैशियरों पर भी है। मुश्किल की बात यह है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में कम से कम 80 करोड़ लोग पानी के लिए इन्हीं ग्लेशियरों पर निर्भर हैं। अमेरिकी एजेंसी नासा के मुताबिक, हिमालय पर अक्सर दिखने वाले धुएं के बादल स्थानीय प्रदूषण का ही नतीजा हैं। वाहनों से निकलने वाले धुंए, जंगल की आग और लकड़ी के चूल्हे से निकलने वाला धुएं जैसे प्रदूषण से भी ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार तेज हो रही है। भारत में 15 करोड़ से अधिक लोग इसी तरह के चूल्हों का इस्तेमाल करते हैं जिनमें ज्यादातर गरीब हैं। कम प्रदूषण वाले चूल्हों का इंतजाम हम कर भी लें, लेकिन मंजिल अभी दूर है क्योंकि असल खतरा ग्रीन हाउस गैसों से है जो अब भी बढ़ रही हैं। बढ़ते वैश्विक तापमान और इसके परिणामों को लेकर अरसे से चिंता जताई जाती रही है। हालांकि कुछ लोग यह भी कहते रहे हैं कि खतरों को पर्यावरणवादी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से गठित अंतर-सरकारी समिति ने पांच साल पहले जब अपनी रिपोर्ट जारीकी तो यह स्पष्ट हो गया कि वाकई दुनिया एक अपूर्व संकट की ओर बढ़ रही है। रिपोर्ट दुनियाभर के सैकड़ों वैज्ञानिकों के गहन अध्ययन और विश्लेषण का परिणाम थी। इन पांच वर्षों में वैश्विक पर्यावरणीय संकट से निपटने की दिशा में क्या प्रयास किए गए, यह किसी से छिपा नहीं है। अधिकतर सुझाव और उपाय विकसित बनाम विकासशील देशों की मोर्चेबंदी की भेंट चढ़ते गए हैं, जैसे यह कोई मानवीय नहीं बल्कि कूटनीतिक मसला हो। अंतर-सरकारी समिति की पिछले वर्ष के अंत में जारी रिपोर्ट के पीछे भी सैकड़ों वैज्ञानिकों का अध्ययन है जिसमें पिछली रिपोर्ट में दी गई चेतावनियों की एक बार फिर पुष्टि हुई है और यह भी साफ हुआ कि संकट काफी गहरा है।
रिपोर्ट बताती है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का यही क्रम बना रहा तो इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में चार डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होना तय है यानी इसे दो डिग्री की वृद्धि तक सीमित रखने का लक्ष्य धरा का धरा रह जाएगा। दुनियाभर में लोगों का आम अनुभव है कि मौसम में बहुत तीव्र उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। इसकी पुष्टि करते हुए रिपोर्ट ढेर सारे हवाले देती है। अत्यधिक बरसात या सूखा, बर्फ आवरण में कमी और समुद्री जलसतह का इजाफा कोई संयोग नहीं है बल्कि विश्व की पारिस्थितिकी में आ रहे खतरनाक बदलावों के सूचक और परिणाम हैं। नई रिपोर्ट अपनी पूर्ववर्ती से एक मायने में जरूर अलग है। इसने रेखांकित किया है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी के लिए प्रमुख रूप से कॉर्बन उत्सर्जन जिम्मेदार है, न कि मिथेन और नाइट्रस आॅक्साइड जैसी दूसरी गैसें। लिहाजा, अब यह प्रचार बंद हो जाना चाहिए कि भारत जैसे देशों में पशुओं की अत्यधिक तादाद या बड़े पैमाने पर धान की खेती आदि भी पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के मुख्य कारक हैं। ग्लोबल वर्ॉमिंग के पीछे कॉर्बन उत्सर्जन की केंद्रीय भूमिका होने से साफ है कि औद्योगिक प्रदूषण ही समस्या की जड़ है। यदि कॉर्बन उत्सर्जन मौजूदा स्तर तक सीमित रहे, तो भी पृथ्वी के वातावरण में जितना जहर एकत्र हो चुका है, उसके खतरनाक नतीजे दुनिया को सदियों तक भुगतने पड़ सकते हैं। रिपोर्ट की सबसे खास चेतावनी समुद्री सतह बढ़ने को लेकर है। आशंका जताई गई है कि पृथ्वी के मानचित्र में कई बहुत त्रासद बदलाव हो सकते हैं। द्वीपीय राष्ट्रों पर वजूद का संकट मंडरा रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में भी चेन्नई, मुंबई, कराची जैसे महानगर इस संकट से अछूते नहीं रह पाएंगे पर समुद्र में मत्स्य भंडार के लोप होने का क्रम और पहले ही शुरू हो जाएगा। यह बेहद अफसोस की बात है कि 1997 में क्योतो समझौते के रूप में दुनिया को जलवायु संकट से बचाने की जो मुहिम शुरू हुई थी, वह कूटनीतिक दांव-पेच में उलझ गई है। आश्चर्य इस बात का है कि इतने महत्वपूर्ण शहरों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है और हमारी सरकारें निष्क्रियता नहीं छोड़ रहीं।
उम्मीद की एक सुबह
आज रविवार है, 26 मई 2014 यानी सोमवार को जब हम उठेंगे तो एक नई सुबह होगी, उम्मीद की। रात होने तक देश में एक नई सरकार होगी, नए पीएम नरेंद्र मोदी शपथ ले चुके होंगे। यह सत्ता में आम बदलाव का उदाहरण नहीं, यह इसलिये भी महत्वपूर्ण नहीं कि गैर कांग्रेसी पार्टी सत्तासीन हो रही है, यह अहम इसलिये है क्योंकि पूरे देश ने एक नेता के नाम पर बहुमत दिया है क्योंकि उसे लगता है कि यह आदमी बदलाव लाएगा। समस्याएं इतनी हो गई थीं, भ्रष्टाचार इतना बड़ा रूप धर चुका था कि उम्मीद की एक छोटी-सी किरण के पीछे पूरा देश दौड़ पड़ा। भाजपा को उन इलाकों से भी जीत मिली, जहां से उसने खुद कल्पना नहीं की थी। उसकी सीटों का ग्राफ मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंकलन से भी ऊपर पहुंच गया। गुजरात दंगों में खलनायक सिद्ध किए जा रहे नरेंद्र दामोदर दास मोदी नायक बन गए।
मोदी के संग अपार जनसमूह का समर्थन है। उनसे जुड़ी हर बात चर्चा का विषय है, जीतने के बाद से अब तक ट्विटर पर उनके फॉलोअर्स की संख्या 40 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। उन्हें जैसे सुपरमैन मान लिया गया है, कि वह हर समस्या का समाधान कर सकते हैं और करेंगे। महंगाई कम होगी, अच्छे दिन आएंगे। इस एक नेता के नाम पर भाजपा को वोट देने वाला हर भारतीय नागरिक उम्मीद लगाए बैठा है, मोदी को उस जैसे करोड़ों लोगों ने उम्मीद के पहाड़ पर बैठा दिया है। पर चुनौतियां जितनी हैं, उससे यह अंदाज लगा पाना बेहद मुश्किल है कि आम जनता की उम्मीदें पूरी होना कब शुरू होंगी। सबसे पहली समस्या है महंगाई की। पूरा देश इस वक्त महंगाई से त्रस्त है। मनमोहन की लोकप्रियता घटने की भी यही सबसे बड़ी वजह रही है। हर चीज के दाम आसमान छू रहे हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी नई सरकार के सामने मंहगाई को अहम चुनौती माना है। थोक मूल्य सूचकांक 5.2 के इर्द-गिर्द है जो पिछले मार्च में 5.7 था। वित्त सचिव अरविंद मायाराम का कहना है कि ये कमी जारी रहेगी लेकिन इस अच्छी खबर पर अल नीनो इफेक्ट का खतरा मंडरा रहा है। मानसून के औसत से कम रहने का अनुमान मौसम विभाग पहले ही दे चुका है। अगर मानसून का मिजाज बिगड़ता है तो नई सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती फिर से महंगाई ही रहने वाली है। महंगाई और विकास को साधना कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे कोई कलाबाज रस्सी पर चल रहा होता है। महंगाई अगर बढ़ती है तो ब्याज दरों पर काबू रखना पड़ता है जिससे विकास की दर घट जाती है और रोजगार कम होने लगते हैं। पिछले पांच साल में भारत इस भंवर से निकल नहीं पाया है। सरकारी अनुमान अगले साल विकास दर के छह फीसदी रहने के हैं, लेकिन मौजूदा हालत ये हैं कि विकास दर पांच फीसदी से नीचे है। आम जनता के लिए विकास के मायने दर नहीं है बल्कि नौकरी और सैलरी बढ़ना है। नई सरकार को रोजगार बढ़ाने के लिए कदम उठाने होंगे। चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा था, लोगों में कांग्रेस राज में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश था। ऐसे में सरकार को भ्रष्टाचार के विरुद्ध तत्काल कोई कदम उठाना होगा।
घर का बजट तभी चलता है जब कमाई खर्चे से ज्यादा हो पर भारत सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में कमाई के मुकाबले खर्चे बढ़ाए हैं। इस बार वित्तीय घाटा जीडीपी के 4.5 फीसदी तक रखने में सरकार ने कामयाबी पाई है। वित्तीय घाटा सरकार की कमाई और खर्चे के बीच का फर्क है। जो रोडमैप तैयार किया गया है उसके मुताबिक साल 2014-15 में ये घाटा 4.2 फीसदी और 2015-16 में 3.6 फीसदी तक लाया जाना है यानी मोदी सरकार का हाथ पहले से ही तंग है और उस पर खर्चे घटाने का दबाव रहेगा। काले धन की स्वदेश वापसी भी चुनावी मुद्दा रही है, भाजपा की ओर से योग गुरु बाबा रामदेव ने गांव-गांव जाकर बताया है कि काला धन आ गया तो हर शख्स करोड़ों का मालिक बन जाएगा। संभव है कि बात समझाने के लिए ऐसा कहा गया हो पर काला धन अब बड़ा मुद्दा बन चुका है। विदेशी बैंकों में कितना काला धन जमा है, ये कहना मुश्किल है पर अगली सरकार के लिए एक्शन में दिखना जरूरी हो गया है। इसके साथ ही अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए आयात-निर्यात घाटे को कम करना होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ दिक्कत ये है कि आयात हम ज्यादा करते हैं और निर्यात कम यानी ज्यादा डॉलर बाहर जाते हैं और आते कम हैं। नतीजतन, रुपये और हमारी अर्थव्यवस्था पर दबाव। इसे सुधार कर ही देश को तरक्की की तरफ बढ़ाया जा सकता है। भारत कच्चा तेल, सोना, खाद्य तेल और दालें बाहर से मंगाता है और ऐसे में किसी भी सरकार के लिए इस समस्या को सुलझाना आसान नहीं है। आम आदमी की बात करें तो उसे बिजली पानी और सड़कों से संबंधित समस्याओं का भी हल चाहिये, भाजपा ने इस हल का वादा किया है। सवाल ये है कि घर-घर बिजली कैसे जाएगी जब इतना उत्पादन होता ही नहीं है। बिजली के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ रही है, और उसके नखरे उठाना मजबूरी है। प्रश्न ये भी है कि भ्रष्ट तंत्र और कच्छप गति का शिकार सड़कें हर गांव तक कैसे पहुंचेंगी और पीने के साफ पानी के लिए क्या चमत्कार किया जाएगा कि हर इंसान तक उसकी पहुंच हो जाएगी। ये वादे करने आसान थे लेकिन इन्हें पूरा करने मुश्किल आना तय है। मोदी सरकार के लिए एक चुनौती केंद्र-राज्य के बीच मधुर संबंध रखना भी है, चूंकि राज्यों में अलग-अलग पार्टियां सत्तासीन हैं और इनका आपस में संबंध भी अच्छा नहीं है तो दिक्कत साथ चलने में आएगी। बीजेपी को सबसे बड़ी दिक्कत राज्यसभा में आने वाली है जहां वो अल्पमत में है और अकेले बिल पास करा पाने की हालत में नहीं। विपक्ष की पूरी राजनीति ही जब भाजपा के विरोध पर केंद्रित है तो वह भला क्यों किसी बिल पर समर्थन देगा। विपक्ष की एकजुटता से भी सरकार का सामना हो सकता है।
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